स्मरण देवी प्रसाद त्रिपाठी: एक खाली जगह जो कभी नहीं भरी जाएगी

GLOBALCULTURZ ISSN:2582-6808 Vol.I No.3 September-December2020 

 

Article-ID 2020090018/I  Pages213-220 Language:Hindi: Domain of StudyHumanities & Social Sciences  Sub DomainLiterature-Memoir  Title:स्मरण देवी प्रसाद त्रिपाठीएक खाली जगह जो कभी नहीं भरी जाएगी 

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रमेश अनुपम (प्रो०)

पूर्व प्रोफेसर, रायपुर, छत्तीसगढ़ (भारत)

[E-mail: [1952rameshanupam@gmail.com ][मो. 9425202505/6264768849]

                                                                                                                      

Summary in English

D.P. Tripathi was an intellectual, thinker and a politician of India; respected across the party lines. He was well versed with several languages of India and English. A dreamer to build new India he began publishingThink IndiaandVichar Nyasand proposed vision for sustainable development. With his sharp and rich memory he became a wonderful orator. He also acted as a catalyst to bridge the political gaps between India-Pakistan and initiated several cultural processes between these two societies. Prof. Anupam got many opportunites to meet and discuss with him personally. In this article he has compiled his interactions with DPT and portrayed his wonder personality by citing a few events from the life of Devi Prasad Tripathi.


डी.पी.टी. याने देवी प्रसाद त्रिपाठी एक अदभुत और विलक्षण बुध्दिजीवी। एक ऐसी बेमिसाल शख्सियत जिनका हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू और बांग्ला जैसी भाषाओं पर असाधारण अधिकार था। उनके संभाषण की शैली ऐसी थी जो किसी को भी मोह सकती थी। स्मृति का जैसा अक्षय कोष उनके पास था, वह अन्यत्र दुर्लभ है। यह अद्भुत स्मृति कोष जैसे उन्हें किसी वरदान में मिला था। उनकी मेधा इतनी अपूर्व और विलक्षण थी कि सैकड़ों अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, संस्कृत किताबों के पृष्ठ शब्दशः उन्हें याद रहते थे।

अनेक प्रसंगों का वे तिथिवार उल्लेख कर सकते थे, सैंकड़ों टेलिफोन नम्बर उन्हें मुखाग्र याद थे। अपने मस्तिष्क की डायरी में जैसे सब कुछ संचित कर लेने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। जीवन के आखिरी दिनों में जब उनकी आंखों की रोशनी लगभग नहीं के बराबर रह गई थी। केवल एक ही आंख में थोड़ी सी रोशनी बची थी, वे तब भी किसी किताब को सामान्य लोगों से भी अधिक तेज गति से पढ़ लेने की महारत रखते थे। उन्हें देखकर लगता था जैसे वे इस दुनिया के आदमी ही नहीं हैं जैसे वे किसी अन्य ग्रह से आए हुए कोई फरिश्ता या पैगम्बर हों। 

 पिछले वर्ष नवम्बर 2019 में मैं उनके बसंतकुंज वाले नए निवास 7367 डी-7 में उनसे मिलने गया हुआ था। थोड़ी देर में एक और सज्जन आ गए, उनके हाथों में अंग्रेजी की एक अच्छी खासी पांडुलिपि थी। उस पांडुलिपि के एक दो अध्यायों को डी.पी.टी. ने उनके मुंह से सुना। फिर बाद में उसे अपने हाथों में लेकर उसके कई अध्यायों को हमारे देखते ही देखते पढ़ भी लिया। उन्होंने पढ़कर अनेक बहुमूल्य सुझाव उन्हें दिए। मैं उस दिन उन्हें बस देखता ही रह गया था। मैं उनकी अपूर्व मेधा को देखकर हमेशा की तरह चकित था। कुछ ही दिनों पहले ही डी.पी.टी. अपने इस नए घर में शिफ्ट हुए थे और उनकी तबियत भी उन दिनों कुछ नासाज रहा करती थी। 

डी‐पी‐टी‐ से मेरी पहली रूबरू मुलाकात का वाक्या भी कोई कम रोचक नहीं है। सन् 1986-87 से मैं डी‐पी‐टी‐ का नाम सुनता आ रहा था। जब भी मेरा भोपाल जाना होता तो कभी सुप्रसिध्द रंगकर्मी मित्र अलखनंदन के घर पर, कभी भारत भवन में, या न्यू मार्केट स्थित इंडियन काॅफी हाॅऊस में चर्चा के दरम्यान डी.पी.टी. का नाम अवश्य सुना करता था। डी.पी.टी. के बारे में इतना सब सुनकर और जानकर मेरे मन में भी उनसे मिलने की उत्कट इच्छा जागृत हो चुकी थी। मैं उनसे मिलने के लिए एक तरह से उत्सुक और लालायित रहने लगा था। तब तक अलखनंदन से उनकी अच्छी-खासी मुलाकातें भोपाल में हो चुकी थी। अलखनंदन उनके प्रिय भी थे। अलखनंदन जानते थे कि मैं भी डी.पी.टी. से मिलने के लिए बेहद उत्सुक रहा करता हूं। सच कहा जाए तो कई बार मैं बिना किसी काम के इसलिए भी भोपाल चला जाता था कि शायद संयोगवश डी.पी.टी से मेरी मुलाकात संभव हो जाए। 

भारत भवन भोपाल उन दिनों पूरे देश में साहित्य और संस्कृति का केन्द्र बन चुका था। भारत भवन के बहुत सारे आयोजनों में खास कर रंग मंडल के नाट्य शिविरों में मैं शिरकत करता रहता था। उन दिनों भारत भवन के रंगमंडल के निदेशक ब.व.कारंत तथा सहायक निदेशक अलखनंदन का मैं प्रिय पात्र था। उन्हीं दिनों भारत भवन के सचिव अशोक वाजपेयी भारत भवन में ’ विश्व कविता समारोह ’ का आयोजन करने जा रहे थे। मध्यप्रदेश उच्च शिक्षा विभाग ने पूरे प्रदेश से हिंदी के जिन तीन प्राध्यापकों को इस समारोह में आमंत्रित किया था, उनमें प्रमोद वर्मा, डाॅ. राजेन्द्र मिश्र के साथ मेरा भी नाम था। यह ’ विश्व कविता समारोह ’ 11 जनवरी 1989 से भोपाल में आयोजित हो रहा था, जिसमें विश्व के दो सौ से भी अधिक कवि शिरकत करने वाले थे। 

मैं 10 जनवरी को ही भोपाल पहुंच चुका था। 11 जनवरी 1989 को मैं ’ विश्व कविता समारोह ’ में भारत भवन में उपस्थित था। ’ विश्व कविता समारोह ’ में इलाहाबाद से अंग्रेजी के प्राध्यापक डाॅ. सचिन तिवारी भी आमंत्रित थे। डाॅ. सचिन तिवारी से मेरा पहले से परिचय था। वे यारबाज और बेहद प्यारे इंसान थे। भारत भवन में अचानक उनसे मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगा। ग्यारह-बारह बजे के आस-पास डॉ० सचिन तिवारी ने मुझसे कहा कि चलो कैंटिन से कॉफी पीकर आते हंै। मैं उनके पीछे हो लिया। उनके साथ काले सूट में एक दढ़ियल शख्स भी थे। उनकी हुलिया देखकर मुझे सचिन तिवारी से उनके बारे में कभी कुछ पूछने की इच्छा नहीं हुई। अब यह रोजाना का हिस्सा बन चुका था। 11 से 17 जनवरी तक भारत भवन में ‘विश्व कविता समारोह’ चलता रहा। हम तीनों प्रायः रोज ही भारत भवन के कैंटीन में कॉफी पीने जाते थे। इन सातों दिनों में मैंने नोटिस किया कि वे लगभग रोज एक ही काली सूट पहन कर आते हैं। सचिन तिवारी को लेकर मैं सोचता था कि वे क्यों इस दढ़ियल शख्स को इतना तवज्जों देते रहते हैं। 

‘विश्व कविता समारोह’ समाप्त होने के पश्चात् 18 जनवरी की सुबह सचिन तिवारी इलाहाबाद के लिए निकल गए थे। वे पूरे एक सप्ताह अलखनंदन के घर पर ही रूके हुए थे। सचिन तिवारी ने ही मुझे बताया था कि जनवरी के पहले सप्ताह में अलखनंदन प्रोफेसर्स कालोनी स्थित अपने सरकारी निवास में सीढ़ियों से गिरकर अपनी एक टांग तुड़वा चुके थे इसलिए वह  ‘विश्व कविता समारोह’ में नहीं आ पा रहे थे। अमूमन मैं अलखनंदन के यहां ही ठहरा करता था, पर इस बार मैं अपने भाई साहब के यहां ठहर गया था। इसलिए मेरी मुलाकात अलखनंदन से नहीं हो पा रही थी। कार्यक्रम समाप्त होने के दूसरे दिन 18 जनवरी की शाम मैं अलखनंदन के घर गया। 

अलखनंदन के एक पांव पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था और घर पर वे बैठे हुए थे। अलखनंदन ने मुस्कुराते हुए मुझसे पूछा क्यों डी.पी त्रिपाठी से मुलाकात कैसी रही ? सचिन तिवारी बता रहे थे कि तुम लोग रोज साथ में काॅफी पीने जाते थे। मैंने बेहद आश्चर्य के साथ अलखनंदन से पूछा कि क्या वो काले सूट पहन कर आने वाले दढ़ियल शख्स ही डी.पी त्रिपाठी थे। अलखनंदन ने सिगरेट का कश लेते हुए और मुस्कुराते हुए कहा तो और कौन थे ? मेरी स्थिति ऐसी हो गई थी कि जैसे कुछ क्षणों के लिए मेरा दिमाग शून्य हो गया हो। अलख ने फिर चुटकी लेते हुए कहा कि बेटा तुम तो सबका मूल्यांकन उसके कपड़े और गेटअप से करते हो, इसलिए तुमसे भारी चूक तो होनी ही थी। डी०पी० त्रिपाठी जैसी प्रतिभा को किसी महंगे सूट और दिखावे की जरूरत नहीं है। वे अपनी प्रखर मेधा से जाने और पहचाने जाते हैं। अलखनंदन ने मुझे बताया कि आज सुबह ही डी०पी० त्रिपाठी भी दिल्ली के लिए निकल चुके हैं। 

उन दिनों डी.पी. त्रिपाठी तात्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सलाहकार हुआ करते थे। ‘विश्व कविता समारोह’ के आयोजन में उनकी भी एक प्रमुख भूमिका रही है। पंडित जवाहर लाल नेहरू की 100वीं जयन्ती के अवसर पर ‘भारत भवन’ भोपाल द्वारा यह समारोह आयोजित किया गया था। संभवतः डी०पी० त्रिपाठी ने ही इसके लिए तात्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को सहमत किया होगा और उनसे इसके लिए आर्थिक मदद भी करवाई होगी। डी०पी० त्रिपाठी विशेष विमान से विश्व कवियों को लेकर दिल्ली से भोपाल आए थे और उनके साथ ही वापस लौट गए थे। अर्जुन सिंह उन दिनों मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री हुआ करते थे।

मैं पिछले दो-तीन वर्षों से डी.पी त्रिपाठी से मिलने के लिए बेहद लालायित रहता था और अब उनके साथ सात दिनों तक कॉफी पीने के बाद भी मैं उन्हें पहचान नहीं सका कि यहीं वो शख्स है जिनसे मिलने का ख्वाब मैं महीनों से बुनता रहा था। इसके बाद डी०पी० त्रिपाठी से मेरी मुलाकात सन् 1991 में ही संभव हो पाई वह भी दिल्ली में। इसके बाद तो उनसे मिलने और उन्हें निकट से जानने का सिलसिला ही शुरू हो गया था। मैं जब भी दिल्ली जाता उनसे जरूर मिलता था। उनके साथ ही मैंने पहली बार ‘इंडिया इंटरनेशनल सेंटर’ का दर्शन किया। दोपहर में अक्सर वे मुझे ‘इंडिया इंटरनेशनल सेंटर’ की सैर कराते थे और रसरंजन का कार्यक्रम तो हमेशा उसमें शामिल रहता था। उनके साथ ही त्रिवेणी सेंटर, कांस्टीट्यूशनल क्लब, 10 विश्वभंर दास मार्ग जैसी जगहों पर आना जाना होता था। वे जब भी रायपुर ( छत्तीसगढ़ ) आते तो मुझे अपने साथ रखना नहीं भूलते थे। रायपुर में वे अक्सर रसरंजन और रात का खाना मेरे घर पर ही किया करते थे। 

एक बार वे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी जिसके वे बाद मंे महासचिव हो गए थे, की बैठक के सिलसिले में रायपुर आए हुए थे। शाम को हमेशा की तरह उनका फोन आ गया कि वे रात में मेरे घर आ रहे हैं। घर आने पर रसरंजन के दरम्यान फिराक गोरखपुरी का जिक्र उन्होंने छेड़ दिया। मैंने उन्हें बताया कि फिराक गोरखपुरी के नवासा विश्वरंजन इन दिनों छत्तीसगढ़ में पुलिस महानिदेशक के पद पर पदस्थ हैं। यह सुनते ही उन्होंने मुझसे कहा कि अरे उन्हें तुरंत फोन लगाओ और मेरी बात करवाओ। मैंने आनन-फानन में बिना देर किए विश्वरंजन को फोन लगा लिया और डी.पी.टी. से उनकी बात  करवा दी। दूसरे दिन सुबह 10बजे विश्वरंजन से मिलने का समय भी तय हो गया। 

हम दोनों दूसरे दिन नियत समय पर विश्वरंजन के शासकीय आवास पर पहुंच गए थे। यह विश्वरंजन और डी.पी.टी. की पहली रूबरू मुलाकात थी। विश्वरंजन ने डी.पी.टी. को बताया कि जब वे पटना विश्वविद्यालय से बी.एस.सी. कर रहे थे। तब विश्वविद्यालय में अक्सर छात्र-छात्राओं के बीच डी.पी.टी. को लेकर एक चर्चा आम हुआ करती थी कि वे सही मायने में हमारे समय के ‘जीनियस’ हैं। इस तरह विश्वरंजन उन्हें छात्र जीवन से ही जानते थे पर भले ही मुलाकात अब जाकर रायपुर में संभव हो रही हो। 

विश्वरंजन ने यह भी बताया कि जब वे दिल्ली में रॉ में हुआ करते थे, तब कुछ एक ऐसी घटनाएं घटित हुई जिससे वे डी.पी.टी. जैसी महान शख्सियत को और निकट से जान पाएं। विश्वरंजन ने बताया कि जब किसी विदेशी राजनयिक को भारत में शरण देना होता था तब भारत का प्रधानमंत्री कोई भी हो लेकिन अर्धरात्रि में उस विदेशी राजनयिक को लेने जाने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी डी.पी.टी. की ही होती थी। विश्वरंजन की बातों से मैं भी उस दिन एक अलग डी.पी.टी. को जान पाया, जो दलगत राजनीति से परे थे। हर राजनीतिक दल के लोग उनसे विचार विमर्श करते थे और उन पर अटूट विश्वास करते थे। 

उस दिन एक और दिलचस्प वाकया घटित हुई जिसने मुझे और विश्वरंजन को चमत्कृत कर दिया था। विश्वरंजन बता रहे थे कि कुछ दिनों पहले ही दिल्ली में देश के गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने नक्सल प्रभावित राज्यों के पुलिस महानिदेशकों की एक बैठक बुलवाई थी। उसी बैठक में गृहमंत्री ने कहा कि उन्हें कोबाट गांधी द्वारा नक्सलियों के लिए लिखी गई मार्ग दर्शिका जो एक किताब की रूप में है, जिसमें नक्सलवादियों की भावी रणनीति है, उस किताब की उन्हें तथा गृह मंत्रायल को जरूरत है। गृह मंत्री चिदंबरम ने उस दिन यह भी कहा कि आप लोगों में किसी को भी यह किताब मिल जाए तो मुझे तत्काल इसकी सूचना दें।

दिल्ली की उस बैठक के कुछ ही दिनों बाद विश्वरंजन को वह किताब न जाने कहां से हाथ लग गई। उन्होंने बिना देर किए दिल्ली जाकर वह किताब गृहमंत्री पी.चिदंबरम को सौंप दी। गृहमंत्री पी. चिदंबरम विश्वरंजन के इस कार्य से बेहद खुश हुए और उन्होंने उन्हें इसके लिए शाबासी भी दी। यह बताकर विश्वरंजन उस किताब को दिखाने के लिए अपनी टेबिल की दराज को खोला ही था कि डी.पी.टी. ने कहा कि देखो उस किताब का नाम यह है और पृष्ठ क्रमांक इतने में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज का जिक्र है। उस समय विश्वरंजन की स्थिति देखते ही बन रही थी। वे आश्चर्य से कभी मुझे तो कभी डी.पी.टी. को देखे जा रहे थे। डी.पी.टी. ने मुस्कुराते हुए कहा कि यह किताब उन्हें बहुत पहले ही उपलब्ध हो गई थी। तो ऐसे थे विश्वरंजन के जीनियस डी.पी.टी.। बाद में डी.पी.टी. ने मुझे यह भी बताया था कि जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे तब वे विशेष विमान से एक बार अकेले ही बस्तर चले गए थे। इसके बाद उन्होंने बस्तर में सक्रिय नक्सलवादियों के संबंध में एक रिपोर्ट भी उन्हें सौंपी थी। 

यह बहुत कम लोगों को मालुम है कि जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री के पद पर आसीन थे तब वे सोनिया गांधी के साथ 14 जुलाई 1985 को छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के कमारों के गांव कुल्हाड़ीघाट भी आए थे। वहां उन्होंने कमारों के साथ जमीन पर बैठकर दोने के पत्तलों में भोजन भी किया था। इसके पीछे भी डी.पी त्रिपाठी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। कुल्हाड़ीघाट के पीछे की यह कहानी भी बहुत कम लोगों को पता होगी कि छत्तीसगढ़ के सुप्रसिध्द पत्रकार राजनारायण मिश्र की एक रिपोर्ट कुल्हाड़ीघाट को लेकर रायपुर से प्रकाशित समाचार पत्र ‘देशबंधु’ में प्रकाशित हुई थी। जिसे रूरल रिपोर्टिंग के क्षेत्र में ‘स्टेट्समेन’ का प्रथम पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था। ‘स्टेट्समेन’ अखबार ने इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में भी प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया था। 

यह रिपोर्ट डी.पी.टी. की पारखी नजरों से भला कैसे ओझल हो सकती थी। उन्होंने इसे पढ़ा और राजीव गांधी से कहा कि उन्हें सपत्नीक छत्तीसगढ़ के गरियाबंद स्थित कमारों के इस गांव में जाना चाहिए। राजीव गांधी को डी.पी.टी. की यह बात बहुत पसंद आई और उन्होंने कुल्हाड़ीघाट जाने का न केवल मन बनाया बल्कि सोनिया गांधी को भी वहां अपने साथ लेकर गए। इसके बाद तो जैसे कमारों के इस गांव कुल्हाड़ीघाट की तस्वीर और तकदीर ही बदल गई। यह बात शायद मैं भी नहीं जान पाता लेकिन उन्होंने एक दिन अपने रायपुर प्रवास के दौरान स्वयं मुझे और मेरे अभिन्न राजनारायण मिश्र को बताया था। राजनारायण मिश्र और मैं दोनों ही उनकी बातों से उस दिन चकित थे। 

यहां एक और प्रसंग भी बेहद रोचक एवं उल्लेखनीय है। डी.पी.टी. ने एक बार मुझे बताया था कि जब भी प्रधानमंत्री राजीव गांधी विदेश यात्रा पर जाते थे, तो अपने विशेष विमान में उन्हें और माधवराव सिंधिया को जरूर अपने साथ लेकर जाते थे। उस समय माधवराव सिंधिया राजीव गांधी के बेहद करीबी हुआ करते थे। हवाई यात्रा के दरम्यान रात में आठ बज जाने पर स्वयं राजीव गांधी डी.पी.टी और सिंधिया से कहते थे कि अब आप लोगों के कार्यक्रम शुरू करने का वक्त हो चुका है, अब आप लोग जाइये और अपना कार्यक्रम शुरू कीजिए। कार्यक्रम शुरू करने का तात्पर्य मद्यपान करने से था। राजीव गांधी स्वयं मद्यपान नहीं करते थे पर उन्हें मालूम था कि रात में माधवराव सिंधिया और डी.पी.टी. मद्यपाल जरूर करते हैं। यह राजीव गांधी जैसे प्रधानमंत्री का एक बड़प्पन था। 

डी.पी.टी. ने एक दिन अपने रायपुर प्रवास के दौरान पाकिस्तान का जिक्र छिड़ जाने पर मुझे बताया था कि बेनजीर भुट्ठों की जब शादी हुई तब उन्होंने शादी के दो निमंत्रण पत्र भारत भिजवाए थे। एक प्रधानमंत्री राजीव गांधी और दूसरा उनके याने डी.पी.टी. के लिए। बेनजीर भुट्ठों से डी.पी.टी. के संबंध हमेशा मधुर रहें हैं। पाकिस्तान से उनका रिश्ता वैसे भी फैज़ अहमद फैज़ के कारण बेहद मधुर रहा है। यह सर्वविदित है कि सन् 1981 में फैज़ अहमद फैज़ डी.पी.टी. के आमंत्रण पर ही इलाहाबाद आए थे, जहां उनका भव्य स्वागत हुआ था। आज भी लोग इस वाक्या को याद करते हैं और विश्वास नहीं कर पाते हैं कि इतना भव्य समारोह डी.पी.टी. ने इलाहाबाद में कैसे संभव कर दिखाया था।

 फैज़ अहमद फैज़ की बेटियां जब भी भारत आती थी डी.पी.टी के घर पर ही ठहरा करती थी। फैज़ की छोटी बेटी मुनीज़ा से दो बार मेरी मुलाकात उन्हीं के घर हुई थी। पाकिस्तान की सुप्रसिध्द कवयित्री फहमिदा रियाज़ का एक और घर भारत इसलिए भी था क्योंकि यहां देवी प्रसाद त्रिपाठी जैसे एक शख्सियत रहा करते थे जिन्हें भारत और पाकिस्तान की कविता और शेरो शायरी से एक गहरा एवं आत्मीय लगाव था। फहमिदा रियाज जब भी दिल्ली आती उन्हीं के घर पर ही ठहरा करती थी। 

डी.पी.टी. के राजनैतिक विश्लेषण का मैं हमेशा से मुरीद रहा हूं, खासकर चुनावपूर्व विश्लेषण का। इसकी भी एक अलग कहानी है। डी.पी.टी. सन् 2003 में रायपुर आए हुए थे। उन दिनों छत्तीसगढ़ में विधान सभा चुनाव का जोर था, अजीत जोगी छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री थे। कांग्रेस तीन वर्षों तक मुख्यमंत्री अजीत जोगी के नेतृत्व में सफलतापूर्वक छत्तीसगढ़ में सरकार चला चुकी थी। कांग्रेस के असंतुष्ट नेता जिन्हें कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया था वे बागी होकर एन.सी.पी. का दामन थाम चुके थे। विद्याचरण शुक्ल तब छत्तीसगढ़ में एन.सी.पी. की कमान संभाले हुए थे। डी.पी. त्रिपाठी सम्भवतः इसी सिलसिले में रायपुर आए हुए थे। उनके साथ उनके मित्र विनोद मिश्र भी आए हुए थे। 

रायपुर के पिकाडिली होटल में वे रूके हुए थे। रात में उन्होंने मुझे होटल में ही बुला लिया था। वरिष्ठ पत्रकार राजनारायण मिश्र और जितेन्द्र गढ़वी वहां पहले से ही मौजुद थे। चर्चा के दरम्यान डी.पी.टी. ने मुझसे पूछा कि विधानसभा चुनाव में किसे जीत मिलने की संभावना है। मैंने बिना देर किए कह दिया कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पुनः लौट रही है। राजनारायण मिश्र और जितेन्द्र गढ़वी ने भी मेरा समर्थन किया। देर रात तक हम इस विषय में चर्चा करते रहें। उनका निष्कर्स हम लोगों से भिन्न था। उन्होंने कहा कि कल रात में हम इस विषय पर पुनः चर्चा करेंगे। 

दूसरे दिन हम फिर पिकाडिली होटल में मिले। राजनारायण मिश्र, जितेन्द्र गढ़वी, विनोद मिश्र भी साथ थे। उस दिन डी.पी.टी. रायपुर के आस-पास के क्षेत्रों का दौरा करके लौटे थे। उन्होंने मिलते ही कहा कि आप लोगों का विश्लेषण गलत साबित होने जा रहा है। यहां से कांग्रेस बूरी तरह हार रही है। हममें से कोई भी डी.पी.टी. के इस कथन से सहमत नहीं हुआ। देर रात तक विचार विमर्श और एक तरह से वाद विवाद का दौर चलता रहा। कुछ ही दिनों में छत्तीसगढ़ राज्य के विधानसभा चुनाव का परिणाम घोषित हुआ। कांग्रेस बूरी तरह से पराजित हो गई थी जिसकी आशा हममें से किसी को नहीं थी। भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहुमत से सत्ता में काबिज हो गई थी और डाॅ. रमन सिंह को मुख्यमंत्री का ताज पहना दिया गया था। मैंने बिना देर किए दिल्ली फोन लगाया और डी.पी.टी. को बधाई दी, कि उनका अनुमान बिल्कुल सही निकला। ऐसे थे डी.पी.टी.।

साहित्य और संस्कृति को लेकर डी.पी.टी. की चिंता और प्रेम का दायरा बहुत व्यापक था। जब भी उनसे दिल्ली में मिलना हुआ वे निरंजन महावर और विनोद कुमार शुक्ल के बारे में अवश्य पूछते थे। वे निरंजन महावर को दिल्ली बुलाकर लोक कलाओं पर उनका एक व्याख्यान ‘इंडिया इंटरनेशनल सेंटर’ में करवाना चाहते थे। एक बार रायपुर आए तो उन्होंने कहा कि कल सुबह सारा काम छोड़ कर निरंजन महावर और विनोद कुमार शुक्ल से मिलना है। दूसरे दिन तयशुदा कार्यक्रम के अंर्तगत डी.पी.टी. निरंजन महावर और विनोद कुमार शुक्ल के घर मेरे साथ गए और उनसे मुलाकात की। दिल्ली से लेकर पूरे देश और विदेश में साहित्य, संस्कृति और कला में रूचि लेने वाले विद्वान उनके अभिन्न मित्र थे। सुप्रसिध्द फिल्म निदेशक मृणाल सेन, अभिमन्यु अनत, अमिताभ घोष, अशोक वाजपेयी, पुरूषोत्तम अग्रवाल जैसे उनके मित्रों की लम्बी सूची है। दूसरी ओर राजनीति में शरद पवार, प्रफुल्ल पटेल, अहमद पटेल, प्रकाश कारात, सीताराम येचुरी, राजनाथ सिंह जैसे न जाने कितने अनगिनत राजनीतिज्ञों से उनका बेहद करीबी का रिश्ता रहा है। 

डी.पी त्रिपाठी हर मित्र की मदद के लिए हमेशा आतुर रहते थे। उन्होंने न जाने कितने लोगों की चुपचाप मदद की होगी इसका अंदाजा लगा पाना भी बेहद कठिन है। मेरे हर काम में वे हमेशा मददगार बनकर खड़े हो जाते थे। उनकी मदद के कारण ही मैं बहुत सारी मुश्किलों से उबर पाया हूं। सन् 2002 की एक घटना है। मैं भारतेंदु हरिश्चंद्र के समकालीन ठाकुर जगमोहन सिंह पर केन्द्रित एक व्याख्यान माला का आयोजन प्रतिवर्ष रायपुर में किया करता था। सन् 2001 में डॉ. नामवर सिंह इस व्याख्यान माला में रायपुर आ चुके थे। सन् 2002 में मैं राजेन्द्र यादव को ‘धर्म निरपेक्ष भारत की चुनौतियां’ विषय पर व्याख्यान देने के लिए रायपुर बुलाना चाहता था। राजेन्द्र यादव से तब तक मेरा कोई विधिवत परिचय नहीं था। मैंने दिल्ली में डी.पी.टी. के सामने अपनी समस्या रखी। डी.पी.टी. ने तुरंत राजेन्द्र यादव को फोन लगाया और कहा कि आपको व्याख्यान देने के लिए रायपुर जाना है। राजेन्द्र यादव सहमत हो गए। वे आए और उन्होंने अपना व्याख्यान भी दिया। तात्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने उस रात मुख्यमंत्री निवास में राजेन्द्र यादव के सम्मान में रात्रिभोज का आयोजन भी किया। 

यहां एक और प्रसंग भी उल्लेखनीय है। उन्नीसवीं शताब्दीं के महान साहित्यकार ‘ठाकुर जगमोहन सिंह समग्र’ मैं तैयार कर रहा था। इस समग्र से सम्बंधित सारी सामग्री मैंने एकत्र कर ली थी। इसकी अंतिम पांडुलिपि तैयार होने के पश्चात् मैंने दिल्ली जाकर डॉ. नामवर सिंह को इसे दिखाना जरूरी समझा। डॉ. नामवर सिंह ने इस पांडुलपि को देखने के बाद राजकमल प्रकाशन के अशोक महेश्वरी को फोन किया और कहा कि रमेश अनुपम ने ठाकुर जगमोहन सिंह के रचनाओं का समग्र तैयार किया है जिसे राजकमल प्रकाशन को प्रकाशित करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि मैं रमेश अनुपम को तुम्हारे पास भेज रहा हूं। मैं पहले देवी प्रसाद त्रिपाठी के घर गया और मैंने उन्हें बताया कि ठाकुर जगमोहन सिंह समग्र मैं आपको सर्मपित कर रहा हूँ। डी.पी.टी. को यह मालूम था कि इस सम्बंध में मैं डॉ. नामवर सिंह के सम्पर्क में रहा हूं तथा उनसे मेरा बेहद आत्मीय संबंध भी है। इसलिए उन्होंने मुझसे पूछा कि इससे नामवर सिंह को कोई दुख तो नहीं होगा? मैंने कहा नहीं वे ऐसा नहीं सोचेंगे। यह किताब सन् 2014 में राजकमल प्रकाशन से ‘ठाकुर जगमोहन सिंह समग्र’ नाम से प्रकाशित हुई और मैंने इस ग्रंथ को सर्मपित किया आदरणीय भाई श्री देवी प्रसाद त्रिपाठी के लिए। 

यह भी कम ही लोगों को मालूम होगा कि जब डॉ. सचिन तिवारी इलाहाबाद में कैंसर से पीड़ित थे, तब डी.पी त्रिपाठी ने उन्हें दिल्ली लाकर न केवल उनकी इलाज करवायी वरन् उन्हें जीवन के अंतिम समय तक अपने घर पर ही रखा। राज्यसभा सदस्य बनने के बाद फिरोजशाह रोड स्थित उनका निवास 13-डी के एक कमरे में लगभग एक वर्ष तक सचिन तिवारी वहां रहें। वहीं उनकी मृत्यु भी हुई। डी.पी त्रिपाठी जैसे ऐसे कितने लोग होंगे जो अपने मित्रों के लिए यह सब कर पाते होंगे। डी.पी त्रिपाठी शायद एक अलग मिट्टी से बने हुए बेहद संवेदनशील और प्यारे इंसान थे। दोस्तों और परिचितों के लिए वे सब कुछ कर सकते थे।    

डी.पी. त्रिपाठी हमारे समय की आवाज थे, वे हमारी ताकत थे। वे व्यापक विचार विमर्श और प्रतिरोध के केन्द्र बिंदु थे। डी.पी.टी. एक ऐसे बुध्दिजीवी थे जो देश भर के बुध्दिजीवियों के स्वतंत्र विचारों को सदैव मंच प्रदान के लिए उत्सुक रहते थे। ‘थिंक इंडिया’ और ‘विचार न्यास’ के माध्यम से वे हमेशा सार्थक, गंभीर और कमोबेश ऐसे सवालों को उठाने का प्रयत्न करते थे, जिसे हमारे समय में लगभग अनदेखा कर दिया जाता रहा है। मुझे हमेशा आश्चर्य होता था कि लगातार राजनीति में सक्रिय और व्यस्त रहते हुए तथा देश-विदेश में निरंतर चक्कर लगाने के बावजूद भी वे कैसे ‘थिंक इंडिया’ के लिए समय चुरा लेते थे। ‘थिंक इंडिया’ का अंक जब भी आया, तब-तब मैंने पाया कि वे देश और दुनिया के गंभीर सवालों से निरंतर टकराने की कोशिश करते हैं। ‘थिंक इंडिया’ के अवदान पर कभी अलग से विचार किए जाने की जरूरत है। 

अभी पिछले वर्ष ही 8 अप्रैल 2019 को दिल्ली के ‘इंडिया इंटरनेशनल सेंटर’ में डी.पी. त्रिपाठी ने फासिज्म के खिलाफ देश भर के बुध्दिजीवियों और राजनीतिज्ञों को आमंत्रित कर फासिस्ट विरोधी सभा का आयोजन किया था। इस अवसर पर उन्होंने उर्दू साहित्य तथा संस्कृति पर केन्द्रित ‘थिंक इंडिया’ के विशेषांक का लोकार्पण भी करवाया था। इस सभा में देशभर के बुध्दिजीवियों और राजनीतिज्ञों ने फासिज्म के खिलाफ जिस तरह बेखौफ आवाज बुलंद की थी, वह भी अपने आप में किसी इतिहास से कम नहीं है। फासिज्म विरोधी इस सभा में सीताराम येचुरी, गौहर रजा, गणेश देवी, विवान सुंदरम, अशोक वाजपेयी, पुरूषोत्तम अग्रवाल और देश भर से न जाने कितने सारे प्रगतिशील सोच में आस्था रखने वाले बुध्दिजीवी और राजनीतिज्ञ एक साथ उपस्थित थे, इसका मैं चस्मदीद गवाह हूँ। 

आखिरी बार शायद सितम्बर-अक्तूबर में जब मैं डी.पी.टी. से मिलने के लिए 1 केनिंग लेन स्थित एन.सी.पी. पार्टी अॉफिस गया तो उन्होंने मुझे अपनी गाड़ी में बिठा लिया और ड्राइवर से कहा कि दो गिलास निकालो और वोदका पिलाओ। सामने ड्राइवर के साथ उनका भतीजा ब्रिजेश त्रिपाठी बैठा हुआ था। डी.पी.टी. कुछ दिनों पहले ही स्वस्थ होकर अस्पताल से लौटे थे। ब्रिजेश त्रिपाठी ने मना किया कि डॉक्टर ने आपको मना किया हुआ है तो डी.पी.टी. ने कहा कि तुम यहीं पार्टी आॅफिस में रूको हम लोग घूमकर आते हैं। तब ब्रिजेश त्रिपाठी ने गाड़ी से उतरने से मना कर दिया था। ड्राइवर ने तब तक गिलास और बोतल नहीं निकाला था। डी.पी.टी. ने कहा भाई रमेश अनुपम मेरे पुराने दोस्त हैं और छत्तीसगढ़ से आए हैं इसलिए मैं तो उनके साथ पिऊंगा ही। ब्रिजेश त्रिपाठी लगभग रूँआंसू हो गए थे। मेरी स्थिति भी कम देखने लायक नहीं थी। हम सब दिल से चाहते थे कि दादा मैं उन्हें इसी नाम से हमेशा संबोधित करता था मद्यपान न करें और अपने सेहत का ख्याल रखें। 

हम सबको उनकी चिंता थी, डी.पी.टी. हमारे समय की जरूरत थे, लेकिन उस दिन वे अंततः नहीं माने। खुद भी पीये और मुझे भी पिलाकर ही छोड़ा। उस दिन मन में देर तक पश्चाताप होता रहा। लौटकर सोचता रहा कि मुझे उनका साथ नहीं देना चाहिए था और साफ-साफ मना कर देना था। जब-जब उन्होंने पीना बंद किया और सुबह भ्रमण करना शुरू किया उनके चेहरे पर रौनक लौट आती थी और वे पूरी तरह स्वस्थ हो जाते थे। तब लगता था कि यह सिलसिला कभी खत्म न हो, वे इसी तरह हमेशा स्वस्थ रहें। 

मेरे बेटे कबीर ने जब से दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन काॅलेज में बी.ए. ( अंग्रेजी आनर्स ) में प्रवेश लिया तब से लेकर मृत्युपर्यंत तक वे मेरे बेटे के स्थानीय अभिभावक बने रहे। उनसे जब भी मिलना हुआ बेटे के बारे में अवश्य पूछते और उसकी खोज खबर लेना कभी नहीं भूलते थे। एक दो बार मुसीबत के समय जिस तरह से उन्होंने मेरे बेटे की और मेरी मदद की उसे मैं कभी भूला नहीं पाऊंगा। वे हर मुसीबत और तकलीफ की घड़ी में जिस तरह से डटकर मेरे साथ खड़े हो जाते थे, आगे बढ़कर मदद करते थे वह मेरे लिए भी किसी अभिभावक से कम नहीं थे। वे हमेशा मुझसे कहते थे कि यार मैं जब तक जिंदा हूं तुम अपनी चिंता मत किया करो। सब कुछ मुझ पर छोड़ दिया करो। 

आज सोचता हूं तो आंखों से आंसू छलक आते हैं। डी.पी.टी. एक ऐसे सच्चे मित्र, अभिभावक और इन सबसे बढ़कर मेरे लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं थे, जो मेरे जैसे न जाने कितने मित्रों तथा परिचितों के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा सकते थे। ऐसे लोग दुनिया में शायद कम ही होते है। ऐसा करने वाला केवल डी.पी.टी. नाम का शख्सियत ही हो सकता है। 

डी.पी. त्रिपाठी की इतनी सारी स्मृतियां मेरे मन में रची बसी हुई हैं। इतने सारे प्रसंग स्मृति पटल पर अंकित है जिसे शब्दों में बया कर पाना मेरे लिए बेहद कठिन है। कितनी सारी ऐसी योजनाएं भी हैं जो मूत्र्त रूप नहीं ले सकीं, जो फिर कभी के लिए छोड़ दी गई थी। डी.पी.टी. अगर होते तो ये योजनाएं भी कब की पूरी हो जाती। उनकी फितरत और उनकी शख्सियत ही कुछ ऐसी थी। इतना प्यार, इतना स्नेह, इतनी ममता मुझे उनसे मिली है, जिसे इस जीवन में तो क्या अगले कई जनमों तक मैं उससे उऋण नहीं हो पाऊंगा।

अभी मृत्यु के कुछ दिनों पूर्व मैं दिल्ली में उनके बसंत कुंज स्थित निवास पर गया था। डी.पी.टी. उन दिनों गंभीर रूप से अस्वस्थ थे और घर पर ही चिकित्सकों की देख रेख में उनकी चिकित्सा चल रही थी। उनके ज्येष्ठ पुत्र कनिष्क भी सिंगापुर से आए हुए थे। कनिष्क से पहली बार मेरी रूबरू मुलाकात हुई थी। डी.पी.टी. से मिला वे बिस्तर पर थे, रूग्ण और थके हुए से। उन्होंने मुझे देखते ही कहा तुम चिंता मत करो, मैं तीन चार दिनों में ठीक हो जाऊंगा। मैं बस इतना ही कह सका कि दादा हम सब लोग यहीं चाहते है कि आप शीघ्र स्वस्थ हो जाएं। वहां से लौटते वक्त मेरी आंखें नम थीं।

मुझे क्या पता था कि यह मेरी दादा से आखरी मुलाकात थी, जिनके लिए मेरे दिल में बेहद सम्मान भी था और मोहब्बत भी। दिल्ली से रायपुर लौट कर आने के दो दिन बाद मैंने फोन किया तो पता लगा उन्हें फिर से अस्पताल में भर्ती किया गया है। ब्रिजेश त्रिपाठी मुम्बई से आ गए थे और उनकी देख-रेख में लगे हुए थे। हर एक दो दिन की आड़ में मैं कभी ब्रिजेश त्रिपाठी से तो कभी विजय से डी.पी.टी. के स्वास्थ की जानकारी ले लिया करता था। कुछ ही दिनों बाद ही ब्रिजेश त्रिपाठी ने मुझे बताया कि चिकित्सकों ने जवाब दे दिए हंै तथा अस्पताल से उन्हें वापस घर भेज दिया है। ब्रिजेश त्रिपाठी की आवाज उस दिन रूंधी हुई थी। मैं भी यह सब सुनकर डर गया था। पर मन में कहीं न कहीं यह उम्मीद भी थी कि हर बार की तरह वे इस बार भी मृत्यु को चकमा देकर लौट आएंगें। पर 2 जनवरी को दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका। इस बार वे हमें ही चकमा देकर हमसे बहुत दूर चले गए। 

3 जनवरी को उनकी अंत्येष्टी में तथा 6 जनवरी को उनकी स्मृति में आयोजित सभा में जो लोग सम्मिलित रहें हंै उन्हें यह पता है कि उस दिन कांस्टीट्युशनल क्लब जिस तरह से खचाखच भरा हुआ था, वहां तिल रखने की भी जगह नहीं थी। इससे डी.पी.टी. की लोकप्रियता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। राजनीतिज्ञ, वरिष्ठ नौकरशाह, बुध्दिजीवी, साहित्यकार, पत्रकार, कला एवं संगीत से सम्बध्द लोग, दिल्ली का ऐसा कौन नामचीन था जो उस दिन वहां उपस्थित नहीं रहा हो। सबके मन में और आंखों में डी.पी.टी की अनेक स्मृतियां लौ की तरह चमक रही थी। सबको अपना एक दोस्त, एक अभिभावक, हमसफर खो जाने का दुख था। 

पवन वर्मा, प्रकाश कारात, सीताराम येचुरी, सोनल मानसिंह, अशोक वाजपेयी, राजीव प्रताप रूड़ी, के सी त्यागी, अतुल कुमार अन्जान, पुतुल सिंह, रमेश दीक्षित, धर्मवीर सिंह, यू एस अवस्थी, एच डी मुनि, डी राजा, विजु कृष्णन, शरद त्रिपाठी, ओम थानवी, प्रदीप गिरि, अहमद पटेल, पुरूषोत्तम अग्रवाल तथा केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद जैसे नामचीन लोग उस दिन स्मृति सभा में उपस्थित थे। 

6 जनवरी को देवी प्रसाद त्रिपाठी ( दादा ) का जन्मदिन था। जाहिर है अगर वे जीवित होते तो ‘इंडिया इंटरनेशनल सेंटर’ में एक भव्य पार्टी का वे आयोजन करते जिसमें मदिरा भी होती और हमेशा की तरह सामिष और निरामिष भोजन भी। वे जीवन के हर पल को भरपूर जीना जानते थे इसलिए गाहे-बगाहे अपने घर पर या ‘इंडिया इंटरनेशनल सेंटर’ में शानदार पार्टी का आयोजन करना वे कभी नहीं भूलते थे। 

फैज़ अहमद फैज़ दादा के सबसे पसंदीदा शायर थे। आज देवी प्रसाद त्रिपाठी के हम सबको छोड़कर चले जाने के बाद फैज़ अहमद फैज़ की यह दो पंक्तियां बेतरह याद आ रही हैं: 

‘वीरां है मयकदा, खुमों सागर उदास है

तुम क्या गये कि रूठ गए दिन बहार के’