हिंदी का उपेक्षित साहित्यकार ठाकुर जगमोहन सिंह

Title: हिंदी का उपेक्षित साहित्यकार ठाकुर जगमोहन सिंह
Article-ID 202004009/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.1 Jan-April 2020 Language::Hindi                                                
Domain of Study: Humanities & Social Sciences
                                                                      Sub-DomainLiterature-Criticism
रमेश अनुपम (प्रो०)
204, कंचन विहार, डूमर तालाब ( टाटीबंध ), रायपुर, छत्तीसगढ़. 492010, भारत
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Summary in English

Modern Hindi was shaped by several authors, poets, and journalists during the time period of 1850-1900. This period is commonly known asBhartendu Yug’ , named after Bhartendu Harishchnadra, eminent Hindi poet and playwright. During this period an other novelists, Thakur Jagmohan Singh contributed a lot to enlighten the society through his famous literary workShyama Swapn’. This paper evaluates the contributions of Jagmohan Singh and highlights the importance of his literature

उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध हिंदी भाषा और साहित्य का उत्कर्ष का काल रहा है। इस काल में भारतेंदु हरिश्चंद्र के गम्भीर अवदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र सच्चे अर्थों में हिंदी साहित्य के निर्माताओं में सबसे अग्रणी रचनाकार हैं। ’ कविवचन सुधा ’, ’ हरिश्चंद्र चंद्रिका ’, ’ बालाबोधिनी ’, जैसी पत्रिकाओं, ’ वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति ’, ’ चंद्रावली ’, ’ भारत दुर्दशा ’, ’ नीलदेवी ’, ’ अंधेर नगरी ’, ’ प्रेमयोगिनी ’ जैसे नाटकों, ’ काश्मीर कुसुम ’, ’ बादशाह दर्पण ’ जैसे इतिहास परक ग्रंथों तथा अनेक कवित्त-सवैयों के माध्यम से जिस तरह से भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी भाषा तथा साहित्य को नवीन संस्कार प्रदान किए, वह हिंदी साहित्य का एक स्वर्णिम इतिहास बन चुका है।

भारतेंदु हरिश्चंद्र के साथ उस काल में ऐसे अनेक लेखक और कवि थे जो भारतेंदु हरिश्चंद्र से प्रभावित थे। ’ भारतेंदु मण्डल ’ के नाम से जाने जाने वाले इस मण्डल के सम्बंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने सुप्रसिध्द ग्रंथ ’ हिंदी साहित्य का इतिहास ’ में उल्लेख करते हुए इस मण्डल में पं. बदरीनारायण चैधरी, पं. प्रताप नारायण मिश्र, बाबू तोता राम, ठाकुर जगमोहन सिंह, लाला श्रीनिवासदास, पं. बालकृष्ण भट्ठ, पं. केशव राम भट्ठ, पं. अंबिकादत्त व्यास, पं. राधाचरण गोस्वामी जैसे कवियों-लेखकों का प्रमुखता के साथ उल्लेख किया है।
भारतेंदु मण्डल के इन कवियों और लेखकों में सर्वाधिक प्रतिभाशाली ठाकुर जगमोहन सिंह की हिंदी साहित्य में जिस तरह से चर्चा होनी चाहिए थी वैसी दुर्भाग्य से नहीं हो सकी है। ठाकुर जगमोहन सिंह भारतेंदु मंडल के केवल कवि और लेखक नहीं थे वरन् भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनन्यतम सखा भी थे। ठाकुर जगमोहन सिंह जिन दिनों क्वीन्स काॅलेज बनारस में अध्ययन कर रहे थे उन्हीं दिनों वे भारतेंदु हरिश्चंद्र के सम्पर्क में आए, बाद में यह सम्पर्क गहरी मैत्री भाव में परिवर्तित हो गया। ठाकुर जगमोहन सिंह ने क्वीन्स काॅलेज में अध्ययन के दरम्यान ही कालिदास कृत ’ ऋतुसंहार ’ का हिंदी में अनुवाद किया जो सन् 1875 में प्रकाशित भी हुई।
इसकी द्वितीय आवृत्ति सन् 1886 में प्रकाशित हुई। ’ ऋतुसंहार ’ की द्वितीय आवृत्ति में ठाकुर जगमोहन सिंह ने अपने परम प्रिय मित्र भारतेंदु हरिश्चंद्र का स्मरण करते हुए इसकी भूमिका में लिखा: ’’ हां प्रिय हरिश्चंद्र ( हाय रे हरिश्चंद्र ) से कवियों के हाथ तो नहीं लगे, नहीं तो और कुछ ही ओप झलप पड़ती, तौ भी विबूध कवि और सज्जन इसे सादर पढ़कर शोध देंगे तो बड़ी ही कृपा होगी ’’।
आ.रामचंद्र शुक्ल ने ’ हिंदी साहित्य का इतिहास ’ में ठाकुर जगमोहन सिंह की प्रतिभा और हिंदी साहित्य में उनके अमूल्य योगदान को रेंखाकित करते हुए लिखा है: ’’ भारतेंदु के मित्रों में कई बातों में उन्हीं की सी तबीयत रखने वाले विजयराघवगढ़ ( मध्यप्रदेश ) के राजकुमार ठाकुर जगमोहन सिंह जी थे। ये संस्कृत साहित्य और अंग्रेजी के अच्छे जानकार तथा हिंदी के एक प्रेम पथिक कवि और माधुर्यपूर्ण गद्य लेखक थे। प्राचीन संस्कृत साहित्य के अभ्यास और विन्ध्याटवी के रमणीय प्रदेश में निवास के कारण विविध भावमयी प्रकृति के रूप माधुर्य की जैसी सच्ची परख, जैसी सच्ची अनुभूति उनमें थी, वैसी उस काल के किसी हिंदी कवि या लेखक में नहीं पायी जाती। अब तक जिन लेखकों की चर्चा हुई उनके ह्रदय में इस भूखण्ड की रूप माधुरी के प्रति कोई सच्चा प्रेम संस्कार न था। परम्परा पालन के लिए चाहे प्रकृति का वर्णन उन्होंने किया हो, पर वहां उनका ह्रदय नहीं मिलता। अपने ह्रदय पर अंकित भारतीय ग्राम्य जीवन के माधुर्य का जो संस्कार ठाकुर साहब ने अपने ’ श्यामा स्वप्न ’ में व्यक्त किया है, उसकी सरसता निराली है। बाबू हरिश्चंद्र, पंडित प्रताप नारायण मिश्र आदि कवियों और लेखकों की दृष्टि और ह्रदय की पहुंच मानव क्षेत्र तक ही थी, प्रकृति के अपार क्षेत्रों तक नहीं पर ठाकुर जगमोहन सिंह जी ने नरक्षेत्र के सौंदर्य को प्रकृति के अन्य क्षेत्रों के सौंदर्य के मेल में देखा है ’’।
आ. रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में कहें तो भारतेंदु सी तबीयत रखने वाले विजयराघवगढ़ के राजकुमार ठाकुर जगमोहन सिंह में विविध भावमयी प्रकृति के रूप माधुर्य की जैसी सच्ची परख, जैसी सच्ची अनुभूति थी, वैसी उस काल के किसी हिंदी कवि या लेखक में नहीं पायी जाती है। आगे आ. रामचंद्र शुक्ल ने यह भी लिखा है बाबू हरिश्चंद्र, पंडित प्रताप नारायण मिश्र आदि कवियों और लेखकों की दृष्टि और ह्रदय की पहुंच मानव क्षेत्र तक ही थी, प्रकृति के अपार क्षेत्रों तक नहीं, पर ठाकुर जगमोहन सिंह ने नरक्षेत्र के सौंदर्य को प्रकृति के अन्य क्षेत्रों के सौंदर्य के मेल में देखा है।
आ.रामचंद्र शुक्ल ने ठाकुर जगमोहन सिंह द्वारा सन् 1884-85 में लिखित उपन्यास ’ श्यामा स्वप्न ’ का भी अपने इस ग्रंथ में उल्लेख करते हुए इसे उद्धृत भी किया है जिसमें वे ठाकुर जगमोहन सिंह के नरक्षेत्र के सौंदर्य को प्रकृति के अन्य क्षेत्रों के सौंदर्य के मेल में देखने का प्रयत्न करते हैं। ठा.जगमोहन सिंह की सौंदर्यमयी भाषा, उनकी दृष्टि प्रकृति का अद्भुत रसात्मक वर्णन ’ श्यामा स्वप्न ’ में देखते ही बनता है। यह उपन्यास सन् 1888 में एजुकेशन सोसायटी प्रेस बायकुला बम्बई से प्रकाशित हुआ था, जिसका मूल्य उस समय एक रूपया था।
’श्यामा स्वप्न ’ को स्वयं लेखक ने ’ श्यामास्वप्न अर्थात् गद्यप्रधान चार खण्डों में एक कल्पना ’ कहा है हिंदी के वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह का कहना है कि ’ कल्पना ’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ठाुकर जगमोहन सिंह के यहां ही देखने को मिलता है, इससे पहले हिंदी के किसी कवि या लेखक ने ’ कल्पना ’ शब्द का प्रयोग नहीं किया था।
ठाकुर जगमोहन सिंह ने वस्तुतः अपने उपन्यास ’ श्यामा स्वप्न ’ में गद्य प्रधान चार खण्डों में एक ’ कल्पना ’ का ही एक वृहद वृत्तांत रचा था। ठाकुर जगमोहन सिंह द्वारा सन् 1885 में लिखित उपन्यास ’ श्यामा स्वप्न ’ कई अर्थों में एक विलक्षण उपन्यास है। ’ श्यामा स्वप्न ’ की भाषा हिंदी के पहले उपन्यास ’ परीक्षा गुरू ’ से बहुत आगे की भाषा है, जबकि ’ श्यामा स्वप्न ’, ’ परीक्षा गरू ’ के मात्र एक वर्ष के पश्चात् प्रकाशित होने वाला उपन्यास है, लेकिन ’ परीक्षा गुरू ’ से वह कई दृष्टि से भिन्न ही नहीं एक अलग भाव बोध और संवेदना का उपन्यास हैं।
आ. रामचंद्र शुक्ल ने ’ श्यामा स्वप्न ’ के भाषा सौंदर्य को रेखांकित करते हुए इस उपन्यास के एक दृष्टांत को अपने ’ हिंदी साहित्य का इतिहास ’ में भी उद्धृत किया है: ’’ मैं कहां तक इस सुदंर देश का वर्णन करूं ? जहां की निर्झरिणी जिनके तीर वा नीर से भरे, मदकल कूजित बिहंगमों से शोभित हैं, जिनके मूल से स्वच्छ और शीतल जलधारा बहती है, और जिनके किनारे के श्याम जंबू के निकुंज फलभार से नमित जनाते हैं-शब्दाय-मान होकर झरती है। जहां के शल्लकी वृक्षों की छाल में हाथी अपना बदन रगड़-रगड़ कर खुजली मिटाते हैं और उनमें से निकला क्षीर सब वन के शीतल समीर को सुरक्षित करता है। मंजुवंजुल की लता और नील निचुल के निकुंज जिनके पत्ते ऐसे सघन जो सूर्य की किरनों को भी नहीं निकलने देते, इस नदी के तट पर शोभित हैं ’’।
यह उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के गद्य का नायाब नमूना है। जब खड़ी बोली ठीक से अपने पांवों पर खड़ी भी नहीं हो पाई थी। सन् 1884-85 खड़ी बोली का प्रारम्भिक काल था, ठाकुर जगमोहन सिंह ने ’ श्यामा स्वप्न ’ की भूमिका रायपुर में रहते हुए 25 दिसम्बर 1885 को लिखी थी।
ठाकुर जगमोहन सिंह द्वारा लिखित यह भूमिका एक तरह से हिंदी साहित्य की धरोहर है। इस भूमिका में ठाकुर जगमोहन सिंह ने जिस तरह से अपने ह्रदय की भावनाओं को सर्वथा एक अलग भाषा माधुर्य में प्रकट किया है, वह लेखक के भाषा वैशिष्टय का परिचायक है। भाषा का वह माधुर्य उस काल के किसी अन्य कवि या लेखक में इस तरह से नहीं दिखाई देती है, जिस तरह से ठाकुर जगमोहन सिंह के इस उपन्यास में है।
’श्यामा स्वप्न ’ के प्रथम संस्करण में प्रकाशित भूमिका जिसे ठाकुर जगमोहन सिंह ने ’ समर्पण ’ का नाम दिया है, उसमें वे लिखते है: ’’ प्रियतम, तुम मेरी नूतन और प्राचीन दशा को भली भांति जानते हौ-मेरा तुमसे कुछ भी नहीं छिपा तो इसके पढ़ने, सुनने और जानने के पात्र तुमही हौ , तुम नहीं तो और कौन होगा? कोई नहीं। श्यामालता के वेत्ता तो आप हौ न? यह उसी सम्बंध का श्यामास्वप्न भी बनाकर प्रकट करता हूं। रात्रि के चार प्रहर होते हैं - इस स्वप्न में भी चार प्रहर के चार स्वप्न हैं। जगत है - तो यह भी स्वप्न ही है। मेरे लेख तो प्रत्यक्ष भी स्वप्न है - पर मेरा श्यामा स्वप्न स्वप्न ही है ’’।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कल्पना और स्वप्न जैसे शब्दों का प्रयोग करने वाले ठाकुर जगमोहन सिंह प्रथम लेखक थे। जिनके लिए जगत भी स्वप्नवत है और प्रत्यक्ष भी एक स्वप्न। ’ श्यामा स्वप्न ’ इसलिए एक ऐसा उपन्यास है जो अपनी सर्वथा भिन्न अंतर्वस्तु और अनूठे शिल्प और काव्यमयी भाषा के चलते हिंदी साहित्य का एक कालजयी उपन्यास है।
 अंग्रेजी के सुप्रसिध्द कवि बायरन की कविता ’ प्रिजनर आॅफ शिलन ’ का अनुवाद ठाकुर जगमोहन सिंह पहले ही कर चुके थे। इसके अतिरिक्त मेम सिमंस की अंग्रेजी कविता का अनुवाद भी उन्होंने किया था। पाश्चात्य साहित्य का उन्हें गहन अध्ययन था। ठाकुर जगमोहन सिंह से पूर्व भारतेंदु युग के किसी भी लेखक या कवि ने तब तक किसी विदेशी कविता का अनुवाद नहीं किया था। इसलिए पाश्चात्य अंग्रेजी कविताओं के प्रथम अनुवादक होने का श्रेय भी ठाकुर जगमोहन सिंह को प्राप्त है।
’श्यामा स्वप्न ’ के प्रथम खंड ’ प्रथम याम का स्वप्न ’ के प्रारम्भ में ही ठाकुर जगमोहन सिंह ने जो सुदंर दृश्यचित्र रचा है वह अद्भुत है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध की यह मनोरम और काव्यमयी भाषा चकित कर देती है। यहां कल्पना की अद्भुत उड़ान और प्रकृति की अनुपम छटा देखते ही बनती है: ’’ आज भोर यदि तमचोर के रोर से जो निकट की खोर ही में जोर से सोर किया नींद न खुल जाती तो न जाने क्या-क्या वस्तु देखने में आती। इतने ही में किसी महात्मा ने ऐसी परभाति गाई कि फिर वह आकाश सम्पत्ति हाथ न आई! वाह रे ईश्वर! तेरे सरीखा जंजालिया कोई जालिया भी न निकलैगा। तेरे रूप और गुण दोनों वर्णन के बाहर हैं। आज क्या-क्या तमाशे दिखलाए। यह ( सोचना ) तो व्यर्थ था क्यौंकि प्रतिदिन इस संसार में तू तमाशा दिखलाता ही है। कोई निराशा में सिर पीट रहा है, कोई जीवाशा में भूला है, कोई मिथ्याशा ही कर रहा है, कोई किसी के नैन के चैन का प्यासा है, और जल विहीन दीन मीन के सदृश तलफ रहा है - बस। इन सब बातों का क्या प्रयोजन! ’’।
यह अकारण नहीं है कि ’ श्यामा स्वप्न ’ की द्वितीय आवृत्ति जो सन् 1954 में डाॅ. श्रीकृष्ण लाल के संपादन में नागरी प्रचारिणी सभा काशी से प्रकाशित हुई, उसकी भूमिका में संपादक ने लिखा है कि: ’’ श्यामा स्वप्न के रचयिता का अध्ययन बड़ा ही विस्तृत था। संस्कृत और हिंदी के काव्यों का रस निचोड़ कर उन्होंने इसे ’ श्यामा स्वप्न ’ में भर देने का प्रयत्न किया है। प्रकृति वर्णन की प्रेरणा उन्हें संस्कृत कवियों से मिली और श्रृगांर की प्रेरणा हिंदी के रीतिकालीन कवियों से मिली ’’।
’श्यामा स्वप्न ’ की द्वितीय आवृत्ति की भूमिका में डाॅ. श्रीकृष्ण लाल ने पहली बार विस्तारपूर्वक ठाकुर जगमोहन सिंह के महत्व को रेखांकित करने का प्रयास किया था।
’श्यामा स्वप्न ’ का आख्यान और रूप विधान ही अद्भुत नहीं हैं अपितु इसकी काव्यात्मक भाषा भी लेखक की अद्वितीय प्रतिभा का परिचायक है। ठाकुर जगमोहन सिंह की भाषा का माधुर्य उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक गद्य की भाषा से काफी भिन्न है। ठाकुर जगमोहन सिंह की भाषा में कठोरता तथा नीरसता के लिए एक तरह से कहीं कोई जगह नहीं है।
’ प्रथम याम का स्वप्न ’ में नायक की मनः स्थिति का परिचय देते हुए वे लिखते हैं: ’’ उसने अपने कोठरी के अंधकार से डरकर प्रकाश देखने की इच्छा की, इस युवा का अपराध क्या था? इसने प्रेम किया था अद्यापि प्रेम करता था एक उत्तम कुल की स्त्री - इसको यह मोह और उन्मत्तता से प्रेम करता था। आह प्यारी तेरी मूत्र्ति भी इस कारागार के अंधकार में कभी-कभी मुसकिरा जाती है-उस तारा के भांति जो मेघ के बीच में चमक कर समुद्र के कोप में पड़े हुए निराश मल्लाहों को प्रसन्न करती है ’’।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इस तरह के उपन्यास की कल्पना लगभग असम्भव ही नहीं अपितु दुष्कर भी है। एक बेहद रूढ़ि ग्रस्त और बंद समाज में एक नवयुवक का विजातीय स्त्री से प्रेम को केन्द्र में रखकर इस तरह के आख्यान की कल्पना साधारण बात नहीं है। यह दृष्टांत भी कि ’ उस प्रियतमा की मूत्र्ति कारागार के अंधकार में भी कभी-कभी मुसकिरा जाती है। उस तारा के भांति जो मेघ के बीच चमक कर समुद्र के कोप में पड़े हुए निराश मल्लाहों को प्रसन्न करती है ’, ठाकुर जगमोहन सिंह की अद्भुत कल्पना शक्ति और भाषा के माधुर्य को प्रकट करती है।
लाला श्रीनिवास दास लिखित ’ परीक्षा गुरू ’ जो श्यामा स्वप्न के एक वर्ष पूर्व ही लिखा गया था अगर यथार्थ की ठोस जमीन पर उकेरा गया एक आदर्शात्मक और उपदेशात्मक उपन्यास है, तो श्यामा स्वप्न यथार्थ और फैंटेसी की मनोभूमि पर आरोपित ’ चार खंडो में एक कल्पना ’।
लाला श्रीनिवास दास ने ’ परीक्षा गुरू ’ की भूमिका जो उन्होंने 25.11.1884 को लिखी है, उसमें अपने इस उपन्यास के सम्बंध में लिखा है: ’’ यह सच है कि नई चाल की चीज देखने का सबका जी ललचाता है। परंतु पुरानी रीति के मन में समाए रहने और नई रीति को मन लगाकर समझने में थोड़ी मेहनत होने सै पहले पहल पढ़ने वाले का जी कुछ उलझने लगता है और मन उछट जाता है। इस्सै उसका हाल समझ मैं आने के लिए मैं अपनी तरफ से कुछ खुलासा किया चाहता हूं। पहलै तो पढ़ने वाले इस पुस्तक मैं सौदागर की दुकान का हाल पढ़ते ही चकरावेंगे क्योंकि अपनी भाषा मैं अब तक वात्र्तारूपी जो पुस्तके लिखी गई हैं उन्मैं अक्सर नायक नायिका वगैर का हाल ठेट सै सिलसिलेवार ( यथाक्रम ) लिखा गया है ’’ जैसे कोई राजा, बादशाह, सेठ, साहूकार का लड़का था उसके मन मैं इस बात सै यह रूचि हुई और उसका यह परिणाम निकला ’’। ऐसा सिलसिला कुछ भी नहीं मालुम होता ’’।
श्रीनिवास दास के लिए ’ परीक्षा गुरू ’ नई चाल की चीज है, पर वे यह भी जानते है कि पुरानी रीति के मन में समाए रहने और नई रीति को मन लगाकर समझना सबके लिए आसान नहीं है। इसलिए वे ठेठ हिंदी गद्य में जिस वृत्तांत को यथा साध्य बांधने का उपक्रम करते है उसमें स्थान-स्थान पर धर्म ग्रंथों और संस्कृत काव्य श्लोकों के ऐसे उदाहरण प्रचुर मात्रा में है जिससे एक तरह से उपदेशात्मक प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। श्रीनिवास दास ’ हितोपदेश ’ तथा ’ श्रीमद्भगवत गीता ’ को स्थान-स्थान पर अपने इस उपन्यास में उद्धृत करते चले जाते है, जिससे उपन्यास का स्वरूप तथा प्रवृत्ति किसी उपदेशात्मक अथवा नीतिपरक ग्रंथ सा जान पड़ता है।
इसके विपरीत ’ श्यामा स्वप्न ’ प्रेम, फैंटेसी, स्वप्न और प्रकृति के सुदंरतम रूप का अलौकिक चित्रण करने वाला मधुमय कोष सदृश्य है। जो आधुनिक भावबोध ’ श्यामा स्वप्न ’ में परिलक्षित होता है, वह उससे एक वर्ष पूर्व लिखे गए उपन्यास ’ परीक्षा गुरू ’ में अनुपस्थित सा जान पड़ता है।
यह बात कम ही लोगों को मालूम है कि सन् 1886 में लाला श्रीनिवास दास तथा ठाकुर जगमोहन सिंह के मध्य भेंट भी हुई थी। लाल श्रीनिवास दास जलवायु परिवर्तन हेतु राजस्थान के भरतपुर आए हुए थे। संयोगवश उन्हीं दिनों ठाकुर जगमोहन सिंह भी जलवायु परिवर्तन के उद्देश्य से घूमते-घूमते भरतपुर पहुंच गए थे। वहां जाकर उन्हें विदित हुआ कि लाला श्रीनिवास दास भी भरतपुर आए हुए है। वे लाला श्रीनिवास दास से मिलने उनके ठौर पर पहुंच गए। ठाकुर जगमोहन सिंह ने अपनी इस भेंट का वर्णन अपनी डायरी में किया है। वे लिखते हैं: ’’ इसके बाद मैं लाला श्रीनिवास - ’ रणधीर प्रेम मोहिनी ’ और ’ संयोगिता स्वयंवर ’ के रचयिता से मिलने गया - वे थोड़े अस्वस्थ हैं और यहां जलवायु बदलने आए है। वे बड़ी-बड़ी मूछों, असमान दांतों, मझौली काठी के लगभग तीस या पैंतीस बरस के लेकिन नारायणदास से निस्संदेह छोटी वय के व्यक्ति हैं, वे संस्कृत और हिंदी काव्य के अच्छे ज्ञाता हैं- यद्यपि वे असफल लेखक हैं तो भी उन्हें इतिहास और नाटक प्रिय हैं ’’।
अपनी इस डायरी में ठाकुर जगमोहन सिंह ने लाला श्रीनिवास दास द्वारा लिखित ’ रणधीर प्रेम मोहिनी ’ तथा ’ संयोगिता स्वयंवर ’ जैसे नाटकों का उल्लेख किया है पर ’ परीक्षा गुरू ’ का कोई उल्लेख उन्होंने नहीं किया है। ठाकुर जगमोहन सिंह ने उनके लिए असफल लेखक जैसे शब्द का प्रयोग भी अपनी डायरी में किया है। तब तक संभवतः लाला श्रीनिवास दास के उपन्यास ‘ परीक्षा गुरू ‘ को कतिपय विद्वानों द्वारा सफल उपन्यास नहीं माना गया था।
’श्यामा स्वप्न ’ के सम्बंध में यह उल्लेखनीय है कि भारतीय नवजागरण का जो प्रभाव भारतेंदु हरिश्चंद्र के गद्य और पद्य में परिलक्षित होता है उसी तरह का भावबोध ठाकुर जगमोहन सिंह के इस उपन्यास में भी प्रमुखता के साथ विद्यमान है।
प्रथम याम का स्वप्न का एक दृष्टांत इसका साक्ष्य है: ’’ पहले जुगों के राजों, लोगों और न्याय कारियों के दृष्टि में अपने से ऊंची जाति का आकांक्षी और विशेष कर ब्राह्यणियों पर नेत्र लगाने वाला पापी और हत्यारा गिना जाता था - वह कैसा ही सत्पुरूष और ऊंचे कुल का न हो ब्राह्यण की कन्या से विवाह करना घोर नरक में पड़ना या अग्नि के मुख में जलना था। मनु के समय में ब्राह्यणों की कैसी उन्नति और अनाथ शूद्रों की कैसी दुर्दशा थी ’’।
सन् 1885 में भारत में शुद्रों की दयनीय स्थिति को लेकर चिंता व्यक्त करने वाले ठाकुर जगमोहन सिंह मनुवादियों पर प्रहार करने से भी नहीं चूकते हैं। राजवंश में जन्म लेने के बावजूद ठाकुर जगमोहन सिंह परम्परा और रूढ़िवादी नहीं थे अपितु आधुनिकता के पक्षधर थे। ऊंच-नीच, छुआ-छूत तथा जाति प्रथा के वे प्रबल विरोधी थे।
ठाकुर जगमोहन सिंह का सम्बंध इक्ष्वाकुवंशीय जोगावत कछवाहे घराने से था। आमेर राजपरिवार के वे सदस्य थे। उसके परिवार ने बाद में जयपुर छोड़कर कैमोर पहाड़ की तलहटी में महानदी से दो कोस दूर विजयराघवगढ़ नामक एक नई रियासत का निर्माण कर वहां बस जाना मुनासिब समझा। यह रियासत मध्यप्रदेश के कटनी जिले के समीप है।
ठाकुर जगमोहन सिंह का जन्म विक्रम सम्वत 1914 अर्थात् ईस्वी सन् 1857 के सावन महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को उनका जन्म हुआ था। अंग्रेजी तिथि के अनुसार यह तिथि 4 अगस्त 1857 को होगी।
ठाकुर जगमोहन सिंह के पिता सरजू प्रसाद सिंह ने मात्र सोलह वर्ष की अल्पायु में ही सन् 1857 के गदर में बढ़ चढ़ हिस्सा लिया था। 1857 की बगावत की खबर विजय राघवगढ़ तक पहुंच रही थी। तरुण सरजू प्रसाद सिंह ने अंग्रेजों के पिट्ठू तथा फरमाबरदार मीर साबित अली की हत्या कर दी। बगावत की खबर सुनकर अंग्रेज फौज केप्टन उले और मेजर सुलीव्हान के नेतृत्व में मेजर जानकिन की टुकड़ी के साथ विजय राघवगढ़ पहुंची। सरजू प्रकाश सिंह अंग्रेजों के चंगुल से जोगी का भेष धरकर भाग निकले। बाद में अंग्रेजों द्वारा पकड़े जाने पर उन्हें काला पानी की सजा सुनाई गई। सरजू प्रकाश सिंह ने अंग्रेजों की दासता में काला पानी की सजा भुगतने के स्थान पर आत्म हत्या करना बेहतर समझा। पिता की मृत्यु के समय ठाकुर जगमोहन सिंह मात्र 6 माह के अबोध शिशु थे।
पितृविहिन होने के कारण अंग्रेजों ने विजय राघवगढ़ को अपने अधीन कर लिया। ठाकुर जगमोहन सिंह जब नौ वर्ष के हुए तो अंग्रेज सरकार ने उन्हें वाडर््स इंस्टीट्यूशन क्वीन्स काॅॅलेज बनारस में 19 मार्च सन् 1866 को भरती करा दिया।
11 दिसम्बर सन् 1876 में बनारस काॅलेज के सुपरिन्टेन्डेन्ट केदार नाथ पालथी ने अपने प्रमाण पत्र में लिखा:
Wards Institution, Benaras
Certified that Thakur Jagmohan Singh joined the Wards Institution, Benaras on the 19th of March, 1866. He is now the most advanced ward in the Institution and reads in the first class, Anglo-Sanskrit Department of the Benaras College. He has acquired a very fair knowledge of English, Sanskrit and Hindi. He can compose Sanskrit and Hindi verses with fecility and correctness. His conduct to the best of my behalf, is an exceptionable.

सन् 1878 में क्वीन्स काॅलेज बनारस से विधिवत अध्ययन के पश्चात् ठाकुर जगमोहन सिंह वापस विजय राघवगढ़ लौट आए। दो वर्ष पश्चात् ठाकुर जगमोहन सिंह ने राजवंश का सुख भोगने के स्थान पर अपनी आजीविका के लिए सरकारी नौकरी का चुनाव किया। क्वीन्स काॅलेज बनारस से शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् सन् 1880 में उनकी नियुक्ति तहसीलदार के पद पर धमतरी ( वर्तमान में छत्तीसगढ़ का एक जिला ) नामक तहसील में हुई। धमतरी से उनका स्थानांतरण शिवरीनारायण ( वर्तमान में छत्तीसगढ़ के जांजगीर जिले की एक तहसील ) नामक स्थान पर हुआ।
शिवरीनारायण में रहते हुए उन्होंने ’ श्यामा सरोजनी ’, ’ श्यामालता ’, ’ प्रतिमाक्षर दीपिका ’, ’ सज्जनाष्टक ’, ’ प्रलय ’, ’ देवयानी ’ जैसे अनेक उत्कृष्ट काव्य ग्रंथों एवं ’ श्यामा स्वप्न ’ जैसे उपन्यास की रचना की। सन् 1885 में एकस्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर के पद पर पदोन्नत होकर वे रायपुर ( वर्तमान में छत्तीसगढ़ की राजधानी ) आए। यहां आकर उन्होंने ’ श्यामा स्वप्न ’ को पूर्ण कर उसकी भूमिका लिखी। सन् 1885 में उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था सो उन्होंने जलवायु परिवर्तन के उद्देश्य से लाहौर से बैंगलोर तक की यात्राएं करना मुनासिब समझा।
इस यात्रा से भी जब उनके स्वास्थ्य में कोई सुधार परिलक्षित नहीं हुआ तो उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। बाद में अपने मित्र के बुलावे पर वे कूच बिहार स्टेट काउंसिल में मंत्री के पद पर कार्य करने हेतु बिहार चले गए। कूच बिहार के महाराज भूप बहादुर बनारस के क्वीन्स काॅलेज में ठाकुर जगमोहन सिंह के सहपाठी रह चुके थे, सो वे उनकी प्रतिभा और कार्यशैली से भली भांति परिचित थे। किंतु दुर्भाग्य से रोग ने यहां भी ठाकुर जगमोहन सिंह का पीछा नहीं छोड़ा। दो वर्षों पश्चात् ठाकुर जगमोहन सिंह ने वहां से भी त्यागपत्र देकर वापस घर लौट जाना उचित समझा।
अंततः 4 मार्च सन् 1899 में मात्र 42 वर्ष की उम्र में मध्यप्रदेश के सुहागपुर में इस महान साहित्यकार का निधन हो गया। यह बेहद दुर्भाग्यजनक है कि उन्नीसवीं शताब्दी के इस महान साहित्यकार को और उनके सुप्रसिध्द उपन्यास ’ श्यामा स्वप्न ’ को हिंदी साहित्य ने लगभग विस्मृत कर दिया है।


संदर्भ ग्रंथ

1  शुक्ल, आ. रामचंद्र. 2013. हिंदी साहित्य का इतिहास, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी.
2  सिंह, ठाकुर जगमोहन. 1888. श्यामा स्वप्न, प्रथम सं. एजुकेशन सोसायटी प्रेस बायकुला, मूल्य 1रु.
3  सिंह, ठाकुर जगमोहन. 1954. श्यामा स्वप्न, सं.डाॅ. श्री कृष्ण लाल, नागरी प्रचारिणी सभा काशी,
   मूल्य 50रु.
4  साक्षात्कार - 55-56, जून, जुलाई 1984 म.प्र. साहित्य परिषद भोपाल सं. सोमदत्त.
5  सिंह, ठाकुर जगमोहन. 1886. देवयानी, प्रथम सं. भारत जीवन प्रेस बनारस.
6  सिंह, ठाकुर जगमोहन. 1887. श्यामा सरोजनी, प्रथम सं. भारत जीवन प्रेस काशी.
7  ठाकुर जगमोहन सिंह. ग्रंथावली, सं. आ. ललिता प्रसाद शुक्ल, बंगीय हिंदी परिषद कलकत्ता,
   मूल्य 125 रु.