अखाड़ा

Title: अखाड़ा
Article-ID 202004008/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.1 Jan-April 2020 Language::Hindi                                                
Domain of Study: Humanities & Social Sciences
                                                                      Sub-Domain: Literature-Short Story
चित्रा सिंह (डॉ०)
एसोसिएट प्रोफेसर, भीमराव अंबेडकर कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, भारत
[E-mail: dr.chitrasingh2210@gmail.com]   [Mob:+91-981880325]                                                                                                                                            


Summary in English:

Akhada is a wrestling ground, dominated by males, and represents patriarchy in Indian literature and pop-culture. Many a times this word connotates the electoral battle, a continuous phenomenon seen in politics of India. This story is about a girl Sukhiya, who dares to challenge the patriarchy in wrestling ground and in elections, both.  

खून से लथपथ महिला की लावारिस लाश..आसपास लोंगों की भीड़ 
पुलिस पंचनामा कर रही थी । पता चला की वह लाश विधायक की उम्मीदवार सुखियादेवी की है। हंगामा होना ही था। कल होनेवाला चुनाव तो स्थगित हो जाएगा।कोई डी.एम साहब और चुनाव अधिकारी को खबर करो। किसी ने  कहा ।एक आवाज और आई- भाई गाँव के अखाड़े में भी खबर कर दो ।
जाते जाते भी छोरी हंगामा कर गई । जब अखाड़े में आई थी तब भी हंगामा  हुआ था ।

गाँव का अखाड़ा.. अखाड़े में लड़की.. हँगामा होना ही था . पर सुखिया अपने को लड़की मानती ही कब थी . साढ़े पाँच फीट लम्बी, एकहरे बदनवाली लड़की  …उसने कसरत से अपने को पत्थर का बना लिया था . बड़े-बड़े पहलवानों को वह एक ही झटके में पटक देती थी . कहते हैं चालीस कोस तक महादेव सिंह जैसा गुरू पैदा नहीं हुआ . उन्हीं महादेव जी ने उसे दीक्षा दी, कुस्ती के सारे दावपेंच सिखाए . बचपन में वह भूवनेश्वर के साथ अकसर अखाड़े में आया जाया करती थी, तब उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया था . बिन माँ-बाप की गरीब कमजोर छोटी सी छोरी, जो कभी बकरी के पीछे तो कभी गाय के पीछे भागती रहती थी . फटा पुराना फ़्राक लटकाए, मिट्टीसने ,बिखरे बाल और बहती नाक… किसी का ध्यान उस ओर क्यों जाता ? लेकिन अचानक लगा उसने खुद को खींच कर साढ़े पाँच फीट का बना लिया है, लड़कों की तरह छोटे छोटे बाल, साड़ी की धोती की तरह फैटाकस कर पहन लिया ऊपर ब्लाउज की जगह कुरता डाले, गमछी कमर में बांध, बीड़ी का कस लगाती वह अचानक ही गाँववालों के लिए सिरदर्द बन गई थी . गाँव और आसपास के गाँव के लुच्चे, लफंगे और उठाएगिरियों के साथ झुंड में ऐसे चलती थी जैसे फिल्मों के गुंडों का सरदार ‘दादा’ अपने साथियों के साथ चलता हो . ऐंठ कर चलती, पान चबाते इधर- उधर थूकती, ठहाके लगाती… . गाँव के बड़े बूढ़ों का चेहरा तमतमा जाता.. . औरते मन ही मन गाली बुदबुदाती… . भूवनेश्वर के साथ पढ़ते-खेलते कब वह उसके गुट मे शामिल हो गई उसे भी पता नहीं चला . बूढ़े दादा और लक्ष्मी गइया के साथ दो बकरियाँ . छोटी सी झोपड़ी.. लगभग जमीन से तीन फुट ऊँची झोपड़ी में सब साथ रहते थे . वह गैइया की रस्सी खींच-खींच कर खूँटे से बाँधते-बाँधते ही तो बड़ी हुई थी . बछिया के जन्म की खुशी वह आज तक नहीं भूल पायी थी . उसी साल उसके दो महीने पेट भर खाना खाया था . नहीं तो नमक प्याज और बासी भात खा कर गुजारा होता था . दादा मेहनत मजदूरी करके उसे पाल रहे थे . माँ-बाप तो हैजे के महामारी में चल रहे बसे . कुदरत का करिश्मा ही था की सात माह की बच्ची दादा के रूखे हाथों में जिंदा बच गई . लाड़ तो बहुत करता था बुढ़ा उसे ,पर लतियाता भी था . जाने क्यों शुरू से ही उस लड़की के कदम घर पर टिकते ही नहीं थे, दिन भर बाहर चक्कलसबाजी . कभी बकरी के पीछे भागती तो कभी बच्चों की टोली के संग .एक दिन जिद धर लिया कि उसे स्कूल जाना है . बहुत समझाया दादा ने . पढ़-लिख कर क्या करेगी ? घर के काम काज सीख ले . वही काम आवेंगे… पर वह न मानी . हार थक कर गाँव के प्राईमरी स्कूल में उसका दाखिला करवा दिया . एक बकरी बेच कर, कुछ कपड़े, चप्पल, सिलेट, कॉपी पेंसिल, बस्ता खरीद लाए . जिन्हें देख उसके कदम जमीन पर नहीं पड़ रहे थे .
    वह दिन उसके जीवन का सबसे अच्छा दिन था . स्कूल के हेडमास्टर ने जब उसका नाम पूछा तो दादा से पहले वह ही बोल पड़ी, सुखिया’ . दादा ने उसका नाम सुखिया उस दुःख और दर्द भरे दिन को भुलाने के लिए ही रखा था . वे सोचते थे शायद यह नाम इस अनाथ बच्ची के जीवन में सुख भर देगा . नाम का असर था या किस्मत ..सुखिया कभी किसी भी हालात में हार मानकर रोने नहीं बैठ जाती थी . भिड़ जाती थी . लड़ जाती थी . रो कर नहीं गुस्से और जिद से वह जीवन जीती थी . शायद इसलिए बचपन से ही उसकी संगत लड़कों से ज्यादा रही . पड़ोसी गाँव का भुवनेश्वर उसका बाल सखा था उन दोनों की खूब पटती थी . साथ स्कूल जाते, साथ ही आते . भुवनेश्वर पाँच भाईयों में सबसे छोटा था इसलिए घर भर का लाडला था . सुबह जल्दी ही घर से नास्ता खाकर, गमछा में सत्तू बाँध स्कूल के लिए निकाल आता . रास्ते में सुखिया को साथ ले लेता। पानी , बकरी या गाय के दूध के साथ सत्तू मिलाकर दोनों  खा लेते . फिर स्कूल में साथ-साथ हुड़दंग बाजी और मास्टर जी की बेंत भी साथ ही खाते . तीसरे पहर किसी न किसी के खेत से कोई न कोई फल चुरा कर खा ही लेते . कभी अमरूद, कभी खीरा, बतिया.. . कभी कभी टमाटर मूली.. . जो भी मिल जाए . धान और गेहूँ कि कच्ची बालियों को आग में पकाकर खाने का मजा इन्हें ही पता था . फिर गलियों में गुल्ली डंडा, और गुल्ली का खेल जमता . इन दोनों से गाँव के बड़े भी नहीं जीत पाते थे . भुवनेश्वर के भाई अखाड़े में पहलवानी सीखते थे। महादेव उनके गुरू थे . पूरे इलाके में उनका नाम था। भुवनेश्वर शाम को अखाड़े जाया करता था . सुखिया भी साथ जाने लगी थी . खेल खेल में ही उनसे  दांव पेंच सीखना शुरू कर दिया . एक दिन गुरू जी की नजर उस पर पड़ी . वे चौंक गए . लड़की और पहलवानी, वे बहुत नाराज हुए . उसे वहाँ से निकाल जाने को कहा . पर सुखिया कोई आम लड़की तो थी नहीं . उसने ललकार दी गुरू जी मेरी उम्र का कोई भी पट्ठा मुझे कुश्ती में हरा दे तो मैं जन्म भर यहाँ पाँव नहीं धरूँगी . आप कुश्ती करवा कर देखो ।मैं दो पर भी भारी पड़ूँगी . बित्ते भर की छोकरी की अभिमान भरी चुनौती सुन गुरू के कान खड़े हो गए . उन्होंने सचमुच उसकी परीक्षा ले डाली . गुरू जी के साथ सारा अखाड़ा जमा हो गया था . जब अखाड़े में उस पतली दुबली लड़की ने बिजली कि फुर्ति और दांव पेंच के नमूने दिखाए तो सबकी आँखें फटी कि फटी रह गई . गुरू जी ने आगे बढ़कर उसे कलेजे से लगा लिया .
    गाँव कि गलियों में कबड्डी और लंगड़ी खेलती सुखिया को बड़े होने का एहसास लोगों कि नजरों ने दिला दिया था . राशन देते समय जब हरिया काका के हाथ झोली के साथ उसके हाथ पर भी रेंगने लगे और रोड चलते अधेड़ जब उससे टकराने लगे तो उसे लगने लगा की कुछ गड़बड़ है. शरीर को कसे बानियाँ मे छुपाती सुखिया छुपा नहीं पाती थी . पर हाँ जिस दिन उसने धरमेश के बाप को चौराहे पर पटक दिया और छाती पर लाट रख कर चिल्लाई साले बुढ़ापे में जवानी की आग लग आई है तो जाकर अपने पोती से मुँह काला कर . मेरी ही उमर है, साले मेरी तरफ, आँख भी उठाई तो यहीं खाक कर दूँगी. और अपने सारे कुश्ती के दांव उस पर उतार दिए . उसकी सूजी आँखें, टूटे दाँत एयर लहूलुहान हालत को देख सारे गाँव को यह सबक तो मिल गया कि सुखिया सचमुच (छोटी) लड़की नहीं है . जब वह अखाड़े में ताल ठोंकती तो अच्छे अच्छे पहलवानों के छक्के छूट जाते .
    कहते हैं उम्र और जवानी छुपाए नहीं छुपती . फिर लड़की लाख छुपाए अपने को, उसके अंदर की औरत ज्यादा दिन तक नहीं छिप सकती है . उम्र का वह दौर भी आ गया उसके जीवन में . जब पहली बार उसके लाल रक्त में सने अपने नारीत्व को महसूस किया . अनजाने ही दिल में सजने सँवरने के अरमान मचलने लगे . दर्पण में अपने आप को निहारना उसे भाने लगा था . जब पहली बार भुवनेश्वर ने उसे कुछ गहने लाकर दिए तो वह खिल उठी थी . उस दिन उन्हें पहनने के बाद उसकी इच्छा थी कि उसे कोई देखे .उसकी तारीफ करे । धीरे-धीरे कुश्ती छूटने लगी और भुवनेश्वर का सानिध्य भाने लगा . अब उसके घर गहनों की पोटलीयों की कतारें जमा होने लगी . खसरा, भगता, करमा सभी कुछ न कुछ उसे ला कर देते रहते . गलियों मे इन चार पाँच लड़कों के साथ वह रानी बनी घूमती रहती। रात को कोई भी आ जाता .
    एक रात किसी ने दरवाजे पर ज़ोर की लात मारी और खट से चिटकिनी टूट गयी . फट से चार पुलिस वाले घुस आए . संयोग से कमरे में उस दिन कोई न था . वह अकेली सो रही थी . एक ने उसके बक्से को खोला तो दूसरे ने कोठी पर लात मारी . गहनों की पोटली जमीन पर . जब तक वह कुछ समझ पाती, पोटली समेत वह ठाने में थी . थानेदार और हवलदार की निगाहें गहनों पर कम उसपर ज्यादा थी..यह उसने महसूस कर लिया था .
    क्यों री, फूलन देवी बन गयी है क्या ? सारे इलाके के लुटेरों के लूट का माल तेरे घर से मिला है . बता कहाँ है तेरे साथी . उपर से नीचे उसके जिस्म को तौलती पुलिस कि निगाहें उसे महसूस हो रहे थे . उसे सब ने घेर रखा था . निगाहें सांप के जीभ कि तरह लपलपाते उसके पूरे जिस्म को चाट रही थीं . पर वह चुपचाप खड़ी रही . तौलती रही उन सब को .एक ने आगे बढ़ कर उसके बाल को मुट्ठी में भींच कर पीछे को खींचा बोल कुतिया, डकैती में साथ जाती है या सिर्फ बिस्तर में…? साथियों का नाम तो उगल .
    उसने अपने होंठ जैसे सिल रखें हों . इतने दिन तक इन पुलिसवालों की कहानियाँ सुनती आई थी . आज पाला पड़ ही गया . उसे पता था.. ये सारे कुत्ते हैं जिस्म और नोट, यही दो चीजें खाते हैं . बस नस्ल पहचानने की कोशिश कर रही थी . बड़े साहब तो कुर्सी पर बैठे थे . देख इस बार साले ने मुखिया के घर ही धावा बोल दिया है . मुखिया की पहुंच उपर तक है . हमें कुछ तो करना ही होगा . बता दे, वे साले किस बिल में छुपे हैं . तुम्हें छोड़ देंगे . सुखिया जानती थी कि हिस्सा तो पुलिसवाले खा चुके हैं .  अब ऊपर से डंडा पड़ा है तो बिलबिला रहे हैं . दो चार को तो अंदर करना ही पड़ेगा . चूंकि माल उसके पास पकड़ा गया है इसलिए उसके लाख गिड्गिड़ाने पर या नाम बता देने पर भी वे उसे छोड़ेंगे नहीं . फिर अपने साथियों का पता बता कर वह जाएगी कहां ?उन्हीं के दम पर तो गांव में अकेली सीना चौड़ा किए घूमती रही है। किसी की हिम्मत नहीं कि उसे छू ले । जब साल बरस की थी तभी कलुआ ने खेत में पटक दिया था . भुवनेश्वर न होता तो हर दिन किसी न किसी खेत में उसकी……. अरे कच्ची उम्र थी उसे तो यह भी पता था कि औरत और पुरूष के अंग एक दूसरे से कितने भिन्न होते हैं . उसके दादा ने ही एक दिन उसकी मुट्ठी में पकड़ा दिया था और बोला मुट्ठिया इसको . गांव का कोई भी कोना महफूज नहीं था। चारों ओर भूखे भेड़िए जीभ लपलपाते छुपे बैठे थे . कब कौन दबोचे उसे खुद नहीं पता था . तभी तो वह अखाड़े में दांव पेंच सिखती रही थी . उसकी अपनी क्षमता और इन लड़कों के साथ ने ही उसे गाँव में अकेले जीने  की हिम्मत और ताकत दी थी .
    एक जोरदार चांटा पड़ा . फिर कई थप्पड़ लातें . वह बेहोश हो गई पर जबान नहीं खोली उसने . हवालात का पहला अनुभव था . पर दो दिन में ही वह वहाँ के रंग मे रंग गई . या यों कहें कि उनके रंग में हवालात रंग गया . अब पुलिसवाले की कमीज पेंट पहन कर उनकी टेबल पर बैठ जाती . मुंह मे खैनी दबाए उनके साथ, उनके ही डंडे को घुमाती रहती .
    यहीं आकार उसे पता चला कि पेंट कमीज पहना और उसका रखरखाव कितना आसान होता है .थाने के सिपाही और संग-संग थानेदार भी सुखिया के साथ-बैठ गप्पे मारते रहते . सुखिया सुनाती थी उन्हें गांव के बूढ़ों के रंगरेलियों की कहानियाँ . कुस्ती के पैंतरे और डाकुओं के लूट की बहदुरी भरे कारनामे . भौंडे और अश्लील चुटुकुले पर लगाती थी कहकहे . नए आए कैदियों की करती थी रैगिंग . क्यों बे साले, किस गांव का है ? भूतनी के माल निकाल नहीं तो …… .
    थाने से जब वह लौटी तो गांव की गलियों मे गुजरते हुए उसने लोगों की निगाहों में फर्क देखा . अब लोग उससे कट कर चलने लगे थे . औरतें मुँह बनाकर गलियाँ नहीं दे रही थी बल्कि सिर झुकाकर गुजर रही थी . उसे बड़ा ताज्जुब हुआ लगा उसका परमोसन हो गया हो . अब उसने कुरता धोती की जगह पेंट कमीज पहनना शुरू कर दिया था . गाँव के अखाड़ों में जब पहली बार उतरी थी ठीक वैसीही प्रतिक्रिया इस प्रकरण से भी हुआ . पर वह कब दूसरों को देखती थी . अब उसके घर पुलिस वालों का आना जाना भी शुरू हो गया . उसके घर राम राज था . डाकू और पूलिस दोनों उसके यार थे .
    गाँव के झाड़ियों में, खेत के खड़ी फसलों के बीच उसने चाची, भाभी, काकी सब को मुट्ठी भर घास के लिए बिछते देखा था . तब वह छोटी थी . देखा सुगनी काकी कालू चाचा के साथ गुत्थम गुत्थी कर रही है . पूछा तो काकी बोली अभी तू छोटी है बड़ी होगी तो तुझे भी कुस्ती करनी पड़ेगी . किसी से कुछ कहना मत और मुट्ठी भर चावल उसके फ़्राक में बाँध दिया था . आज वही कहानी सुनाकर वह मजे लेती थी . किस खेत में कौन सा सांड किस गाय या बकरी के पीछे पड़ा है उसको सबकी रपट होती थी ।गाहे बगाहे रोड चलते उन्हें छेडने से भी बाज नहीं आती थी . क्यों करमू दोपहरिया में आजकल बड़ा ज़ोर है, पछिया सिर्फ तेरी ही खेत में बहती है आज कल.. कहकर हंस पड़ती थी, करमू खिसियानी हंसी हंसता, उसके हाथ मे चंद रूपये रख भाग निकलता था . अब वह बड़े ठाठ से राशन की दुकान पर बैठ जाती . तब काका आज कल छूटकिया पर बड़ी मेहरबानी हो रही है . बड़ी खुजली मची है क्या ? रूसवाई के डर से उसका चेहरा लाल हो जाता अरी सुखिया बेटी अपने घर जा सारा राशन पानी पहुँच जाएगा . काहे तो टेम खराब करती है . दो डिब्बा बिस्कुट का उसे थमाते हुए वह अपना पिंड छुड़ाता .
       हवाओं के रुख का क्या भरोसा ..कभी तूफान, कभी लू तो कभी शीतल बयार..।जेठ की दुपहरी के दिन चले गए थे । सुखिया के लिए बहार ही बहार थी । अखाड़ा और गांव के साथ अब वह एक चक्कर थाने का भी लगा आती थी।किसी के पकड़े जाने पर थानेदार को कहकर उसे छुड़वा देती।
गांव वालों के छोटे मोटे झगड़ों का फैसला करवा देती थी ।आसपास के गांव
और कस्बों में उसकी चर्चा होने लगी थी । अब मुखिया ,सरपंच के चुनाव में उसकी खोज खबर होने लगी थी ।
साहब यह सुखिया है।सारे पहलवानों और नौजवानों का वोट पॉकेट में लेकर घूमती है । आसपास के आठ दस गांव की औरतें इसका कहा नहीं टालती है। इसतरह उसका परिचय बड़ी शान से करवाता था भुवनेश्वर। मुखिया,सरपंच,एम.एल. या एम.पी. किसी का भी चुनाव हो ,सुखिया जीप में
बैठकर चुनावी दौरे में हिस्सा जरुर लेती थी ।मुफ्त में मुर्गा और दारु के साथ नोट का भी मजा उठाने में वह किसी से पीछे नहीं थी ।
      हवा का रुख एक बार फिर पलटा ।उस वर्ष होनेवाले राज्यसभा चुनाव में वहां के क्षेत्रीय पार्टी के दो उम्मीदवारों के बीच टसन हो गई ।कुछ लोगों ने हाई कमान को सलाह दिया – सर, यहां पार्टी की हालत खराब है । ऐसे
में इन दोनों में से किसी भी एक को टिकट दिया तो पार्टी में दरार पड़ जाएगी । किसी महिला उम्मीदवार को टिकट दे दीजिए झगड़ा खत्म। हाई कमाल को बात जंच गई ।पर तभी का तभी महिला उम्मीदवार कहां से लाएं। बस किस्मत थी , किसी ने सुखिया का नाम सुझा दिया ।बड़ी दबंग महिला है सर ।इलाके के सारे युवा उसकी मुट्ठी में हैं। सबसे बड़ी बात इस पूरे इलाके के गुंडा एलिमेंट उसके साथ हैं। कोई टेन्सन नहीं ।पुलिस और गुंडे वश में हों तो वोट कहां जाएगा ।
     बस उसी दिन सुखिया सुखिया देवी बन गई ।बाल बढ़ा लिया, पेंट सर्ट की जगह खादी की साड़ी ब्लाउज ने ले लिया।
        स्कूल की पढ़ाई काम आ गई . फार्म पर उसने पहला हस्तात्क्षर किया . उसकी पूरी टोली खुशी से झूम उठी .पहलवान गुरू महादेव ने टीका लगाकर विजयश्री का आर्शीवाद दिया . रातों रात, सुखिया की किस्मत बदल गई . अब वह गाड़ी से निकलती ,दस लोग उसे घेरे रहते . देवी, दीदी, मैडम जैसे सम्बोधन को सुन उसकी आत्मा गर्व और आनंद से भींग जाती . अब पर्स नोटों से भरा होता . गाँव वाले सुखिया देवी जिंदाबाद के नारे लगाते .
    जिस घर के दरवाजे पर खड़ी हो जाती भीड़ उमड़ आती . लोग आरती उतारने खाने कि थाल बढ़ाते .
    लोग अपना दुखड़ा सुनाते . उसे लग रहा था कि दुनिया में कितने दुःख हैं .बबुनी, बीस बरस से केस चल रहा है . हमार खेत साहूकार ले लिए जीतकर कुछ करवाना . मेरा बेटा दो बरस से लापता है बिटिया पुलिस से कहा कर पता लगवा देना .
    हमारा आदमी बरस दो बरस से गाँव लौटा नहीं . बहीन क्या तुम पता लगवा दोगी ? घुंघट किए कई महिलाएं फरियादें लेकर उसके पास आने लगीं थीं.
    धीरे-धीरे सुखिया पूरे इलाके में प्रसिद्ध हो गई . वह दबंग थी साथ ही थोड़ी पढ़ाई भी उसने कर रखी थी . स्टेज पर खड़ी होकर जब वह लोगों को संबोधित करती तो लोग मुँह बाए उसे देखते और सुनते रहते . अभी तक उस पिछड़े गाँव में कोई बड़ा नेता नहीं आया था . न ही कोई औरत स्टेज पर खड़ी होकर कभी कुछ भी बोली थी . लोगों ने घर आंगन के काम करती औरतों को देखा था या नौटंकी में नाचती नचनियां को . औरत का यह रूप, उनके लिए एकदम नया था . देवी मईया के बाद इंदिरा गांधी का नाम सुना था और कुछ पोस्टरों पर उनकी तस्वीर  कुछ लोगों ने देख रखी थी . आज अपनी जाति बिरादरी कि छोकरी को पोस्टर पर देख उनकी गर्दन गर्व से तन रही थी . औरतें भी अभिमान से भर उठती थी . सुखिया का नाम अब इज्जत से लिया जाने लगा था . कई नए सपने गाँव कि लड़कियां और औरतों की आखें में तैरने लगे थे . गाँव की गलियों में जोश और उत्साह की लहर हिल्लोरे मार रही थीं . हवा का रुख बता रहा था कि सुखिया की जीत निश्चित है . नीची जाति वालों का कलेजा दो इंच बड़ा हो गया था . ऊँची जाति वाले पहले तो थोड़ा असमंजस में थे, पर औरत के लिए कहीं न कहीं दिल में सॉफ्ट कॉर्नर होता ही है . उनके घर की औरतें भी उत्साहित थी . यहाँ जाति से ज्यादा गाँव-घर महत्व रखता था . यह छोटा-सा गाँव अचानक कितना महत्वपूर्ण हो गया था . रेडियो में जब सुखिया के साथ गाँव का आता तो जातिपाति का भेद भूल सब खुशी से उछल पड़ते . चौपाल में अब रेडियो तेज आवाज में चलाया जाता . जिसके पास रेडियो या ट्रांज़िस्टर था वह चुनावी प्रचार वाला लोकल स्टेशन लगा कर, बैठ जाता . सुखिया गाँव की प्रतिष्ठा बन चुकी थी . आस पास के गाँव वाले भी खुश थे . चलो अपने घर से कोई चुनकर जाएगा .
    हवाओं के उत्साह भरे झोंके से दूर कहीं अंधेरे में कुचक्र और कुचाल की गंदी बिसातें बिछी थीं . गाँव से तीस मील दूर शहर के एक कमरे में दावत चल रही थी . मांस, मछली, मुर्गा और दारू ….. सुखिया के सभी साथी जमकर खा रहे थे और दारू पी रहे थे . उसी पार्टी का एक वरिष्ठ नेता ने उन्हें यह दावत दी थी . आधी रात तक वे खाकर, पीकर मस्त हो चुके थे . अंग्रेजी शराब का दौर फिर भी चल रहा था . तो बड़ा मजा आ रहा है ? नेता जी ने भुनेश्वर के पीठ पर हाथ रखते हुए कहा . गाँव में सुखिया सो रही थी.. इधर शहर में उसके लिए षड्यंत्र रचा जा रहा था . नेता जी ने दाना फेंका तो सुखिया देबी के कार्यकर्ताओं क्या चल रहा है ? क्या देती है सुखिया देवी ? धीरे से हंसा फिर बोला हाँ भाई, लौंडिया है मजा तो देती ही होगी . पर क्या जीतने के बाद जैसी है वैसी ही रहेगी ? शक का पहला कीड़ा डाला उनके मन में .
    सोच लो, लौंडिया की जूती बनोगे .नशे का झोंका और पुरुषत्व की चुनौती . सारे चुप . इस चुप्पी ने नेता जी शह दे दिया . भैया …. जमाना खराब है . अपनी अपनी सोचो . जीतने के बाद बड़े-बड़ों को बदलते देखा है . जीतकर मैडम बन जाएगी तुम्हारी बचपन की साथी . उसको बंगला, गाड़ी और नौकर चाकर मिलेंगे . उससे मिलने के लिए भी एपोइंटमेंट लेना पड़ेगा . उसके कमरों मे मंत्री आया जाया करेंगे . तब क्या गली का मामूली गुंडा उस तक सहजता से जा पाएगा ? उपर और भी मंज़िले हैं . तुम सिर्फ पहली मंजिल तक की सीढ़ी हो । ऊपरवाली मंजिल के लिए कोई और होगा . तब फिर तुम्हारा क्या होगा ? नेता जी धीरे धीरे शराब की बूंद के साथ शब्दों का जहर भी उनके जिस्म में उतारते जा रहे थे . तुम लोगों का हाल गली के कुत्तों सा हो जाएगा . और जानते हो औरतों का झोला उठाने वाले मर्द को क्या कहते हैं ? …अरे तुम तो खुद ही समर्थ हो . अपनी सोचो . अगली बार तुम में से ही किसी को टिकट दिलवा दूंगा … हम भी तो बराबरी वालों को खोजते हैं . संग बैठ कर खाना पीना करेंगे . ऐश करेंगे . सब्जबाग … सपने ….. दारू के साथ खून मे उतरती चली गई .
    बस इस बार चुनाव खारिज करवा दो . अगला चुनाव तुम्हारा होगा .
    गाड़ी में आगे ड्राइवर के साथ धनिया बैठा था . पिछली सीट पर भुवनेश्वर, सुखिया और उसके दो और साथी थे . कार में सन्नाटा था . सुखिया का दिल जाने किस आशंका से धड़क रहा था . आज भुवनेश्वर उसका भुवनेश्वर नहीं लग रहा था . चुपचाप अजनबी सा बैठा था . भुवनेश्वर को बचपन की याद आ रही थी . साथ-साथ खेलना-खाना घूमना …. सत्तू खाना, गुल्ली डंडा खेलना, कुस्ती लड़ना …पीड़ा की एक लहर उसके चेहरे पर उभर आई . उसने एक नजर सुखिया पर डाली . आज शेरनी सुखिया उसे निरीह बकरी सी लग रही थी . तुम तो मेरे सब कुछ हो भुनेसर कानों मे सुखिया के शब्द गूँजते हैं जाने कितनी बार कह चुकी होगी उससे सुखिया . भुनेसर न हो तो सुखिया तो हो ही नहीं सकती . पहली बार जब उसने सुखिया हो हार लाकर दिया तो उसे पहन वह जीवन में पहली बार शर्मा रही थी . शर्माते हुए उसने पूछा था गहने पहन कर मैं सुंदर लगती हूँ न ? प्रेम और शर्म से झुकी सुखिया की पलकें याद आ रही थी उसे . स्पर्श का प्रथम अनुभव.. पुरुषत्व का पहला गौरव … सुखिया के बाहों में गुजारे पल .बैचेन हो जाता है भूवनेश्वर ।बोलता कुछ नहीं पर दर्द और बेचैनी सुखिया की आँखों से छुप नहीं जाता .. सुखिया की आँखों में प्रश्न उभरते हैं . वह आँखें मूँद लेता है ताकि सुखिया कुछ न पूछे . हौले से सुखिया उसके तनाव से भरी मुट्ठी पर हाथ रख देती है .एक शीतल स्पर्श . पर आँखें नहीं खोलता है भूवनेश्वर . गाड़ी धूल उड़ाती तेजी से आगे भागी जा रही थी . उसके साथ ही भूवनेश्वर की धड़कने और स्मृतियों का सैलाब भी भाग रहा था  . याद आता है जख्मी सुखिया का चेहरा . कितना मारा था पुलिसवालों ने . पुलिस के लात जूते खाकर भी सुखिया ने अपनी जबान पर उसका नाम नहीं आने दिया था . कुत्ते की तरह जब पुलिस उसको सूंघती फिर रही थी, तब सुखिया ने ही थानेदार का बिस्तर गर्म कर उसका सारा रिकार्ड फड़वा दिया था। तड़प उठता है भुवनेश्वर . पर क्या जीतने के बाद सुखिया ऐसी ही होगी . क्या वह सुखिया को दूसरों की बाहों में देख पाएगा ? क्या महलों के  दरवाजों के बाहर वह दरबान के साथ उसका इंतजार करेगा . विषदर्श सी उठती है शंकाएं … प्रेम की दीवानगी , अहम और लालच का नाग फन उठाता है .
    धाय धाय धाय तीन ..नहीं ..शायद ..चार गोली चली थी . सुखिया के आँखों में आश्चर्य और प्रश्न के भाव थे . भुवनेश्वर ने गाड़ी से उतरकर सुखिया की लाश पर आंसूभरी एक नजर डाली . फिर गाड़ी में बैठ गया . गाड़ी तेज गति से भागी जा रही थी . पीछे धूल और धूल भरा अंधेरा था .