नवजागरण काल का स्त्री स्वर

Title: नवजागरण काल का स्त्री स्वर

Article-ID 202008015/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.1 Jan-April 2020 Language::Hindi                                                

Domain of Study: Humanities & Social Sciences

                                                                      Sub-DomainLiterature-Criticism

गौरी त्रिपाठी (डॉ0)

एसोसिएट प्रोफेसर,हिन्दी विभाग, गुरु घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय कोनी ,बिलासपुर छत्तीसगढ़ -495001 भारत

[E-mail: tripathigauri07@gmail.com]   [Mob:+91-9452206059]                                                                                                                                            



Summary in English 


The Research Paper entitled NAVJAGRAN KAAL KA STRI SWAR aims to investigate the contributions of renaissance movements in Indian Society. This work gives a brief account of the position of women in early Indian society and the role played by social reformers for socio- economic development of women through various movements. The work highlights the particular efforts of Brahmasamaj, Arya Samaj, Theosophical Society, Ramakrishna Mission and Prarthana Samaj and different renowned Reformer's noble piece of work in bringing up women into the vanguard of Indian society.


 भारत में नवजागरण को हम बड़े परिवर्तन के रूप में देखते हैं ।19वीं सदी की शुरुआत से दस्तक शुरु हो जाती है । वैसे  यह सामाजिक बुनियादी परिवर्तनों के शुरुआती  संदर्भ में लिया जाता है लेकिन एक मुख्य बात जो राष्ट्रीय नव जागरण के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण बन जाती है वह है स्त्री सवाल । स्त्री को मुख्य सामाजिक सवालों के केन्द्र में लाया जाता है ।  सबसे बड़ी बात थी कि इस नवजागरण काल में  स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिए आंदोलनों की शुरुआत हुई |आधुनिक शिक्षा या पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव  के कारण समाज सुधारकों  का ध्यान स्त्रियो की सामाजिक दशा की तरफ जाने लगा ।ऐसा बिल्कुल भी नहीं था कि आधुनिक काल अपने स्त्री के प्रति सारे पूर्वाग्रहों और दुराग्रह को छोड़ चुका था | सामाजिक कुरीतियों का विरोध और स्त्री शिक्षा को लेकर कानून बनना ऊपरी तौर पर नवजागरण आंदोलन का स्त्री मुक्ति का चेहरा तो दिखाता है लेकिन  अगर गहराई से देखें तो थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ स्त्री उसी जगह पर स्थापित थी |फिर भी प्रयास काफी किया गया कि स्त्रियों की स्थितियां सुधरे।

 राजा राममोहन राय ,ईश्वर चंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती ज्योतिबा राव फुले, जीएम मालाबारी , डी. के. कर्वे, गोविंद रानाडे जैसे समाज सुधारक कहे जाने वाले व्यक्तियों ने  स्त्रियों की स्थिति में बड़ा बदलाव लाने की लिए आंदोलन शुरू किया  ।एजेंडे में सती प्रथा, पर्दा प्रथा,बाल विवाह और देवदासी प्रथा का विरोध, विधवा विवाह तथा स्त्री शिक्षा सरोकारों से जुड़े मुद्दे शामिल थे। नवजागरण के सुबह में सदियों से सकुचाती चली आई एक स्त्री ने शुरुआत की। इनका साथ स्त्रियों ने भी देना शुरू किया जिनमें एक महत्वपूर्ण नाम है पंडिता रमाबाई का।सावित्रीबाई फुले ,ताराबाई शिंदे ,काशीबाई कानितकर ,आनंदीबाई जोशी, स्वर्ण कुमारी देवी ,सरला देवी घोषाल जैसे तमाम स्त्रियों स्त्रियों की नई पहचान और आवाज बन करके मुखरित होने लगी।

 यह सारी स्त्रियां एक साथ सत्ता तथा सत्तात्मक बेड़ियों को पहचान चुकी थी और उनके खिलाफ संघर्ष करने के लिए अग्रसर थी । पंडिता रमाबाई स्त्री शिक्षा के आंदोलन से एक लंबे समय तक जुड़ी रहीं  वे कहती थीं प्रत्येक स्त्री को अपनी उन्नति के लिए अधिक से अधिक उद्यम करना चाहिए। अपने ऊपर अधिक से अधिक आत्मनिर्भर होकर के उन्होंने 1889 में शारदा सदन खोला जहां पर वह स्त्रियों को शिक्षित करती थीं और आत्मनिर्भर बनाती थी। इसमें पारंपरिक शिक्षा के साथ ही साथ आत्मनिर्भरता की कक्षाएं भी दी जाती थी जैसे सिलाई बुनाई, बागवानी, खेती और डेयरी उद्योग का भी प्रशिक्षण दिया जाता था।

 ताराबाई शिंदे ने भी धार्मिक किताबों के आधार पर थोप दिये गये  सामाजिक सरोकारों के खिलाफ सवाल खड़ा किया और लिखा कि "शास्त्र कर्ताओं की तिरछी नजर केवल स्त्रियों पर ही क्यों धर्म तो सबके लिए समान है जो नारी के लिए वहीं पुरुष के लिए क्यों नहीं होता? परंतु ऐसा नहीं है। यदि शास्त्र कर्ताओं ने स्त्री पुरुष दोनों के लिए समान नियम रखे होते तो प्रथम पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष दूसरा विवाह न कर सकता ..तुम्हें जिस प्रकार गंवार, कुरूप पत्नी पसंद नहीं ,उसी प्रकार पत्नी भी गंवार ,कुलहीन पति  कैसे पसंद करेगी?पत्नी की  भी कुछ अपेक्षाएं तो होती ही हैं ।"(1)


 स्त्री पुरुष की तुलना का परंपरागत ढांचा ध्वस्त होने के बाद ही स्त्री और पुरुष समानता की बात की जा सकेगी ।भारत में नवजागरण अपने पांव पसारने लगा था धीरे-धीरे इसी समय हिंदी नवजागरण के अग्रणी भारतेंदु हरिश्चंद्र भी बंगाल के नवजागरण से काफी प्रभावित होते हैं और उत्तर भारत में स्त्रियों की दशा में काफी तब्दीली करना चाहते हैं ।चूँकि  वह साहित्यकार थे इसलिए खास स्त्रियों के लिए 'बाला बोधिनी पत्रिका' प्रकाशित करते हैं ।'कवि वचन सुधा'भी निकालते हैं ,उन्हें स्त्री शिक्षा  जरूरी तो लगती थी  लेकिन इसके ढांचे को लेकर वे साफ नहीं थे। स्त्री को घर से जुड़े रहना  अनिवार्य मानते थे। उनका मानना था " लड़कियों को भी पढ़ाइए किंतु उस चाल से नहीं जैसे आजकल पढ़ाई जाती है,  जिससे उपकार के बदले बुराई होती है। ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुल धर्म सीखें। पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा दें"(2)

 जाहिर सी बात है भारतेंदु के इस भाषण में स्त्रियों के लिए घरेलू शिक्षा का समर्थन है ।यह मान लिया जाता है कि ज्यादा पढ़ने लिखने से स्त्रियां घरेलू नहीं रह जातीं । वे स्त्रियों की सामाजिक भागीदारी तथा घरेलू जिम्मेदारियों को  एक साथ रख के  देखते हैं परिणाम स्वरूप स्त्रियां  अपने घरेलू जीवन का ही ज्यादा विस्तार कर पाती हैं  सामाजिक जीवन से वह दूर होती चली जाती हैं । भारतेंदु हरिश्चंद्र की चिंता थी कि कहीं स्त्रियां पढ लिखकर बहुत आधुनिक ना हो जाए जिसका असर घर गृहस्थी पर  दिखाई पड़ेगा ।वे विचार करते थे कि लड़कियों की शिक्षा बहुत धार्मिक चरित्र की होती है और इसका पश्चिमी ज्ञानोदय से कुछ भी लेना देना नहीं होता। अभी नैतिकता के सिद्धांतों से संबंधित धार्मिक पाठ  और घरेलू कामकाज ही सिखाए जाते हैं ।मुसलमान अपनी लड़कियों को कुरान के पाठ पढ़ाते हैं  इन सब बातों का उल्लेख सामाजिक क्रांति के दस्तावेज में मिलता है।

    स्त्रियां  आधुनिक शिक्षा जरूर ग्रहण करें   लेकिन उनका उपयोग  घरेलू कार्यों तक ही सीमित कर दिया जाए ।शिक्षा वह हो  जो स्त्रियों को जमीन से जोड़े रखें ।

 भारतेंदु युगीन रचनाकारों में बालकृष्ण भट्ट  कहीं ज्यादा प्रगतिशील नजर आते हैं  पहली बार पितृ सत्ता  का उल्लेख करते हैं और कहते हैं कि हमें दरअसल पितृसत्तात्मक सोच बदलने की जरूरत है।  क्योंकि उन्हें लगता है कि स्त्रियों को  गुलाम माना जाता है  और  उनका प्रमुख उद्देश्य पुरुषों को खुश रखना बताया जाता है।  बालकृष्ण भट्ट जी ने पाखंड और धार्मिक कट्टरता को स्त्री की आजादी का सबसे बड़ा खतरा बताया है । 1891 के हिंदी प्रदीप में उन्होंने एक लेख लिखा था "महिला स्वातंत्रय" ।उसमें लिखते हैं -"यकीन मानिए  हमारी सीधी-सादी ललना समाज में शिक्षा का असर पैदा हो गया  जैसा बंगाल में हो चला है,फिर ये मंदिर और देवस्थान हिंदुस्तान में एक पुरानी बात हो जाएंगे ।"  (3)

स्त्री चेतना के विकास की बात ही बड़ी बात है । बालकृष्ण भट्ट  स्त्रियों को  खुद यह सामर्थ्य देना चाहते हैं जिससे वे अपनी आजादी को खुद तय कर सके ।

पुरुष चिंतकों के अलावा तमाम ऐसी स्त्रियां भी थी जो शिक्षा के समर्थन में खुलकर आ गई और लेख भी लिखती थी ।

हिंदी प्रदीप में 1909 के अंक में सावित्री देवी ने लिखा था "जिस देश में वीरजाया ,वीर , देशभक्त ललनाएं हो चुकी हैं, उसी देश में आजकल ऐसी  मूर्खा स्त्रियां भरी पड़ी है इसका दोष हम पुरुषों को देंगी जो कि हम लोगों को हर तरह निर्बल किए हैं ।"(4)

वे स्त्रियों को किसी अनुकरण पर चलने को नहीं कहती हैं बल्कि स्त्री अपनी स्वाभाविक विशेषताओं को लेकर के भी आगे बढ़ सकती है। अपने अपने तरीके से उस समय सभी स्त्रियों को मुक्ति के रास्ते पर लाना चाहती थे ।

 "बहिनों !आओ हम सब मिल अविद्या के अंधकार को विद्या रूपी दीपक से दूर करें और सुशिक्षिता बनकर पूर्ववत अहल्या, सीता ,गार्गी ,द्रोपदी, तारा, महारानी लक्ष्मीबाई आदि का अनुकरण कर एक बार इस गिरे भारत को फिर उठाने का यत्न करें ।"(5)

 यह बात सौ फीसदी सच है कि जब हम स्त्रियों की आजादी की, स्वतंत्रता की बात करते हैं तो अतीत की तरफ अपने कामयाबी और स्वतंत्रता से चकित कर देने वाली स्त्रियों को याद करते हैं ।हिंदी साहित्य के आरंभिक उपन्यास और कहानियों का भी एक मुख्य विषय हुआ करता था ।

1870 में लिखी गई  कहानी " देवरानी जिठानी" में पंडित गौरीदत्त व्यास ने स्त्री शिक्षा पर बल दिया है उन्होंने अपनी कहानी में बार-बार बताने की कोशिश की है कि कैसे शिक्षित  स्त्री एक साथ रिश्ते, घर और  समाज को सदैव आगे की तरफ ले जाती  है ।1887 में श्रद्धा राम फिल्लौरी का उपन्यास "भाग्यवती" स्त्री शिक्षा का सीधे-सीधे समर्थन करता है । वे शिक्षा को हर हाल में जरूरी मानते हैं लेकिन इन दोनों ही कहानी और उपन्यासों में  स्त्री शिक्षा के साथ-साथ पारंपरिक शिक्षा का ध्यान ज्यादा रखा गया है। औरत पढ़े तो लेकिन परिवार को साथ ले कर के चले। त्याग के घोड़े पर हमेशा चढ़ी रहे ,संस्कारों का त्याग ना करें ,संस्कृति की बराबर उसे चिंता रहे।  ये दोनों बातें  अंतर्विरोध पैदा करती हैं क्या कीजिएगा ?हमारा भारतीय समाज दर्शन कई-कई आंतरिक विसंगतियों से भरा होता है जिसमें थोड़ी धार्मिकता ,थोड़ी सामाजिकता ,थोड़ी पितृसत्ता अलग-अलग अपना काम करती रहती है ।

स्त्री पढ़ लिखकर कुछ भी हो लेकिन उसका होना उसका अपना होना नहीं बल्कि परिवार के लिए होना  ज्यादा जरूरी है ।उसकी सार्थकता परिवार के लिए जीने मरने में है। स्त्री  शिक्षा पढ़ने तक सीमित रहे, वह अपने आप निर्णय ले सके  आगे बढ़ सके ,सत्ता की जड़ों पर प्रहार करने लगे ऐसी शिक्षा नहीं चाहिए थी।

 यह वह दौर था जब स्त्रियां सामंती समाज में जकड़ी हुई थी लेकिन लिखती थीं ,लिखने के बाद भी उन्हें इतना साहस नहीं होता था कि  अपना नाम दे सकें ।" सीमंतनी उपदेश" जैसी स्त्री विमर्श की महत्वपूर्ण किताब इसी समय लिख तो दी जाती लेकिन लेखिका अपना नाम देने का साहस नहीं जुटा पाती है  हम उसे अज्ञात हिंदू महिला के नाम से जानते हैं ।पितृसत्ता और सामंतवादिता का आलम यह था कि अपना नाम नहीं दे सकती थी लेकिन अपनी बात कहने का साहस भी नहीं छोड़ सकती थी ।

स्त्री को अपने भावनाओं को व्यक्त करने की पूरी आजादी तो कहीं नहीं है। समाज में चला आ रहा पुरुष वर्चस्व महज स्त्री शिक्षा से नहीं तोड़ा जा सकता है, उसके लिए  चली आ रही परंपराओं ,रूढ़ियों में आंतरिक तब्दीली करनी पड़ती है जो  बिल्कुल भी आसान नहीं था । स्त्री आजादी चाहती थी आज भी वह आजादी चाहती है। जिस पुरुष के लिए आजादी का कोई मतलब नहीं होता जिंदगी भर औरत उसी के लिए संघर्ष करती रहती है ।

महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती पत्रिका में एक निबंध लिखा था उसका एक अंश उदाहरण के लिए प्रस्तुत है जिससे हम समझ सकते हैं कि आजादी का क्या रंग था -"सुनिए जनाब, मेरे और आपके अधिकार बराबर हैं ।मैं भी स्वाधीन, आप भी स्वाधीन। एक दिन मैं चूल्हा चौका करूं, एक दिन आप। एक दिन मैं आपकी सेवा करूं एक दिन आप मेरी सेवा करें। अथवा यदि वह यह कह बैठे कि मुझे संतान उत्पन्न करने से इनकार है तो बताइए ऐसी स्वाधीनता का क्या नतीजा होगा ?(6)

यह डर कमोबेश पूरे समाज के अंदर बैठा हुआ था। महावीर प्रसाद द्विवेदी स्त्री शिक्षा के समर्थकों में से थे| अपने लेखों के माध्यम से बार-बार  स्त्री शिक्षा पर जोर दिया करते थे |अब यह अलग बात है कि स्त्री शिक्षा की उपयोगिता  उन सभी को  डराती भी थी।

 नवजागरण और भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन का दौर अग्रसर हो ही रहा था और इसी बीच आते हैं महात्मा गांधी जिन्हें हम मानते हैं कि वे स्त्री की आजादी और उसकी शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। अपने कार्यक्षेत्र में  महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करते थे, अनुपालन करते थे। महात्मा गांधी ने स्त्रियों को घर से बाहर राजनीतिक माहौल में भी हिस्सेदारी तय करने के लिए कहा और  यही वजह है कि हमें महात्मा गांधी के साथ  स्त्रियां भी दिखाई पड़ती हैं। यह महात्मा गांधी का ही जगाया हुआ आत्मविश्वास था स्त्रियों के अंदर कि स्त्रियों ने अपनी उदासीनता को त्याग करके आगे बढ़ना शुरू कर दिया ।गांधीजी की विचारधारा थी कि भारत तब तक पूरा आजाद नहीं हो सकता है जब तक देश की आधी आबादी यानी स्त्री जाति पीछे रहेगी या पीछे अवस्था में रहेगी। हिंदू मुस्लिम एकता सुधार के साथ-साथ स्त्री सवालों को भी राष्ट्रीय आंदोलन के एजेंडे में शामिल करते हैं ।1921 के यंग इंडिया में लिखते हैं- " आदमी जिन बुराइयों के लिए जिम्मेदार है उनमें सबसे ज्यादा घटिया बीभत्स और पाशविक बुराई उसके द्वारा मानवता के अर्धांग अर्थात स्त्री जाति का दुरुपयोग है । वह अबला नहीं,स्त्री है। स्त्री जाति पुरुष जाति की अपेक्षा अधिक उद्दात है। आज भी स्त्री त्याग, मूक दुख-सहन ,विनम्रता,आस्था और ज्ञान की प्रतिमूर्ति है। स्त्री को चाहिए कि वह खुद को पुरुष के भोग की वस्तु मानना बंद कर दे ।इसका इलाज पुरुष की अपेक्षा खुद स्त्री के हाथों में ज्यादा है ।उसे पुरुष की खातिर जिसमें पति भी शामिल है सजने से इंकार कर देना चाहिए। अपनी मौज मस्ती की गुलामी और पुरुष की गुलामी छोड़ो"(7)

 

गांधी स्त्रियों को राजनीतिक हस्तियों और देशभक्तों के बराबर महत्व देते थे। कहीं-कहीं पर तो स्त्रियों को इन से भी ज्यादा ऊंचा दर्जा हासिल था। यह तो सच है कि नवजागरण के दौर में स्त्री जो बदलती है या राजनैतिक और सामाजिक हिस्सेदारी तय करती है  तो इन सब के पीछे श्रेय महात्मा गांधी को ही जाता है।

इतनी बातों के बावजूद नवजागरण काल का मूल स्वर स्त्रियों के संदर्भ में मुक्ति की बात करने वाला नहीं था सुधारवादी था इसलिए लंबी लंबी बातों और बहसों के बावजूद पितृसत्तात्मक व्यवस्था टूटती नहीं है थोड़ी ढीली जरूर हो जाती है।  बात वहीं रह जाती है स्त्री को बराबरी का दर्जा नहीं मिल पाता है।

भारतीय नवजागरण में स्त्री अपने समाज और संस्कृति के प्रतिनिधि के तौर पर देखी जाती है । उसी के सिर पर सभ्यता और संस्कृति का जिम्मा है इसलिए जब  सुधार लाने के लिए  आंदोलन होते थे, कई -कई बार उन्हें भारतीय संस्कृति के लिए खतरनाक मान लिया जाता था । जैसे सती प्रथा के उन्मूलन के प्रयासों से ज्यादा कोलकाता के हिंदू पुनरुत्थान  वादियों द्वारा  द्वारा उसका विरोध था। एक याचिका में ऐसा कहा गया था -"हम यह बताना चाहते हैं कि उन तथाकथित हिंदुओं के प्रतिनिधियों के विचार और भावनाएं ना केवल त्रुटिपूर्ण और तथ्य से परे हैं बल्कि अगर उनके सुझाव के आधार पर ऐसा कोई प्रस्ताव पास किया गया तो इसे हिंदू धर्म और रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप माना जाएगा आदिकाल से ही हिंदू धर्म की मर्यादाओं के अनुसार हिंदू विधवाएं अपनी खुशी और अपने मृत पति की आत्मा की शांति के लिए खुद को जलाकर जो बलिदान देती थी उसे सही कहा जाता है ।यह मात्र पवित्र कर्तव्य ही नहीं बल्कि अपने धर्म के सिद्धांतों के प्रति उस स्त्री की सद्भावना का द्योतक है ।अतः हमारी विनम्र प्रार्थना है कि सती के मामले में इस प्रकार का हस्तक्षेप न केवल अनुचित है बल्कि असहनीय भी है सती का मामला पूर्णता अंतरात्मा की आवाज पर आधारित है हम नहीं समझते कि इसमें हस्तक्षेप का सरकार का मकसद पूरा हो जाएगा"

यह पढ़ने के बाद कुछ बचा नहीं रह जाता यह जानने के लिए कि सती प्रथा किन परिस्थितियों में और कैसे संस्कृति को बचाने का वाहक बना था जिसकी जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ स्त्री की थी। स्त्रियों की चिंता कहीं भी मूल में नहीं थी वह तो इसलिए चिंतित रहते थे कि  स्त्रियों की दशा थोड़ी सुधरेगी तो उससे देश और राष्ट्र सुधरेगा। स्त्रियों को नर्क से निकालना उनका उद्देश्य नहीं था बल्कि राष्ट्र को आगे बढ़ाना था। अब चाहे मुद्दा बाल विवाह का हो यौन उत्पीड़न का हो या बलात्कार का । स्त्री महत्वपूर्ण मानी जाती थी अपने नारी शक्ति की अवधारणाओं में राष्ट्र माता के रूप में महाकाली के रूप में जो लोगों की रक्षा कर सकें,कष्ट सहने वाली मां के रूप में और ज्यादा से ज्यादा उसका मात्रृ रूप ही स्वीकार्य था | सामान्य स्त्री को तवज्जो नहीं थी। स्त्रियों के लिए जो आंदोलन चलाया जाते थे, उसमें बार-बार मां की भूमिका तय की जाती थी । जाहिर है इन सब बातों पर पितृसत्ता का भयानक दबाव हुआ करता था | यह सहज ही माना जाता था कि स्त्री के जीवन की सार्थकता आदर्श गृहणी बनने में है |उसके जीवन की पूरी तैयारी और भूमिका अपने को घर गृहस्थी में खपा देने की होनी चाहिए इसलिए नवजागरण काल के दौर में स्त्री शिक्षा का जो पैमाना तय हुआ था और उसके जो लक्ष्य बनाए गए थे उससे तो यही पता चलता है कि स्त्री अंततः घर को ही देखें | नवजागरण कालीन और स्वाधीनता आंदोलन में शामिल लगभग सभी विचारक यह स्वीकार करते थे कि स्त्रियों को पुरुषों की तरह शिक्षित ना किया जाए बल्कि कुछ इस प्रकार से किया जाए कि उनकी घरेलू भूमिका ज्यादा सार्थकता के साथ नजर आए । लाला लाजपत राय और लालचंद का नाम हम यहां ले सकते हैं ।वे स्त्रियों के लिए केवल अक्षर ज्ञान महत्वपूर्ण मानते थे।

 लाला लाजपत राय ने एक जगह पर लिखा है" अतीत से लेकर वर्तमान तक मेरी यह दृढ़  मान्यता रही है कि पुरुषों में शिक्षा के प्रसार की सख्त तथा महत्वपूर्ण जरूरत है परंतु स्त्रियों की शिक्षा उन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए  कोई सहयोग दें यह आवश्यक नहीं। लड़कियों की शिक्षा का चरित्र लड़कों की शिक्षा से भिन्न होना चाहिए। हिंदू लड़की को हिंदू लड़कों से भिन्न प्रकृति के कार्य करने होते हैं अतः मैं उस व्यवस्था को प्रोत्साहित नहीं करूंगा जो उन्हें राष्ट्रीय उनके राष्ट्रीय गुणों से वंचित कर दे हम अपनी लड़कियों को ऐसे शिक्षा नहीं देंगे जो उनकी सोच को बदल दे।" लड़कियां बदल जाएं, यह भी स्वीकार कर लिया जाएगा लेकिन उनकी सोच ना बदले ,वह चाहे जितनी तरक्की कर ले  लेकिन एहसास रहे वे पुरुषों से कमतर ही हैं ।"

             इस बहस में राष्ट्रवादी आंदोलन के दौर की स्त्री विचारकों ने भी पारंपरिक शिक्षा को ज्यादा तवज्जो दिया एनी बेसेंट जो कि उस दौर की प्रगतिशील विचारकों में आती थी, भारतीय स्त्रियों के लिए पारंपरिक शिक्षा का ही समर्थन कर रही थी - "स्त्री शिक्षा के राष्ट्रीय अभियान को वास्तविक अर्थों में राष्ट्रीय स्तर का होना चाहिए, इसमें स्त्रियों की भूमिका की प्राचीन हिंदू धारणा का समावेश होना चाहिए ना कि अधकचरे आधुनिक विचारों का जो भारत की शालीनता और अच्छे तौर-तरीकों वाली शिक्षित पत्नियों और माताओं की बुद्धि को भ्रष्ट कर दे|  आज भारत में बच्चों को पढ़ाने वाली शिक्षिकाओं की, पत्तियों को उचित परामर्श देने वाली सहगामी की, बच्चों और बीमारों की तीमारदारी करने वाली सुयोग्य नर्सों की आवश्यकता है ना कि वैसी स्त्री स्नातकों की जो केवल बाहरी कामकाज के लिए उपयोगी हों ।"

 राष्ट्रीय आंदोलनों में स्त्री ने प्रवेश तो प्राप्त कर लिया लेकिन उसकी अपनी पारंपरिक भूमिका वहीं की वहीं बनी रही। राष्ट्रीय आंदोलन में स्त्रियों की मौजूदगी एक प्रतिनिधि के तौर पर होती थी ,वह लंबे समय तक जुलूस में शामिल नहीं हो सकती थी ,धरने पर नहीं बैठ सकती थी और जेल जाने की भी उन्हें अनुमति नहीं थी ।वह घर में बैठकर चरखा काते, अपने बच्चों में राष्ट्रीय चेतना का संचार करें। यह जिम्मेदारी उनके  हिस्से में ज्यादा थी ।कहने का अर्थ यह हुआ कि स्त्रियां राष्ट्रीय  आंदोलनों का हिस्सा तो जरूर थी लेकिन पारंपरिक भूमिकाओं से मुक्ति संभव नहीं थी।

 स्त्रियों चांद पर भले पहुंच जाएं लेकिन पृथ्वी नामक ग्रह पर  घरेलू कामों से उन्हें मुक्ति  नहीं है। स्त्री कुछ भी करे लेकिन वह परिवार और घरेलू कार्यों की उपेक्षा ना कर पाए |अपना अलग कोई अस्तित्व बनाने  के बारे में तो कतई  ही ना सोचे ।तमाम स्त्रीवादी स्त्रियों ने यह स्वीकार किया कि आर्थिक निर्भरता का होना सबसे जरूरी है जो आज के जीवन में शत प्रतिशत सही नहीं है ।औरत का आर्थिक रूप से मजबूत होना ही उनकी मुक्ति का प्रमाण नहीं है।  महज एक खिड़की खुलती है दुनिया को देखने के लिए जबकि पूरा परिदृश्य अभी बाकी है । जब भी हम नवजागरण कालीन आंदोलनों के योगदान और उसमें निहित अंतर्विरोध की बात करें तो हमें बिल्कुल भी नहीं भूलना चाहिए कि वह एक संक्रमण का दौर था ,संक्रांति का काल था |वर्षों से चली आ रही सामंती और पितृसत्ता  के दमन की शुरुआत भर हुई थी |जाहिर सी बात है कि हिंदी पट्टी के लिए तो सबसे कठिन समय था क्योंकि यहां की आबोहवा में सामंती संस्कृति कूट-कूट कर भरी हुई थी | स्त्रियों को लेकर के चला आ रहा यह जो अंतर्विरोध है यह पूरे युग पर हावी था |किसी एक घर या व्यक्ति की बात नहीं थी। जितने भी विचारक नवजागरण काल में थे,वह एक अलग ढंग से आधुनिक  भारतीय स्त्री को रखना चाहते थे ।वह चाहते थे स्त्रियां मुक्त हों, आधुनिक बनें लेकिन उसकी बुनावट उन्हें पश्चिमी स्त्रियों से अलग चाहिए थी । अंतर्विरोध भी यहीं से शुरू हो जाते हैं फिर भी हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि भारतीय नवजागरण ने स्त्रियों के जीवन में कुछ आधारभूत परिवर्तनों की मशाल तो जला ही दी थी ।एक आधार तो दे ही दिया था जिस पर आज की स्त्रियां बाकायदा चल रही हैं। आज की स्त्री बदल चुकी है ,वह नवजागरण काल की स्त्री नहीं है। वह अपने को सिर्फ घर और परिवार में ही खपाती नहीं है बल्कि अपने अधिकारों के लिए भी लड़ती है ।उस दौर में स्त्रियों ने अपने संघर्ष को देश के संघर्ष में ,देश की स्वतंत्रता के संघर्ष में ,मिला दिया था ।वह  दो स्तरों पर  लड़ाई लड़ रही थीं- अपनी मुक्ति के लिए और देश की मुक्ति के लिए |लेकिन अंदर ही अंदर उनकी यह मुक्ति उनके खुद के जीवन के लिए थी ।  हमारे देश की स्त्री बहुत समृद्ध हुई है लेकिन कुछ सवाल जस के तस हैं जिन पर लगातार वाद-विवाद और संवाद करके हम आगे बढ़ रहे हैं।


 संदर्भ ग्रंथ 

1-  शिंदे,ताराबाई, स्त्री पुरुष तुलना संवाद प्रकाशन 2002

2-भारतेंदु हरिश्चंद्र ,बाला बोधिनी  भारतेंदु समग्र हिंदी प्रचारक पब्लिकेशन वाराणसी

3-भट्ट, बालकृष्ण, हिंदी प्रदीप ,प्रयाग

4- भट्ट, बालकृष्ण, हिंदी प्रदीप, प्रयाग

5-भट्ट, बालकृष्ण, हिंदी प्रदीप, प्रयाग

6- द्विवेदी,महावीर प्रसाद,संपादक,सरस्वती ,जुलाई 1913, इंडियन प्रेस प्रयाग

7-  गांधी,महात्मा,यंग इंडिया , विकिंग प्रेस 1922