Title: जापान–भारत संबंध: अतीत, वर्तमान और भविष्य
Article-ID 202004001/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.1 Jan-April 2020 Language::Hindi
Domain of Study: Humanities & Social Sciences
Sub-Domain: International Relations
डॉक्टर तोमिओ मिज़ोकामि
प्रोफेसर एमेरिटस, ओसाका विश्वविद्यालय, अोसाका, जापान
प्रोफेसर एमेरिटस, ओसाका विश्वविद्यालय, अोसाका, जापान
[E-mail: indictomio@gmail.com]
भूमिका
यह सर्वविदित है कि जापान और भारत का सांस्कृतिक संबंध बौद्ध धर्म के आगमन के साथ शुरू हुआ था छठी शताब्दी में । सब से पहले जो भारतीय जापान में आए थे वे बोधिसेना (703-760) नामक सम्मानित पुरोहित थे [1] । वे सन 752 में नारा शहर में स्थित तोदाईजि मंदिर में स्थापित बौद्ध की विशाल मूर्ति के ‘आँख खोलने के संस्कार’ (open-eye ceremony) अर्थात प्राण–प्रतिष्ठा में उपस्थित होने के लिए चीन की राजधानी चोआन से पधारे थे। उन दिनों उन्हें चीन से समुद्र पारकर छोटी नाव से जापान आने के लिए कितनी खतरों भरी यात्रा करनी पड़ी थी । उस प्रकार यात्रा में तूफान में डूबने का खतरा प्रतिफल रहता था । कहते हैं कि कई लोग समुद्र में डूबकर मर भी गए थे । यह इस बात का प्रमाण है कि जापान में बौद्ध धर्म बहुत निष्ठा से अपनाया गया था और भारत के प्रति जापानी लोगों में बहुत उत्कंठा थी, लेकिन इतिहास के लंबे दौर में यह भावना हमेशा एक नहीं रही। उतार-चढ़ाव और परिवर्तन भी हुए थे। और भारत के प्रति दृष्टिकोण में भी समय समय पर नाना कारणों से अंतर आता गया था । इस तथ्य पर प्रकाश डालना बहुत आवश्यक है ।
2. प्राचीन और मध्यकाल में जापान तथा भारत
भूमिका में बता चुका हूँ कि प्राचीन जापान में जापानियों को गौतम बुद्ध की जन्मभूमि के रूप में भारत का परिचय मिला था । तब जापान में भारत को टेञ्जिकू कहते थे । उस युग के आम जापानियों के लिए ‘संसार’ का मतलब केवल जापान, चीन और भारत थे। अभी तक दुल्हन की प्रशंसा करते हुए दुल्हन को जापानी में ‘तीन देशों में सब से अच्छी दुल्हन’ कहा जाता है । यहाँ ‘तीन देशों’ का मतलब ‘सारे जहान’ से है । लेकिन तब तक भारत को किसी ने नहीं देखा था । पश्चिम की दिशा में स्थित भारत देश के बारे में ‘दर्शन का देश’ ,’धर्म का देश’ और ‘आध्यात्मिक देश’ की छवि लोगों के मन में थी । यह पवित्र स्थान, आदर्श देश था और पूज्य था ।
लेकिन मंगोलिया जाति के शासक द्वारा स्थापित गेन साम्राज्य ने सन 1274 में जापान पर आक्रमण किया था, इस घटना के बाद भारत के प्रति यह दृष्टिकोण बदल गया था । गेन ने अपनी 20 हज़ार और अपने आधीन देश कोरिया की 10 हज़ार सैनिकों की सेना जापान के क्यूशू द्वीप के उत्तरी समुद्र तट पर आक्रमण के लिए भेजी थीं । जापान के समुराई शासक (उन दिनों पूर्वी जापान के कामाकुरा में स्थित होने के कारण उसकी सरकार को कामाकुरा बाकुफू कहा जाता था ) ने उसका मुक़ाबला बड़ी मुश्किल से किया था और किसी प्रकार हमलावरों को रोक लिया था , इस युद्ध को बुनएई नो एकि कहते हैं। लेकिन दुबारा आक्रमण होने के डर से जापानी शासक ने सुरक्षा की व्यवस्था पहले से पक्की कर दी थी , और पूर्व अनुमान के अनुसार सात साल के बाद यानि सन 1281 में गेन ने 140,000 सैनिकों की सेना के साथ फिर से क्यूशू पर आक्रमण किया था जिसे कोआन नो एकि कहते हैं । यह भीषण लड़ाई थी लेकिन बीच में जोरदार तूफान आने से मंगोलिया के ज़्यादातर जहाज़ समुद्र में डूब गए थे (अभी भी उनका मलबा समुद्र के तल में पड़ा हुआ मिलता है।) और आक्रमणकारी अपना उद्देश्य त्याग कर भाग गए थे। इस प्रकार तूफान ने जापान को विदेशी आक्रमण से बचा लिया – इस तूफान को जापानी लोग कामिकाजे यानी ‘देव-वायु’ कहने लगे और ऐसा विश्वास जन साधारण में फैलने लगा कि हमारे देश का संकट मोचन यही ‘देव-वायु’ (देवता की हवा ) करेगी । इसके बाद वर्तमान समय तक किसी विदेशी द्वारा जापान पर आक्रमण कभी नहीं हुआ है । यह अलग बात है कि दूसरे विश्वयुद्ध की पराजय के कारण जापान लगभग 6 साल तक अमरीका के शासन के अधीन था , इसलिए जापानी लोग भी भारतीयों की तरह ‘स्वतन्त्रता’ के मूल्य को अच्छी तरह से समझ सके थे ।
लेकिन मंगोलिया जाति के शासक द्वारा स्थापित गेन साम्राज्य ने सन 1274 में जापान पर आक्रमण किया था, इस घटना के बाद भारत के प्रति यह दृष्टिकोण बदल गया था । गेन ने अपनी 20 हज़ार और अपने आधीन देश कोरिया की 10 हज़ार सैनिकों की सेना जापान के क्यूशू द्वीप के उत्तरी समुद्र तट पर आक्रमण के लिए भेजी थीं । जापान के समुराई शासक (उन दिनों पूर्वी जापान के कामाकुरा में स्थित होने के कारण उसकी सरकार को कामाकुरा बाकुफू कहा जाता था ) ने उसका मुक़ाबला बड़ी मुश्किल से किया था और किसी प्रकार हमलावरों को रोक लिया था , इस युद्ध को बुनएई नो एकि कहते हैं। लेकिन दुबारा आक्रमण होने के डर से जापानी शासक ने सुरक्षा की व्यवस्था पहले से पक्की कर दी थी , और पूर्व अनुमान के अनुसार सात साल के बाद यानि सन 1281 में गेन ने 140,000 सैनिकों की सेना के साथ फिर से क्यूशू पर आक्रमण किया था जिसे कोआन नो एकि कहते हैं । यह भीषण लड़ाई थी लेकिन बीच में जोरदार तूफान आने से मंगोलिया के ज़्यादातर जहाज़ समुद्र में डूब गए थे (अभी भी उनका मलबा समुद्र के तल में पड़ा हुआ मिलता है।) और आक्रमणकारी अपना उद्देश्य त्याग कर भाग गए थे। इस प्रकार तूफान ने जापान को विदेशी आक्रमण से बचा लिया – इस तूफान को जापानी लोग कामिकाजे यानी ‘देव-वायु’ कहने लगे और ऐसा विश्वास जन साधारण में फैलने लगा कि हमारे देश का संकट मोचन यही ‘देव-वायु’ (देवता की हवा ) करेगी । इसके बाद वर्तमान समय तक किसी विदेशी द्वारा जापान पर आक्रमण कभी नहीं हुआ है । यह अलग बात है कि दूसरे विश्वयुद्ध की पराजय के कारण जापान लगभग 6 साल तक अमरीका के शासन के अधीन था , इसलिए जापानी लोग भी भारतीयों की तरह ‘स्वतन्त्रता’ के मूल्य को अच्छी तरह से समझ सके थे ।
खैर, ‘देव-वायु’ पर इस प्रकार की आस्था ने गौतम बुद्ध का स्थान ले लिया था । अर्थात गौतम बुद्ध के प्रति श्रद्धा और भारत का आकर्षण धीरे-धीरे क्षीण होता रहा । इसके स्थान पर वायु-देवता अर्थात जापानी देवता में विश्वास बढ़ने लगा था । लेकिन एक बहुत उल्लेखनीय घटना यह भी हुई थी कि सन 1549 में जापान में पुर्तगालियों द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार होने लगा और सन 1582 में तीन ईसाई सामंतों ने चार जापानी तरुणों को रोम के पोप के पास दूत के रूप में भेजा था और रास्ते में सन 1583 में गोवा पहुंचे थे । ये तरुण भारत में आने वाले प्रथम जापानी थे , पर रोम से वापस आने के बाद के उन लड़कों का जीवन सुखी नहीं रह पाया था ।
एदो युग (सन 1603 से सन 1867 तक) में जापान का दूसरे देशों से संपर्क बंद किया गया था । बौद्ध धर्म को पूर्ण रूप से सामंती शासन तंत्र में सम्मिलित किया गया और इसके परिणाम स्वरूप बौद्ध धर्म अपनी उर्जा खो बैठा । कन्फ्यूशियनिज़्म में, जिसकी उत्पत्ति चीन में हुई थी, विश्वास करने वाले विद्वानों के समुदाय ने बौद्ध धर्म को बहिष्कृत भी किया था। युवराज शोतोकू (574-622) जिन्होंने होरियूजी मंदिर को बनवाया था, जैसे बौद्ध धर्मावलम्बी विद्वान की भी निंदा की थी । उसके बाद कोकुगाकू अर्थात राष्ट्रवाद में आस्था रखनेवाले विद्वानों द्वारा स्थापित विद्या की धारा हावी हो गई और उस समुदाय ने बौद्ध धर्म और कन्फ्यूशियनिज़्म जैसी विदेशों से आई विचारधाराओं को पूरी तरह से बहिष्कृत कर दिया था ।
कालांतर में पश्चिमी विद्या का भी आगमन हुआ था, लगभग उन्हीं दिनों में भारत अंग्रेज़ों का उपनिवेश बन गया था । तब जापान भले ही बाहर की दुनिया के लिए अपना दरवाजा बंद कर चुका था, पर अपवाद के रूप में केवल डच व्यापारियों को जापान आकर व्यापार करने की अनुमति दी गई थी । तब जापान के शिक्षितों तथा बुद्धिजीवियों का डच व्यापारियों के द्वारा लाई पुस्तकों व सामानों के माध्यम से पश्चिमी सभ्यता और दुनिया भर के समाचारों से परिचय होता था । कुछ लोगों ने बड़े चाव से डच भाषा सीखी और डच-जापानी शब्द-कोश का भी निर्माण किया , लेकिन तब भी जन-साधारण इससे अनभिज्ञ था कि दुनिया में क्या घटित हो रहा है , अर्थात जन साधारण ‘कूप मंडूक’ था , लेकिन विद्वान और शासक वर्ग के लोग बाहर की दुनिया की खबरें रखते थे, और यह भी अच्छी तरह जानते थे कि अंग्रेजों का दुनिया भर में बोलबाला था, इसलिए उस समय के शासक वर्ग ने अंग्रेजों के प्रति सावधानी बरतनी शुरू की थी ।
3. आधुनिक काल में जापान तथा भारत
वैसे आधुनिक जापान का सूत्रपात नई मेईजी सरकार की स्थापना (सन1868) से माना जाता है, यह महात्मा गांधी (1869-1948) के जन्म के एक साल पहले की बात है [2]। मेईजी सरकार का एजेंडा (नारा) था जापान का आधुनिकीकरण और इसे सैनिक दृष्टि से शक्तिशाली देश बनाना ताकि पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के आक्रमण को रोका जा सके या उसका सामना किया जा सके । वास्तव में जापान रूस युद्ध (1904-1905) में एशिया के छोटे देश जापान की यूरोप के शक्तिशाली देश रूस पर विजय ने सारे विश्व को अचंभित किया था । पंडित जवाहरलाल नेहरू (1889-1964) ने स्वयं अपनी पुस्तक Glimpses of World History में लिखा है कि जापान की विजय ने बालक जवाहरलाल को एशियाई के रूप में कितना साहस और उत्साह दिया था ।
उस समय आधुनिकीकरण का पर्यायवाची शब्द पश्चिमीकरण था । यह सिर्फ पश्चिमी सभ्यता के ज्ञानार्जन तक सीमित नहीं था , बल्कि दैनिक जीवन में खानपान और पहनावे पर भी उसका प्रभाव पड़ने लगा था । स्वभावत: इस प्रकार की नीति व विचारधारा के कारण पश्चिम के विकसित देशों के प्रति आकर्षण होने तथा तथाकथित ‘पिछड़े हुए’ एशियाई देशों व संस्कृतियों को हेय देष्टि से देखने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी । फुकुजावा यूकिची (1834-1901) ने जो पश्चिमी सभ्यता के समर्थन करनेवाले विचारक थे और केइओ विश्वविद्यालय के संस्थापक थे , अपनी एक पुस्तक में यहाँ तक लिखा है कि भारत सभ्य देश कहलाने योग्य नहीं है ।
लेकिन इधर एशिया की परंपरा, सभ्यता और मूल्यों को महत्त्व देने वाले चिंतक या कलाकार भी थे, उनमें सब से प्रख्यात व्यक्ति थे ओकाकुरा तेंशिन (1862-1913)। उन्होंने सन 1902 में यू. के. में प्रकाशित एशिया की विचारधारा नामक प्रसिद्ध पुस्तक में लिखा है कि ‘एशिया एक है’। उनकी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर (1861-1941) से दोस्ती प्रसिद्ध है । इधर भारत में भी राष्ट्रीय आंदोलन शुरू होने लगा तो इसका समर्थन करनेवाले विचारकों में ओओकावा शूमेइ (1886-1957 )प्रमुख थे । उन्होंने अपनी पुस्तक पुनर्जाग्रत हो रहे एशिया की समस्याएँ में जापानी सरकार की निंदा की है , क्योंकि उसने सन 1912 के सिंगापोर के विद्रोह से लेकर भारत के राष्ट्रीय आंदोलनों समेत अनेक आंदोलनों को इसलिए दबाया था कि उन दिनों जापान और इंग्लंड में आपसी गठबंधन था । भारत के एक क्रांतिकारी नेता रासबिहारी बोस (1886-1945) जब ब्रिटिश खुफिया पुलिस से बचकर जापान मेँ हथियार की आपूर्ति के लिए आए थे, तब ब्रिटिश सरकार जापान सरकार से उनके प्रत्यर्पण की मांग कर रही थी, इसलिए उनको जापान मेँ लगभग एक साल तक अपनी पहचान और आवास बदलते रहना पड़ा था । ओकावा शूमेई भारतीय दर्शन व इस्लाम धर्म के विद्वान और दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी एवं पैन-एशियावादी नेता भी थे । उन्होंने रासबिहारी बोस की मदद की थी । द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्ति के बाद उनपर युद्ध अपराधी के तौर पर अभियोग किया गया था , पर पागल होने के संदेह के कारण उन्हें छोड़ दिया गया था ।
मेईजि सरकार की आर्थिक नीति के कारण भारत के कपास का आयात बड़ी मात्रा में होने लगा था । यही कारण था कि जापान वस्त्र-उद्योग के क्षेत्र में तेजी से दुनिया में सब से विकसित देशों में एक बना था । मेईजी युग के उत्तरी काल में जापान के कुल निर्यात में से 10 प्रतिशत भारत के साथ था और कुल आयात में से 15 प्रतिशत भारत के साथ।
जापान के साथ आयात-निर्यात की कुल मात्रा की दृष्टि से जापान के लिए भारत का स्थान इंग्लैंड और अमरीका के बाद तीसरा था । आयात के मालों में 80 प्रतिशत कपास था , निर्यात के मालों में कपास या रेशम से बना वस्त्र 50 प्रतिशत था । भारत के साथ सक्रिय व्यापार के सम्बन्धों के सफल होने का प्रमुख कारण तत्कालीन प्रभावशाली उद्योगपति शिबूसावा एइइची (1840-1931) द्वारा जमशेद जी टाटा (1839-1904) के सहयोग से मुंबई तक के समुद्री मार्ग को खोला जाना था । तब तक इंगलैंड के नियंत्रण के अधीन होने के कारण भारत से माल खरीदना बहुत महंगा होता था । अब जापानी जहाजों को सीधे मुंबई भेजने से खर्चा बहुत कम पड़ने लगा था।
लेकिन जापान अपने साम्राज्य लाभ की खोज में धीरे धीरे एशिया के बाकी देशों से अलग बनने लगा और अंत में सन 1941 में प्रशांत महासागर युद्ध भड़क उठा । अकेले जापान को इंगलैंड के अलावा अमरीका,चीन,फ्रांस आदि प्राय: सभी प्रमुख देशों के विरुद्ध युद्ध करना पड़ा । हालाँकि भारत के राष्ट्रवादी आंदोलनकर्त्ताओं का अंग्रेज़ों से विरोध था , लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि वे जापान के साथ थे । महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू आदि भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस के प्रमुख नेता अहिंसा में विश्वास करते थे । उन्होंने चीन में किए गए जापानी सेना के अत्याचार की निंदा की थी । लेकिन नेता जी सुभाष चन्द्र बोस (1897-1945) अकेले ऐसे नेता थे जो जापान की सैनिक शक्ति की सहायता से यानि बल का प्रयोग करके अंग्रेजों को भारत से भगाने के पक्ष में थे ।
रासबिहारी बोस का निधन , भारत को ब्रिटिश शासन की गुलामी से मुक्ति दिलाने की उनकी जी-तोड़ मेहनत को सुफल होते देखे बिना, 21जनवरी सन 1945 को हुआ था [3] । (सांस्कृतिक दृष्टि से भी रासबिहारी बोस का योगदान उल्लेखनीय है कि उन्होंने जापानी महिला से शादी करने के कारण भारतीय कढ़ी का प्रचार जापान में किया था । आज भी इसे नाकामुराया नो करी के नाम से जाना जाता है ।) लेकिन तब तक वे तोक्यो और बैंकोक में ‘इंडियन इंडिपेंडेंस लीग’ की स्थापना करके उस लीग की सैन्य शाखा के रूप में इंडियन नेशनल आर्मी (आज़ाद हिन्द फौज )का गठन कर चुके थे। नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने सन 1943 में आज़ाद हिन्द फौज का सर्वोच्च कॉमांडर का पद संभाला था । इसके बाद आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश सेना के खिलाफ बर्मा, इंफाल और कोहिमा आदि में युद्ध किया था , लेकिन खाद्य सामग्री और अस्त्रों के अभाव तथा प्रतिकूल जलवायु के कारण बुरी तरह हार हुई थी। यह ज़रूर था कि आज़ाद हिन्द फौज ने बड़े साहस से शत्रुओं का मुक़ाबला किया था, लेकिन ‘इम्फाल का युद्ध’ जापान के युद्ध इतिहास में सब से दुस्साहसी व बचकानी युद्धनीति के उदाहरण के रूप में कुख्यात है। आधुनिक युद्ध केवल आध्यात्मिक बल से तो नहीं जीता जाता । हिरोशिमा तथा नागासाकी पर अमानवीय परमाणु बम गिराए जाने से एक क्षण में लाखों लोगों की मृत्यु हुई ! पूरे देश का विध्वंस हुआ, अभूतपूर्व त्रासदी झेलने के बाद जापान ने 15 अगस्त 1945 को अमरीका आदि देशों की संयुक्त सेना के सामने आत्म-समर्पण किया था । इसी 15 अगस्त के दिन दो साल बाद भारत को स्वतन्त्रता मिली थी ।
3. स्वातंत्र्योत्तर भारत तथा युद्धोत्तर जापान
जापान की पराजय के बाद नेता जी सुभाष चन्द्र बोस रूस से सहायता माँगने का निश्चय करके मंचूरिया की तरफ जा रहे थे, लेकिन 18 अगस्त को ताइहोकू हवाई अड्डे के आसपास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया । उन्हें ताइहोकू सैनिक अस्पताल ले जाया गया जहाँ उनका देहांत हो गया । सितंबर के मध्य में उनकी अस्थियाँ एकत्र करके तोक्यो के रैनकोजी मंदिर मेँ रख दी गई और इस मंदिर के प्रांगण में नेता जी की प्रतिमा भी स्थापित की गई। उस प्रतिमा को श्रद्धांजलि देने के लिए अनेक लोग आते हैं । लेकिन कुछ लोग खास तौर पर पश्चिमी बंगाल में ऐसे लोग हैं जो नेता जी की मृत्यु पर विश्वास नहीं करते ! भारत सरकार ने तीन बार इस घटना की जांच के लिए आयोग गठित किए थे जिन्होंने नेता जी की मृत्यु को प्रमाणित घटना माना है,लेकिन फिर भी अभी तक नेता जी की मृत्यु को लेकर भारत में यह एक रहस्य सा बना हुआ है । नवंबर 1945 में लाल किले में आज़ाद हिन्द फौज पर देशद्रोह के इलज़ाम में मुकदमा चलाया गया था । पंडित जवाहर लाल नेहरू ने आज़ाद हिन्द फौज की वकालत की थी । लेकिन इस मुकदमे ने भारतीयों के मन में देश-भक्ति की भावना को और भी तीव्र कर दिया और परिणामस्वरूप स्वतन्त्रता के लिए हो रहे संघर्ष की गति और भी तेज हो गई थी ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के तुरंत बाद की जापान की स्थिति बहुत दयनीय थी । पूरे देश में विध्वंस का माहौल था , खाद्य-पदार्थों के अभाव कारण भुखमरी फैल रही थी । चीन ,रूस आदि देशों से जापानी सैनिकों की देशवापसी के दौरान रास्ते में उनके प्राण-त्याग देने की घटनाएँ हो रही थीं । अमरीकी फौज के शासन का आरंभ हो गया था। –ये सब जापान के इतिहास में अद्वितीय घटनाएँ थीं । अमरीकी शासक जेनेरल डगलस मैकऑथर (1880-1964) जापान में सैन्यावाद और सामंतीतंत्र को खतम करके सही प्रजातन्त्र लाने के लिए एक-एक करके बड़े परिवर्त्तन कर रहे थे―जमींदारी–उन्मूलन, उच्च-शिक्षा में सहशिक्षा का आरंभ आदि इनमें प्रमुख थे । जापान के सम्राट हिरोहितो (1890 -1989) ने खुले आम यह घोषणा की थी कि मैं मनुष्य हूँ (तब तक जापानी जनता उन्हें ईश्वर-तुल्य मानती थी ) ।
जापान और भारत के संबंधों में उस समय की सब से बड़ी उल्लेखनीय घटना तोक्यो में ‘युद्ध अपराधियों’ के विरुद्ध चलाए गए मुकदमे, जिसे ‘द इंटरनेशनल मिलिटरी ट्रिब्यूनल फॉर द फार ईस्ट’ (The International Military Tribunal for the Far East) कहा जाता है , से जुड़ी है । यह मुकदमा सन 1946 से सन 1948 तक चला था । इसके लिए भारत समेत 11 देशों से 11 न्यायाधीशों की नियुक्ति की गई थी । इसमें जापान के तत्कालीन राजनेताओं, जापानी सरकार व सेना के उच्च अधिकारियों, राजनयिकों तथा दक्षिणपंथी विचारकों समेत 28 लोगों को अभियुक्त बनाया गया था । अदालत ने निवर्तमान जापानी प्रधान मंत्री तोजो हिदेकि (1884-1948) सहित 7 नेताओं को फांसी, 16 अन्य अभियुक्तों को उम्र कैद , 2 को श्रमरहित कैद की सज़ा सुनाई थी । दो अभियुक्तों का देहांत होने की वजह से और एक को ‘पागल’ होने के संदेह के कारण मुकदमा वापस ले लिया गया था । लेकिन 11 न्यायाधीशों के अंतर्राष्ट्रीय पैनल में केवल न्यायमूर्ति राधाविनोद पाल (1986-1967) , जो कोलकाता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश तथा अंतर्राष्ट्रीय कानून के विशेषज्ञ थे , ने यह कहकर सभी अभियुक्तों को निर्दोष घोषित किया था कि कानून में जो कुछ लिखित नहीं होता या किसी घटना के बाद में बनाया गया है उसके आधार पर किसी को दंड देना उचित नहीं है । उनकी टिप्पणी थी कि जिस प्रकार ‘शांति के विरुद्ध’ या ‘मानवतावाद के विरुद्ध’ होने का आरोप लगाकर यह अभियोग दायर किया गया है , वास्तव में इस प्रकार का कोई कानून ही नहीं है । यद्यपि उनकी यह व्याख्या शुद्ध रूप से कानून के विशेषज्ञ का दृष्टिकोण थी, और निश्चित ही युद्धकालीन जापानी सैन्यावाद का समर्थन करना उनका उद्देश्य नहीं था, संभवत: उनके मन में अंग्रेजों के प्रति विरोध और एशियाई जातियों से सहानुभूति की भावना भी रही होगी; पर यह सच है कि उस समय उनकी इस न्यायिक टिप्पणी ने घोर निराशा में डूबे जापानी समाज को ढाढ़स और हौसला दिया था । यही कारण है कि अभी तक प्राय: सभी जापानी उनको अपना ‘उपकारक’ मानते हैं । खेद की बात है कि नई पीढ़ी अब उनका नाम भूलती जा रही है । (यह एक रोचक तथ्य है कि ऐतिहासिक दृष्टि से जिन दिग्गज भारतीयों ने जापानियों को प्रभावित किया था या जो भारतीय महापुरुष जापान से प्रभावित हुए थे , उनमें से महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू को छोड़कर स्वामी विवेकानंद (1863-1902) से लेकर, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, रासबिहारी बोस, सुभाषचन्द्र बोस और राधाविनोद पाल तक शेष सभी बंगाली थे – इनमें नंदलाल बोस (1882-1966) ,सत्यजीत राय (1921-1992) और अमर्त्य सेन (1933- ) के नाम भी जोड़े जा सकते हैं ।)
न्यायमूर्ति राधाविनोद पाल ने जहाँ अपनी एक न्यायिक टिप्पणी से जापानियों को हौसला दिया था तो वहीं भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने जापानी बच्चों को हथिनी भेंट करके उनका दिल जीत लिया था। युद्धकालीन हवाई बमबारी के समय चिड़ियाघरों में जितने बड़े या हिंसक पशु होते थे उन सब को इस भय से जानबूझकर मार दिया गया था कि शायद वे चिड़ियाघर से भागकर लोगों पर हमला करेंगे । इसलिए जब युद्ध समाप्त हुआ था तो पूरे जापान में कोई शेर या हाथी नहीं बचा था । तोक्यो की एक प्रारांभिक पाठशाला के बच्चों ने भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को चिट्ठी लिखी कि ‘हम हाथी के बिना बहुत उदास हैं।‘ । पंडित जी ने बच्चों की पुकार सुनी और सन 1949 में भारत से तोक्यो स्थित उएनो चिड़ियाघर में एक हथिनी भेंटस्वरूप भेजी थी जिसको उन्होंने अपनी इकलौती बेटी के नाम पर इन्दिरा नाम दिया था । भारत से मिले इस स्नेह भरे उपहार को अभी तक जापान और भारत की दोस्ती के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है । ‘इंदिरा’ के अपने जीवन पूरा कर चुकने के बाद भी भारत सरकार ने दो हाथी जापान को उपहारस्वरूप प्रदान किए हैं – पहले,सन 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी (1917-1984) की ओर से ‘दया’ को तथा बाद मेँ सन 2001 में ‘आशा’ को भारत के तत्कालीन सुरक्षा मंत्री जॉर्ज फेरनानडेस (1930-) की ओर से भेंट किया गया था ।
सन1951 में अमरीका के संफ्रानसिसको शहर में जापान के साथ शांति-संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय शांति-सम्मेलन बुलाया गया था , जापान के साथ 47 पुराने शुत्रदेशों ने इस संधि पर हस्ताक्षर किए थे और जापान ने फिर से स्वतंत्रता को प्राप्त किया था , लेकिन भारत इस शांति-सम्मेलन में इस संधि के प्रति यह असंतोष व्यक्त करते हुए उपस्थित नहीं हुआ था कि पहला, इसमें चीन को आमंत्रित नहीं किया गया था और दूसरा, इसमें जापान में अमरीकी अधिग्रहण सेना का रह जाना तय हुआ था । लेकिन अगले साल (सन 1952) जापान और भारत के बीच अलग से पारस्परिक शांति-संधि हुई थी । भारत ने जापान से क्षतिपूर्ति माँगने का अधिकार त्याग दिया था , यह भारत की उदारता का उदाहरण है । यह दोनों देशों के राजनयिक संबंध की शुरूआत थी ।
जापान के उद्योग के पुनरुद्धार के लिए लौह अयस्क की बहुत जरूरत होती थी,पर जापान में यह नहीं मिलता है । भारत में लौह अयस्क की बहुतायत है ,पर निर्यात पर पाबंदी थी । नेहरू जी ने अनेक विरोधों के बावजूद जापान को प्राथमिकता देकर लौह अयस्क के निर्यात की अनुमति प्रदान की थी । इसी लौह अयस्क की आपूर्ति ने जापान के आर्थिक विकास के लिए बड़ी भूमिका निभाई थी । सन 1956 में जापान–भारत विमानन समझौता जारी हुआ । सन 1957 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जापान का दौरा किया था और जापान–भारत सांस्कृतिक संधि हुई । यह जापान –भारत संबंधों के लिए चरम उत्कर्ष का समय माना जाता है । सन 1958 से जापानी सरकार की ओ. डी. ए. (Official Development Assistance) देना और साथ साथ जापानी मुद्रा ‘येन’ का ऋण देना भी शुरू हुआ था तथा इस तरह सब से पहले जिस देश को उधार दिया गया वह भारत था [4]। और सन 1986 में भारत जापान से सब से अधिक मात्रा में येन का ऋण लेनेवाला देश बन गया था और यह स्थिति अभी भी बरकरार है ।
उसके बाद जापान का आर्थिक विकास तेजी से होने लगा था और सन 1968 में अमरीका के बाद यह सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) के मानकों पर दुनिया का दूसरा बड़ा देश बना था, यह स्थिति सन 2010 तक बनी रही । 1970 व 1980 के दशक तक इस विकास को ‘दुनिया का करिश्मा’ कहा जाता था । एक समय, चीन , भारत व कोरिया आदि एशिया के सारे देशों के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) का आँकड़ा जापान के सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) का केवल एक तिहाई मात्र था । पूरे विश्व का 25 प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद अमरीका का था और 14-15 प्रतिशत जापान का था (कहते हैं कि 17वीं -18 वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य और चीन के शिन (Quin) साम्राज्य की जी.डी.पी. का कुल योग उस जमाने के संसार की जी.डी.पी. का 40 प्रतिशत होता था ।) लेकिन अब स्थिति बदल गई है – इन तीनों एशियाई देशों का आर्थिक विकास तेजी से हो रहा है । इसकी तुलना में जापान की अर्थ-व्यवस्था सिकुड़ रही है ।
उधर उन दिनों भारत के आर्थिक विकास की गति बहुत ढीली थी । इसलिए “शीत युद्ध” के समय दोनों देशों का राजनैतिक संबंध भी ढीला पड़ गया था , भारत तटस्थ देशों में प्रमुख था, बल्कि रूस से अधिक झुका हुआ था , पर जापान अमरीका और पश्चिमी यूरोपीय देशों के साथ था । इसका एक उदाहरण यह है कि जापानी प्रधान मंत्री का भारत दौरा सन 1964 (प्रधान मंत्री ईकेदा हायातो (1899-1965)) से 1984(प्रधान मंत्री नाकासोने यासुहीरो (1918- )) तक बीस साल में एक बार भी नहीं हुआ था। जापानी उद्योगपति भारत को निवेश के लिए कोई खास आकर्षक स्थान नहीं मानते थे , अधिकतर जापानी सरकार के अधिकारियों और उद्योगपतियों के लिए भारत का महत्त्व दक्षिण-पूर्वी एशिया के अन्य देशों या अरब देशों से भी कम था । वे समाजवादी व्यवस्था और लाइसेन्स राज के पक्ष में नहीं थे। वे उदार अर्थ व्यवस्था और आपसी प्रतिस्पर्धा को आर्थिक विकास के लिए आवश्यक मानते थे ।
सन 1989 मेँ सम्राट हिरोहितो का निधन हुआ था तो भारत सरकार ने तीन दिन का औपचारिक ‘राष्ट्रीय शोक’ घोषित किया था । दूसरे देश के सम्राट की मृत्यु पर इस प्रकार राष्ट्र के स्तर पर शोक प्रकट करना अभूतपूर्व घटना थी । यह भारत की जापान के प्रति गहरी सद्भावना का द्योतक था ।
जब सन 1991 में सोविएत संघ का विघटन हो गया था और खाड़ी युद्ध छिड़ जाने के कारण भारत अभूतपूर्व आर्थिक संकट में पड़ गया था । वहाँ मुद्रा स्फीति की दर 20 प्रतिशत हो गई थी और केवल दो हफते का तेल खरीद सकने लायक विदेशी मुद्रा रह गई थी । अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से धनराशि उधार लेने के लिए अर्थ -व्यवस्था के ‘उदारीकरण’ के सिवा और कोई उपाय नहीं बचा था। तब जापान ने दोस्ती का हाथ बढ़ाकर भारत को सब से अधिक धनराशि की आर्थिक सहायता दी थी । तब भारत के वित्तमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह (1932- ) थे । वे प्रधान मंत्री बनने के बाद भी प्राय: जापानी सरकार के प्रति इसके लिए आभार प्रकट करते थे । उदारीकरण के बाद भारत का आर्थिक विकास तेजी से होने लगा था , विशेषतया सूचना प्रौद्योगी के क्षेत्र में अमरीका के बाद सब से अग्रणी देश के रूप में भारत दुनिया भर में माना जाने लगा था। अब आम जापानियों के लिए भारत की छवि (image) नकारात्मक से ‘सकारात्मक’ में परिवर्तित हो चुकी है । अब निवेश के लिए कोई समस्या या बाधा नहीं है । देर आयद दुरस्त आयद । चीन ,कोरिया की तुलना में काफी देर के बाद जापान ने भारत में निवेश करना आरंभ किया । सिर्फ ‘सुज़ुकी’ कंपनी अपवाद थी जिसने सन 1982 में भारत में मारुति के साथ संयुक्त उपक्रम (joint venture) प्रारम्भ किया था और आज तक भारत में कारों की बिक्री की कुल मात्रा का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा ‘मारुति सुज़ुकी’ का है । इस सफलता का श्रेय सुज़ुकी के प्रेज़ीडेन्ट श्री सुज़ुकी ओसामु (1930- ) की दूरदर्शिता को दिया जाना चाहिए । लेकिन टी. वी., कूलर , रेफ्रिजरेटर , वॉशिंग मशीन आदि घरों में उपयोग किए जाने वाले विद्युतचालित उपकरणों के व्यापार के क्षेत्र में जापान कोरिया के पीछे रह गया । इसकी वजह यह थी कि जब भारत ने उदारीकरण किया था तब जापान की अर्थ-व्यवस्था में बुलबुला(बबल) फट गया था ,यानि विकास में रुकावट आ गई थी । जापान की विदेशों में निवेश करने की अधिक ताकत नहीं थी और तब जापानी उद्योगपतियों की निगाह केवल चीन के बाज़ार पर थी ।
खैर, 1990 के दशक में जापान और भारत के बीच आर्थिक व राजनैतिक संबंध बहुत घनिष्ठ हो रहे थे , यद्यपि भारत जापान दोनों देशों के प्रधान मंत्रियों का आपसीदौरा केवल एक एक बार (प्रधान मंत्री काइफू तोशिकी (1931- ) का भारत दौरा -1990, और प्रधान मंत्री नरसिंह राव (1921-2004) का जापान दौरा -1992) हुआ था, किन्तु सन 1998 में भारत द्वारा पोखरण में किए गए परमाणु-विस्फोट ने दोनों देशों के बीच असल में परमाणु परीक्षण का मामला बहुत संवेदनशील है । जापान संसार में परमाणु बम से पीड़ित एकमात्र देश है और हिरोशिमा व नागासाकी शहरों के निवासियों ने ही इस की नृशंसता का प्रत्यक्ष अनुभव किया था । इसलिए जापानियों को परमाणु अस्त्र के विरुद्ध आवाज़ उठाने का अधिकार है और यह उनका नैतिक कर्त्तव्य भी है । लेकिन जापान के इस अधिकार और कर्त्तव्य के बोध में एक दुर्बलता या अंतर्विरोध यह है कि जापान जिस परमाणु शक्ति का विरोध करता है उसी की छत्र-छाया (यानि अमरीका की परमाणु शक्ति ) में रहता है । लेकिन भारत किसी दूसरे देश की परमाणु शक्ति की छत्र-छाया में नहीं है ।
भारत सिद्धान्त पर खड़ा देश है । भारत का सिद्धान्त यह है कि परमाणु हथियारों पर प्रतिबंध लगाना है तो पाँच प्रमुख परमाणु शक्ति संपन्न बड़े देशों को भी परमाणु निरस्त्रीकरण करना चाहिए –यह बिलकुल न्यायसंगत है, इस ‘सिद्धान्त’ को कोई नकार नहीं सकता । पर यह वास्तव में अभी संभव नहीं है ,सो यथार्थ समाधान के लिए दुनिया के 190 से ज्यादा देश परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर कर चुके हैं , फिर भारत इस विकल्प (यथार्थ समाधान) यानि ‘सेकंड बेस्ट’ (second best) का समर्थन क्यों नहीं करता ? क्या भारत मेँ ‘सेकंड बेस्ट’ के बारे मेँ सोचने की गुंजाइश नहीं है ? भारत के अपने इस सिद्धान्त पर अड़े रहने की वजह से पाकिस्तान को बहाना मिल गया और पाकिस्तान भी परमाणु बमधारी देश बन गया । इसी तरह उत्तर कोरिया , ईरान आदि देशों को परमाणु अस्त्र रखने से मना कैसे किया जा सकता है ? हाँ, यह सच है कि भारत ने कभी परमाणु अस्त्र की तकनीकी की सूचना किसी दूसरे देश को नहीं दी है । भारत ने यह भी घोषणा की है कि वह परमाणु अस्त्र का इस्तेमाल अपनी ओर से पहले नहीं करेगा और गैर परमाणु शस्त्रधारी देश के विरुद्ध कभी इसका इस्तेमाल नहीं करेगा । इस मामले में भारत विश्वसनीय देश है । यह उल्लेखनीय है कि जिस दिन हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराया गया था उस 6 अगस्त को हर साल भारतीय संसद उस नृशंसता के पीड़ितों के लिए मूक श्रद्धांजलि अर्पित करती है । ऐसे दुनिया में केवल दो ही देश , भारत और भूटान हैं ।लेकिन हरेक भारतीय से यह मासूम सवाल पूछा जाए तो किस प्रकार का जवाब मिलेगा कि यदि देश पिता और अहिंसा के जनक महात्मा गाँधी जी जीवित होते तो क्या वे परमाणु परीक्षण करने देते ?
भारत के साथ सामान्य संबंध फिर से स्थापित करने की पहल तत्कालीन अमरीका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन (1955-) ने मार्च 2000 में की थी । इसके थोड़े समय बाद जापान के प्राधान मंत्री मोरि योशिरो (1938-) ने भी अगस्त 2000 में भारत आकर प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (1924- ) के साथ वार्त्ता की थी और दोनों देशों के बीच ‘ग्लोबल पार्टनरशिप’ (Global Partnership) की घोषणा की थी। श्री मोरी ने पहली बार ‘भारत का सिलिकों वैलि’ (Silicon Valley) कहलाने वाले बेंगलूरु का दौरा किया था । अगले वर्ष सन 2001 में श्री अटल बिहारी वाजपेयी का जापान दौरा तय था, लेकिन गुजरात में आए बड़े भूकंप के कारण उसे स्थगित करना पड़ा । भूकंप पीड़ितों के लिए जापान के सरकारी और गैरसरकारी संगठनों ने बहुत राहत सामग्री भेजी थी ।
जब तक दिसंबर में अटल बिहारी वाजपेयी जी जापान पधारे तब तक जापान का भारत के लिए ओ. डी. ए. फिर से शुरू किया जा चुका था । भारत सरकार ने ‘लुक ईस्ट’ (Look East) की नीति अपनाई थी, और संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद की सदस्यता की सांझी चाह के लिए भी दोनों देश और भी नजदीक आ गए । अब तो दोनों प्रधान मंत्रियों के आपसी दौरे अकसर होने लगे थे । वाजपेयी जी का स्वागत समारोह ओसाका के पाँच सितारे होटल में जब हुआ था तो ओसाका विश्वविद्यालय के हिन्दी के इच्छुक विद्यार्थियों ने वाजपेयी जी के सामने लघु हिन्दी नाटक प्रस्तुत करके उनका दिल जीत लिया था । यह दोनों देशों के सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान था ।
सन 2009 में प्रधान मंत्री हातोयामा यूकिओ (1947 -) ने भारत का दौरा किया था । सन 2010 में प्रधान मंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह ने जापान का दौरा किया था । सन 2011 में पूर्वी जापान में महा विनाशकारी भूकंप आक्रमण हुआ था । अभूतपूर्व त्सुनामी के आक्रमण तथा परमाणु विद्युत गृह से नाभिकीय किरणों के निकलने से लगभग 15 हज़ार व्यक्तियों की मृत्यु हुई और 2.5 हज़ार व्यक्ति लापता हो गए । भारत में भी लोगों ने टी वी में यही ‘मौत का तांडव’ देखा था । तब भारत सरकार ने 46 सदस्यीय ऐसे बचाव दल को पूर्वी जापान के आपदाग्रस्त इलाके में भेजा था जो जल, खाद्य, औषधि और ऑक्सीजन टैंक आदि जीवन-निर्वाह के लिए ज़रूरी हर चीज़ से लैस था । और वह दल एक शव को निकालने में सफल हुआ था । तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में यह घोषणा की थी कि “भारत जापान के ओ डी ए का सब से बड़ा हिताधिकारी है । अब हमारा मित्र देश जापान महा भूकंप, भीषण त्सुनामी तथा फुकुशिमा परमाणु विद्युत गृह की दुर्घटना के कारण बड़े संकट में है । अभी वह समय है जब भारत सरकार को जापान के प्रति हार्दिक सहानुभूति व्यक्त करते हुए उसकी सहायता करनी चाहिए ।“ प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह की इस घोषणा ने लगभग प्रत्येक जापानी के दिल को छू लिया था। । कोबे के प्रवासी भारतीयों ने पीड़ितों के लिए बड़ा चन्दा इकट्ठा करके भेजा था । केवल एक हज़ार लोगों का छोटा समुदाय होने के बावजूद उन लोगों ने लगभग 2 करोड़ येन (यानि 1 करोड़ रुपया ) की धनराशि इकट्ठा की थी । यह आंकड़ा बताता है कि दूध पीते बच्चे और काम नहीं करनेवाले वृद्ध लोगों को मिलाकर औसत प्रत्येक भारतीय ने 10 हज़ार रुपये दिए थे ! यह बहुत बड़ी रकम है। यह शायद जापान द्वारा गुजरात के भूकंप पीड़ितों के लिए सहायता प्रदान कर प्रकट की गई दोस्ती का प्रतिदान था ।
इसी साल अगस्त 1 को दोनों देशों के बीच ‘कम्प्रिहैंसिव एकोनोमिक पार्टनर्शिप अग्रीमेंट’ (Comprehensive Economic Partnership Agreement - CEPA) नामक समझौता हुआ जिसके अनुसार अगले दस साल में भारत जापान से आयात मालों में से 90प्रतिशत मालों को निशुल्क करेगा और जापान भारत से निर्यात 97 प्रतिशत मालों पर कोई शुल्क नहीं लगाएगा । इसी साल दिसंबर में प्रधान मंत्री नोदा योशिहिको (1957-) ने भारत का दौरा किया था।
4. उज्ज्वल भविष्य की ओर
सन 2014 अगस्त –सितंबर में भारत के नए प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी (1950- ) ने अपने विदेश दौरे में विकसितदेशों में सब से पहले जापान को चुना । वे अपने राजनैतिक गुरु श्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरह तोक्यो से पहले ओसाका पहुंचे , लेकिन ओसाका शहर में न आकर हज़ार वर्ष तक इस देश की राजधानी रहे क्योतो शहर सीधे पहुंचे और उन्होंने वहाँ के एक बौद्ध मंदिर का दौरा कर वहाँ पूजा भी की । जापानी प्रधान मंत्री श्री आबे ने तोक्यो से क्योतो उनके स्वागत के लिए आए थे – किसी भी राष्ट्रीय अतिथि के स्वागत के लिए जापानी प्रधान मंत्री का राजधानी से दूर दूसरे शहर में आना पहली बार हुआ था। दोनों नेताओं में के सम्बन्धों की घनिष्ठता को स्वागतशीलता के इस प्रतिमान से समझा जा सकता है। इसी अवसर पर क्योतो और वाराणसी शहर के बीच आदान-प्रदान का समझौता हुआ । मोदी जी वाराणसी को क्योतो की तरह स्मार्ट सिटी बनाना चाहते हैं । दोनों शहर अपने अपने देश की सांस्कृतिक राजधानी हैं, और दोनों स्थानों पर मंदिरों की बहुतायत है।
मोदी जी ने जापान में इन पंक्तियों के लेखक का मान रखते हुए सर्वत्र हिन्दी में ही भाषण दिया । जापान में अंग्रेजी में भाषण देने पर भी दुभाषिये की आवश्यकता पड़ती है, फिर क्यों न सीधे हिन्दी से जापानी में अनुवाद किया जाए ? असल में विदेशों में हिन्दी में ही बोलने का सिलसिला उनकी नेपाल यात्रा से शुरू हुआ था और अमरीका और संयुक्त राष्ट्र अमरीका तक उन्होंने इसे जारी रखा । यह भले ही आम लोगों के लिए कोई खास बात न हो , लेकिन हिन्दी के प्रचार के लिए यह बहुत प्रतीकात्मक महत्त्वपूर्ण घटना थी । अवश्य ऐसा उदाहरण वाजपेयी जी ने भी प्रस्तुत किया था ,पर दुनिया की भारत पर उस जमाने की नज़र और आजकल की नज़र में बहुत फर्क है !
श्री आबे और श्री मोदी के बीच के वार्त्ता के कई सुपरिणाम हुए हैं [5]। उनमें दो महत्त्वपूर्ण बातें ये हैं (1) दोनों देशों के सम्बन्धों को ‘स्ट्रेटेजिक और ग्लोबल पार्टनर्शिप’ से ‘स्पेशल स्ट्रेटेजिक और ग्लोबल पार्टनर्शिप’ (Special Strategic and Global Partnership )तक ऊंचा उठाया गया है । (2) अब ओ.डी.ए. मिलाकर जापान भारत में लगभग पैंतीस खरब येन(यानि लगभग अठारह खरब रुपये ) का निवेश करेगा । 2015 दिसंबर में प्रधान मंत्री आबे के भारत दौरे ने दोनों देशों के संबंधों को और भी घनिष्ठता प्रदान की है । प्रसिद्ध पत्रकार डाक्टर वेद प्रताप वैदिक (1944- ) के अनुसार “जापान के प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे की भारत-यात्रा अन्य विदेशी मेहमानों की यात्राओं के मुक़ाबले ज्यादा सार्थक मालूम पड़ रही है । वैसे, एशिया में भारत और जापान की दोस्ती बिल्कुल स्वाभाविक मानी जानी चाहिए, क्योंकि आचार्य चाणक्य के अनुसार पड़ोसी का पड़ोसी बेहतर दोस्त होता है ।“(लेख, घनिष्ठता बढ़े लेकिन ठगाइए मत ,14 दिसंबर 2015- से ) । दो प्रधान मंत्रियों ने वार्त्तालाप के बाद ‘जापान –भारत विजन 2025 स्पेशल स्ट्रेटेजिक और ग्लोबल पार्टनर्शिप : इंडियन एंड पेसिफिक ज़ोन एंड ज्वाइंट वर्क फार वर्ल्ड पीस एंड प्रोस्पेरिटी’ (Special Strategic Global Partnership ; Indian & Pacific Zone and Joint work for World Peace and Prosperity) नामक संयुक्त घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किए । उसमें दो महत्त्वपूर्व बातें हैं - एक तो चिरकाल से चर्चित सिविलियन (असैनिक ) परमाणु ऊर्जा समझौते की बात को आगे बढ़ाना तय हुआ और दूसरा, मुंबई अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन का निर्माण जापानी टेकनीक से होना तया हुआ ।
आम जापानी जनता परमाणु अस्त्र और असैनिक परमाणु ऊर्जा के बीच भेद नहीं करती । जापानी लोग जिस देश ने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं , उस देश को परमाणु शक्ति का सहयोग देने के सख्त विरोधी हैं, विशेष कर हिरोशिमा और नागासाकि वासियों में यह भावना प्रबल है –चाहे वामपंथी के लोग हों या दक्षिणपंथी । किन्तु इस नियम के विरुद्ध अमरीका ने स्वयं भारत के साथ इस क्षेत्र में समझौता किया है । उसके बाद रूस, कोरिया, फ्रांस आदि अनेक देशों ने भारत के साथ परमाणु समझौता किया है । फुकुशिमा की दुर्घटना के कारण जापान के साथ समझौता करने में और विलंब हो गया था , लेकिन अब आबे सरकार के शासन में इस समस्या के समाधान की दिशा दिख रही है । जापान का उद्योग जगत तथा बहुसंख्यक सांसद समझौते का समर्थन करेंगे। सिद्धांतत: विरोध करनेवालों में यथार्थ स्थिति (भारत में परमाणु विद्युत गृह परमावश्यक है। जापान सहयोग नहीं करेगा तो भी भारत दूसरे देशों के सहयोग से परमाणु विद्युत गृह बना ही लेगा । ऐसा होना ठीक नहीं है ,क्योंकि अमरीका हो या फ्रांस हो, भारत में परमाणु विद्युत गृह बनाने के लिए जापान की टेकनीक चाहिए। फिर तो भारत में इसे जापानी टेकनीक से बनाना ज्यादा बेहतर होगा।) को समझकर समझौते को स्वीकार करनेवाले लोग भी हैं । कुछ लोग यह भी सोचते हैं कि चीन का मुक़ाबला करने के लिए भारत का शक्तिशाली परमाणुशस्त्र सम्पन्न देश बनना परोक्ष रूप से जापान के हित में होगा । इसके बारे में वैदिक जी को भय है कि“चीन से निपटने के नाम पर हम जापान से ठगाएँ नहीं , यह भी उतना ही ज़रूरी है ।“(वही )असल में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जापान ने कभी किसी देश को ठगा नहीं , किन्हीं किन्हीं देशों से ठगाया ज़रूर था । फिर भी अपनी जनता का समर्थन प्राप्त करने के लिए आबे सरकार भारत सरकार की ओर से आश्वासन चाहती है, वेद प्रताप वैदिक जी के शब्दों के अनुसार “जापान भारत की परमाणु-संप्रभुता को गिरवी रख लेगा ….. यह देश के लिए बहुत अहितकर होगा।“ (वही ) ‘गिरवी’ बहुत कड़ा शब्द है । सिद्धान्त पर खड़ा भारत संधि पत्र में ‘गिरवी’ कभी नहीं लिखेगा , लेकिन किसी भी प्रकार का ‘आश्वासन’ (यदि भारत परमाणु परीक्षण करेगा तो जापान सहयोग बंद करेगा ) लिखित रूप से दे तो जापानी सरकार को जनता का बहुमत हासिल होगा।
अब रही अहमदाबाद-मुंबई बुलेट ट्रेन चलाने की बात। वैदिक जी इसके सख्त विरोधी हैं। कहते हैं-“ इसपर 98000 करोड़ रुपए खर्च करने की तुक क्या है ? इसका फायदा किसे मिलेगा ?” (वही) लेकिन मैं उनसे सहमत नहीं हूँ। फायदा बहुत होगा मध्य वर्ग के सभी नागरिकों को होगा । अब वह ज़माना नहीं है जब लोग सोचते हों कि मुंबई से अहमदाबाद पहुँचना ही उद्देश्य है चाहे कितने ही घंटे लगें पर सस्ता होना चाहिए। अब ऐसे माध्यम वर्ग के लोग बहुत हैं जिनके लिए ‘समय ही धन’ है और जो आरामदेह यात्रा करना चाहते हैं । सिर्फ खर्चे की बात सोचें तो फिर दिल्ली और मुंबई में इतने शानदार हवाई अड्डे बनाने की क्या जरूरत थी ? ज़रूरत थी ,इसलिए बनाया था, तो इसका फायदा भी जग ज़ाहिर है । अब मुंबई से अहमदाबाद हवाई जहाज़ से जाने के लिए कितने घंटे लगते हैं ? विमान के प्रस्थान से दो घंटे पहले हवाई अड्डे तक पहुँचने के लिए जाम में पूरा एक घंटा लगता है। एक घंटे में हवाई जहाज़ अहमदाबाद पहुँचेगा , फिर वहाँ से शहर जाने के लिए एक घंटा यानि गंतव्य तक पहुँचने के लिए 5 घंटे लगते हैं , वैसे इसके बाद उड़ान में भी देर हुआ करती है । लेकिन बुलेट ट्रेन से तो केवल 3 घंटे में पहुँच सकते हैं ―द्रुत,सुरक्षित और आरामदेह ! वायु के प्रदूषण से कोसों दूर ! दस साल के बाद जनता की आमदनी दुगनी हो जाएगी । मुझे पूरा विश्वास है कि बुलेट ट्रेन में भी भीड़ होने लगेगी ।
यद्यपि आर्थिक और औद्योगिक क्षेत्र में दोनों देशों के बीच संबंध गहरा हो रहा है । यह भविष्य के लिए अच्छा संकेत है , फिर भी दोनों देशों के उत्पादन के पैमाने (जापान का ‘सकल घरेलू उत्पाद 4602 अरब डॉलर’ , विश्व का तीसरा स्थान व भारत का सकल घरेलू उत्पाद 2051 अरब डॉलर, विश्व का नवां स्थान ) के हिसाब से तो कम है , क्योंकि जापान का भारत के लिए निर्यात की मात्रा (861 अरब येन ) विश्व में सोलहवें स्थान पर है और भारत से जापान की आयात की मात्रा (739 अरब येन ) का विश्व में स्थान सत्रहवाँ है, जबकि द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले जापान के साथ आयात-निर्यात की कुल मात्रा की दृष्टि से जापान के लिए भारत का स्थान इंग्लैंड और अमरीका के बाद तीसरा था । अब चीन का बाज़ार इतना विशाल हो गया कि दोनों देशों के लिए चीन के साथ आयात-निर्यात का बहुत महत्त्व हो गया । अब उक्त ‘सोलहवें या सत्रहववें‘ को ‘दसवें’ स्थान से कम की ओर जाना चाहिए ।
अब सांस्कृतिक आदान-प्रदान और मानव संसाधान के विनिमय के क्षेत्र पर चर्चा की जाए । पहले की तुलना में लोगों के लिए अब भारत में जापानी संस्कृति से परिचय और जापान में भारतीय संस्कृतियों से परीचय होने के अवसर बढ़ रहे हैं । फिर भी आम जापानियों के लिए अभी भारत दूर देश है , यह दूरी केवल भौगोलिक ही नहीं , बल्कि मनोवैज्ञानिक भी है । दोनों देशों में सब से बड़ा अंतर यह है कि भारत बहुभाषिक एवं बहुसंस्कृतिक देश है जबकि जापान एकभाषी और एकसंस्कृति का देश है । विविध भारतीय संस्कृतियों का जापान के आम नागरिकों से परिचय कराने की चेष्टा कई अवसरों पर की जाती है । उनमें से तोक्यो में लगभग बीस साल से हर साल आयोजित होनेवाला नमस्ते इंडिया और कोबे में सन 2010 से हर साल आयोजित इंडिया मेला प्रमुख हैं । ‘इंडिया मेला’ जो वर्तमान विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता श्री विकास स्वरूप (1961- ) के नेतृत्व में शुरू हुआ था, उस समय वे ओसाका-कोबे में भारत के प्रधान कोंस्ल थे। इन दोनों आयोजकों के लिए दोनों शहरों में खुले मैदानों पर दो –तीन दिन तक मंच पर नृत्य ,संगीत, फिल्मों आदि की प्रस्तुति होती है और मैदान में भारतीय भोजन की दुकानें, कपड़े व हस्तशिल्प आदि के सामानों की दुकानें लगती हैं । वृक्ष के नीचे हिन्दी की कक्षा भी चलती है । इन आयोजनों में दो लाख से ज्यादा आम जापानी नागरिक आते हैं और भारतीय संस्कृतियों का अनुभव करते हैं और आयोजन का आनन्द लेते हैं । भारतीय फिल्में भी जापान में लोकप्रिय होती जा रही हैं । केवल बॉलीवुड की फिल्में नहीं, बल्कि दक्षिण भारतीय भाषाओं की , मराठी की और बंगला की नई फिल्में
देखने का मौका भी जापानी लोगों को मिलता है ।
किन्तु जब मानव संसाधन (विशेषकर युवाओं) के विनिमय की बात आती है तो निम्नलिखित आँकड़ा देख कर आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहा जा सकता । सन 2015 में पूरे जापान में पढ़नेवाले भारतीय विद्यार्थियों की कुल संख्या मात्र 727 (कुल विदेशी विद्यार्थियों का 0.4 प्रतिशत ) थी जबकि चीनी विद्यार्थियों की संख्या 94,399 (कुल विदेशी विद्यार्थियों का 51.3 प्रतिशत ) थी । भारतीय विद्यार्थियों की संख्या से 130 गुना ज्यादा है ! तुलना करें- नेपाली विद्यार्थी 10,448(5.7 प्रतिशत), श्रीलंका के विद्यार्थी 1,412 (0.8प्रतिशत) तथा बांगलादेशी विद्यार्थी 948(0.5प्रतिशत) थे ( जापान स्टूडेंट सर्वेसिस
ओर्गनाइज़ेशन का रिपोर्ट से)। भारत में पढ़ने वाले जापानी विद्यार्थियों की संख्या पाँच सौ से भी कम है । एक तो भाषा बाधा उत्पन्न करती है, फिर तो क्या चीनियों के लिए कोई बाधा नहीं है ? लिपि की समानता के कारण चीनियों को जापानी सहज लगती है । लेकिन असल में वाक्य-रचना की दृष्टि से हिन्दी एवं अधिकतर अन्य भारतीय भाषाएँ चीनी की अपेक्षा जापानी के करीब हैं । फिर भी एक विद्यार्थी के लिए दो तीन साल केवल भाषा सीखने में लगाना बहुत श्रमसाध्य बात है । यह ‘प्रयत्न लाघव’ के सिद्धान्त के विरुद्ध है । इस बात का विचार करके विभिन्न विश्वविद्यालयों के जापानी प्रोफेसर भारतीय विद्यार्थियों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने लगे हैं । तोक्यो विश्वविद्यालय ने बेंगलूरु में अपना केंद्र खोला था । इस विश्वविद्यालय को आई. आई. टी. के प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के मस्तिष्क और बुद्धि की आवश्यकता है ।
सन 2015 अक्तूबर में पश्चिमी जापान के नारा जिले के एक अच्छे उच्च –माध्यमिक पाठशाला के 100 से अधिक इच्छुक विद्यार्थी अपना ‘स्टडी टूर भारत में करके आए हैं । यद्यपि आजकल उच्च –माध्यमिक पाठशाला के विद्यार्थियों का स्टडी टूर के लिए विदेश जाना कोई नई बात नहीं है , अमेरिका , चीन ,कोरिया आदि देशों में जापानी विद्यार्थी का स्टडी टूर के लिए जाना सामान्य बात है (इधर तनाव के कारण चीन,कोरिया जाना कम हो गया है ), लेकिन इस टूर में स्वेच्छा से भारत जानेवाले विद्यार्थी 100 से अधिक थे –यह जापान की शिक्षा के इतिहास में ऐतिहासिक घटना है । विद्यार्थियों ने दिल्ली के ‘डी. ए. वी.पब्लिक स्कूल श्रेष्ठ विहार’ में ठहर कर वहाँ के छात्रों के साथ संवाद किया, साथ –साथ भोजन भी किया था । सीमित समय के लिए ही सही , किन्तु इस प्रकार का कार्यक्रम आपसी समझ के लिए बहत लाभदायक होता है । कई विद्यार्थियों के लिखे यात्रा संस्मरणों से इसका पता चलता है । सुनने में आया है कि इस साल भी यही कार्यक्रम जारी रहेगा ।
यह भी उल्लेखनीय बात है कि कोबे स्थित समूचे जापान में प्रसिद्ध एवं उत्तम श्रेणी के ‘नादा हाई स्कूल’ के एक विद्यार्थी ने तोक्यो विश्वविद्यालय (जो कि जापान का सर्वोत्तम विश्वविद्यालय माना जाता है और जिसमें प्रवेश लेना उक्त हाई स्कूल के अधिकांश विद्यार्थियों का स्वाभाविक लक्ष्य है), में प्रवेश लेने के बजाय कृष खाद्य इंजीनियरी संकाय, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, खड़गपुर में प्रवेश लिया है । वह खड़गपुर में रहकर छात्र -जीवन का बहुत आनंद ले रहा है । उसने लिखा था कि केवल कक्षाएं ही नहीं , बल्कि छात्रावास में सामूहिक जीवन और स्वैच्छिक गतिविधियाँ इत्यादि मिलाकर वहाँ का छात्र-जीवन बड़ा आनंददायक है । उस विद्यार्थी ने आगे लिखा है कि प्रवेश परीक्षा में रसायन विज्ञान और भौतिक विज्ञान बहुत कठिन थे ,क्योंकि उनमें से कुछ विषय जापान में बिल्कुल नहीं सिखाए गए थे, लेकिन गणित में उसने टॉप 15 फीसदी में शामिल अच्छा अंक प्राप्त किया था । अंग्रेजी में समझना और लिखना शुरू में बहुत कठिन लगता था, किन्तु अब काफी अभ्यस्त हो गया है। आशा है कि यह मेधावी तथा उत्साही युवा छात्र दोनों देशों के बीच एक सांस्कृतिक पल बनकर भविष्य में भी बहुत महत्त्वपूर्व भूमिका निभाएगा । और शायद , भारतीय छात्रों के साथ सदैव घुलमिलकर रहने की वजह से वह हिन्दी भी बहुत जल्दी और बहुत अच्छी तरह सीख लेगा।
किसी भी देश के भविष्य का भार युवा पीढ़ी के कंधों पर होता है । जापान और भारत, एशिया के इन दो महान प्रजातांत्रिक देशों की भविष्य-निर्माता यही नई पीढ़ी है । दोनों देशों के उज्ज्वल भविष्य के लिए सब से महत्त्वपूर्व कदम है युवाओं का आदान-प्रदान ।
संदर्भ-सूची
[1] बोधिसेना प्रथम भिक्षु जो भारत से जापान पहुँचे।
[2] जापान का मेइजि युग अारंभ अौर भारत में हिंदी के
पुरोधा कवि भारतेंदु लगभग समकालीन हैं।
[3] रास बिहारी बोस की समाधि तोक्यो के तमा समाधि-
स्थल पर बनी है। जो भारतीयों के लिए एक तीर्थ सा
है।
[4] जापान सरकार द्वारा दी जाने वाली सहायता राशि।
उल्लेखित (2016/08/20)=http://www.mofa.go.jp/policy/oda/
[5] दोनों वर्तमान में अपने-अपने देशों के राष्ट्राध्यक्ष हैं।