सोशल मीडिया और बाल मन

 GLOBALCULTURZ  Vol.III No.3 September-December 2022 ISSN:2582-6808 

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Article ID-2022-3-3-007 Pages: 547-550 Language: Hindi

                            Date of Receipt: 2022.11.29 Date of Review: 2022.12.14 Date of Pub: 2022.12.15

                                     Domain of Study: Humanities & Social Sciences Sub-Domain:  Journalism 

                                                                डॉ. पूनम यादव

असोसिएट प्रोफेसर

जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज

(दिल्ली विश्वविद्यालय)


                                                           Email: drpoonamjdm@gmail.com   

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 About the Author  

Dr. Poonam Yadav is an Associate Professor of Hindi at JDM College, University of Delhi, India.                                                    

Note in English

Social Media has a great impact on children. Though it has a positive role in shaping our mind and society, its negative side remains almost hidden and even less discussed in academia. Social media creates a virtual world through the Internet. In this virtual world, we use Facebook, Twitter, Instagram, etc. Undoubtedly, the media has also proved to be the protector of the interests of different age groups of the society. It is helping children to understand new issues, improving children's networking skills, improving their communication skills, motivating them to learn new things, but the bitter truth is that it is making radical changes in our roots. Children, an integral part of our society, have not remained untouched by its side effects; we are seeing more negative effects of social media on them than positive ones.


          

                                                                                                  

शोध सार

सोशल मीडिया इंटरनेट के जरिये एक आभासी दुनिया बनाता है इस आभासी दुनिया में हम फेसबुक, टविटर, इंस्टाग्राम, आदि का उपयोग करते  हैं निसंदेह मीडिया समाज के अलग-अलग  आयु, वर्गों के हितों का रक्षक भी सिद्ध हुआ है।  बच्चों में नए-नए  मुद्दों पर समझ बनाने में यह मदद कर रहा है बच्चों की नेटवर्किंग स्किल्स को बेहतर बना रहा है उनकी कम्युनिकेशन स्किल्स में सुधार ला रहा है नई -नई चीजें सीखने के लिए उन्हें मोटीवेट भी कर रहा है पर साथ ही यह भी कटु सत्य है कि इसने हमारी जड़ों में आमूल-चूल परिवर्तन कर रहा है। हमारे जीवन का अभिन्न अंग बच्चे इसके दुष्प्रभाव से अछूते नहीं रहे हैं उनपर सोशल मीडिया के सकारात्मक से अधिक नकारात्मक प्रभाव हमें दिखाई दे रहे हैं। 

 

बीजशब्द- सोशल मीडिया, हिन्दी पत्रकारिता, बाल मन, आभासी दुनिया

शोध आलेख


सोशल मीडिया में दो शब्द हैं - सोशल + मीडिया यानी कि सामाजिक माध्यम - सोशल मीडिया। सोशल मीडिया एक ऐसा जरिया है जो हमें समाज के सभी वर्गों से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।  तकनीक, हमेशा समाज को बेहतर बनाने में , समस्याओं का निदान ढूंढने में, विकल्प खोजने में मदद करती रही है।  सोशल मीडिया का आगमन इसी सोच के साथ हुआ था कि यदि हम कुछ कारणों से अपनों से अलग हैं, दूर हैं तो हमारी समस्याओं का हल हमने सोशल मीडिया में पाया।  लेकिन आज हम देखते हैं कि जिस तकनीक को , जिस माध्यम को हम दुनिया भर की जानकारियाँ आदान-प्रदान का माध्यम मान रहे हैं इसके जरिये बहुत सारे जरूरी काम भी कर रहे हैं वही माध्यम कहीं--कहीं हमें अनगिनत समस्याओं में भी डाल रहा है और इस सन्दर्भ में देखें तो बच्चे , वह इससे सबसे अधिक प्रभावित दिखायी पड़ते हैं। पहले पीढ़ियों का बदलाव कई सालों में दिखता था।  धीरे-धीरे यह अंतर कम हो रहा है अब यह बदलाव पंद्रह बीस वर्षों का रहकर और कम हो गया है।  आज पीढ़ियों का यह अंतर दो पीढ़ियों में नहीं, एक ही घर यानी की एक ही छत के नीचे रह रहे बच्चों के बीच भी देखा जा सकता है।  इस अंतर का सबसे बड़ा कारण सोशल मीडिया है।  आज सूचना  क्रांति ने हमारे बच्चों को समय से पहले ही मच्योर बना दिया है बच्चों का अब हम बच्चों जैसा व्यवहार नहीं पाते हैं। 


पिछले कुछ वर्षों में भारत में ही नहीं बल्कि विश्व में सोशल मीडिया की लोकप्रियता में बहुत वृद्धि हुई है। हर आयु वर्ग के लोग सोशल मीडिया से जुड़े हुए हैं।  घर-बाहर हर जगह लोगों को अपना अधिकांश समय सोशल मीडिया पर बिताते देख हमारे बच्चों में भी इसको लेकर एक खास तरह का रुझान रहता है वह भी अन्य लोगों की भांति अपने खाली समय में सोशल मीडिया पर जाना चाहते हैं "पिछली पांच शताब्दियों में ज्यों-ज्यों छापने की कला तथा अन्य बहुजन माध्यमों में तकनीकी विकास होते गए, त्यों-त्यों इन माध्यमों का इस्तेमाल करने वाले लोगों में अपने को आजादी से प्रकट करने की अभिलाषा भी बढ़ती गई।" यानी की बच्चों में भी सोशल मीडिया को लेकर एक उत्सुकता बहुत तेजी से बढ़ रही है और इसका उन पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है जो की साफ-साफ नजर भी रहा है।  अपने आस-पास के लोगों की देखा-देखी वे भी हर समय सोशल मीडिया पर क्या-क्या चल रहा है उस में रूचि लेते नजर आते हैं एक खास उम्र तक बच्चों की पहुंच से बाहर है सोशल मीडिया। लेकिन अपने घर के सदस्यों के अकाउंट के जरिये वे भी सोशल मीडिया पर पहुँच जाते हैं। घर बाहर हर जगह बच्चे लोगों को सोशल मीडिया से जुड़े पाते हैं इसीलिए बड़े भी उन्हें अधिक मना नहीं कर पाते हैं परिणामस्वरूप बच्चों को भी सोशल साइट्स पर रहने की आदत पड़ती जा रही है और वे अपनी रोजमर्रा के जीवन की चीजों को भी जानने के लिए, सोशल मीडिया पर निर्भर होते जा रहे हैं।  सूचनाओं को प्राप्त करने , जानकारी एकत्रित करने के लिए बच्चों की उत्सुकता बहुत बढ़ी है, इसके लिए वे अधिक से अधिक निर्भर नजर रहे हैं इन सोशल साइट्स पर।  जहाँ पहले बच्चा खाली समय मिलने पर कॉमिक्स या अन्य मनोरंजन प्रधान किताबें पढता था, कोई खेल खेलता था।  अब जैसे ही उसे समय मिलता है वह घर के बड़ों की तरह तुरंत हाथ में फ़ोन, टैब, लैपटॉप लेकर बैठ जाता है।  कहने का अभिप्राय यह है कि सोशल साइट्स से जानकारी एकत्रित करने, जिस सामान की आवश्यकता नहीं है तो भी उसके बारे में जानने के लिए घंटों इंटरनेट पर बिता रहा है। 


मनोरंजन का यह माध्यम बच्चों को किताबों से उनकी दूरी बढ़ा रहा है निसंदेह बच्चों का सोशल मीडिया पर यूं ही समय बिताना उन्हें किताबों से, चीजों को पढ़ कर उनको पूरे परिदृश्य में जानना, समझना क्या होता है? इसे भुलाये चला जा रहा है यह सब हम सब की आंखों के सामने हो रहा है। यह बहुत गंभीर बात है कि हमारे बच्चे बाल पुस्तकों से , रचनात्मकता से कोसों दूर होते जा रहे हैं। विशेषकर बच्चों के लिए निकलने वाली साहित्य (पत्रिकाओं ) का इतिहास बहुत स्वर्णिम रहा है। चंपक , नंदन, बाल भारती, चंदामामा, नन्हीं कलम जैसी बाल पत्रिकाओं ने हमारे बच्चों की रचना-शीलता और कल्पनाशीलता को जगाने और बढ़ाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।  बाल साहित्य साथ ही दादा-दादी की कहानियाँ, जो हमारे बच्चों ने प्राय : रात को सोने से पहले घर-परिवार के बड़ों से सुनी हैं उनसे भी बच्चे उचित-अनुचित, झूठ-सच, ईमानदारी, परिश्रम, सामूहिकता, सबका हित , पारिवारिक-सामाजिक आदर्श सीखता था।  बड़ों से रोचक कहानियाँ, किस्से सुनना बच्चों के लिए मनोरंजन ही नहीं था इस मनोरंजन की चाशनी में मानव-मूल्यों की शिक्षा के साथ-साथ उनकी कल्पनाशीलता को उड़ान भी मिलती थी। आप बड़ों के साथ जब बच्चों को देखते हैं तो महसूस होता है कि वह सब जैसे बीते ज़माने की बातें हो गयी हैं। एक जगह बैठे होते हुए भी माता-पिता अपने अपने फ़ोन पर बीजी होते हैं उनको देख कर बच्चा भी हाथ में फ़ोन ले कर बैठ जाता है। निसंदेह यह समय स्मार्टफोन और माईक्रोब्लॉग्गिंग का है हमें जिस भी विषय पर जानना है बस एक click में उस विषय पर हमारे सामने ढेर सारी सामग्री उपलब्ध हो जाती है इसीलिए बड़ों के साथ -साथ बच्चों के द्वारा भी सबसे अधिक उपयोग में आने वाला उपकरण बन गया है सोशल मीडिया। लेकिन सोशल मीडिया पर बच्चे इतने व्यस्त रहने लगे है कि शारीरिक गतिविधियां लगातार कम हो रही हैं।  क्योंकि बच्चों को ऑनलाइन गेम खेलना अधिक रुचिकर लगने लगा है। सोशल  मीडिया के बढ़ते प्रयोग से मासूम बच्चों के दिलो-दिमाग पर भी बहुत प्रभाव पड़ रहा है  और हमारे मासूम बच्चे कई तरह की व्यावहारिक और शारीरिक, मानसिक समस्याओं से जूझ रहे हैं। शारीरिक गतिविधियां कम होने और ऑनस्क्रीन अधिक रहने से उनमें सामाजिक गुणों का विकास अवरुद्ध हो रहा है। अनेक शारीरिक समस्याओं से भी अनेक बच्चे उभर नहीं पा रहे हैं।  


वास्तव में सोशल साइट्स एक अलग तरह की संस्कृति रच रहे हैं बच्चों को 'वॉर गेम्स ' विशेष रूप से प्रभावित कर रहे हैं।  इन गेम्स के माध्यम से बच्चे सीख रहे हैं कि कैसे सब कुछ निस्तेनाबूत कर सकते हैं। और ऐसा विनाश उनमें सुख की, गर्व की अनुभूति कराते हैं। यह बहुत चिंतनीय है। बच्चा जैसी जिद , हिंसा, क्रूरता देख रहा है वह उसे कितना संवेदनशील बना रहने देगी इसके दूरगामी परिणाम बहुत भयंकर होंगे।  ऑनलाइन गेमिंग, सोशल साइट्स के प्रयोग का असर उनके आचार, व्यवहार और जीवन-शैली पर भी दिखाई देने लगा है।सोशल मीडिया की साइट्स के प्रति बढ़ते रुझान को कम करने के प्रयास करने होंगे, किताबों और थिएटर से बढ़ती दूरी को रोकना जरूरी है शहर हो या गांव में भी लोक-रंगकर्म का प्रभाव ख़त्म होने की कगार पर है ऐसी विकत स्थिति में हमारे बच्चों को संस्कारित करने का दायित्व बहुत बड़ा है। यहाँ प्रोफेसर कुमुद शर्मा की बात रखना सही जान पड़ता है, वह लिखती हैं कि "भारतीय मीडिया के सम्मुख भूमंडलीकरण की समूची प्रक्रिया से उभरनेवाली नई-नई दिशाएँ चुनौती बन रही हैं।  भूमंडलीय मीडिया से उपजा व्यावसायिक साम्राज्यवाद, उभरती वैचारिक शून्यता और संवेदनहीन तथा सूचना के 'सुपर हाईवे' से तैयार सूचनाओं का बेतरतीब भंडार तरह-तरह की चुनौतियाँ खड़ी कर रहा है।"


बच्चों की स्वाभाविक सी बातों का भी बाजारीकरण किया जा सकता है। सोशल मीडिया इसका अच्छा उदहारण है। बचपन में बच्चों में उन मूल्यों की, संस्कारों की नींव पड़ जाती थी जो उनके भविष्य को बहुत सुखद बना सकते थे।  सदभाव, प्यार, भाईचारा, हर स्थिति-परिस्थिति का मिल जुलकर सामना करना, कभी निराश होना जैसे मूल्य जो कि किसी भी बेहतर समाज के निर्माण के लिए बहुत आवश्यकता होती है इन सब संस्कारों का स्थान सोशल साइट्स ने लिया है।  जिसकी पूरी संरचना में संस्कारों और मूल्यों के लिए कोई स्थान है ही नहीं। सोशल मीडिया बच्चे के समय की बर्बादी का बहुत बढ़िया जरिया बन गया है। दरअसल एक बार जब बच्चे के हाथों में अपने मोबाइल थमाते हैं तो अपने में डूब कर तो धीरे-धीरे वह इसके आदी हो जाते हैं फिर वह अपने आप इस पर समय लगाते हैं और अपने कीमती समय को बर्बाद करते हैं। 


बच्चों में सोशल साइट्स अकेलापन भी बढ़ा रही हैं बच्चा सब के बीच होते हुए भी अकेला है क्योंकि वह सबके साथ होते हुए भी किसी के साथ नहीं होते।  यहाँ तक कि पेरेंट्स उन्हें अकेला (मोबाइल ) के साथ छोड़कर अपने में व्यस्त हो जाते हैं जिससे उनमें अकेलापन तेजी से पनप रहा है।  वह अकेले रहने के मौके तलाशते दिखते हैं। हम साफ-साफ देख पा रहे हैं कि यह मंच सामाजिक स्थिति को खतरे में डाल रहा है।  बच्चे की सामाजिक स्थिति को खोने का मतलब है कि बच्चों को अवसाद से ग्रस्त कर सकता है। बच्चे लाइक, पोस्ट, शेयर, देखने में अपना समय लगा रहा है वह यह नहीं देखता कि उनका बहुत समय बर्बाद हो रहा है अपने लिखे पोस्ट पर कम लाइक देख कर, अच्छे कमैंट्स आने पर दुखी होता है। यह वर्चुअल दुनिया उसे इस असली दुनिया से दूर कर रही है। उस डिजिटल दुनिया में उसके पास अनगिनत दोस्त हैं लेकिन जब वह अपने इर्द-गिर्द देखता है तो एक भी दोस्त नजर नहीं आता। शारीरिक और मानसिक बीमारी बढ़ रही हैं बच्चों में।  बच्चों में अवसाद, नींद की कमी, एंजाइटी की समस्याएं रही हैं शुगर, बीपी से भी ग्रस्त हो रहे हैं बच्चे। 


बच्चों में भी दिखावे की प्रवृति का तेजी से विस्तार हो रहा है।  सोशल साइट्स पर बच्चों का  अपना अकाउंट होना उनके लिए स्टेटस सिंबल बन गया है हर बच्चा यह चाह रखता है कि उसके पास अपना फ़ोन हो।  अपने में वह यह हीन भावना नहीं आने देना चाहते कि वह अन्य बच्चों से पिछड़े हुए हैं।  बच्चों में यह गलत आदत भी पनप रही है वह अपनी असली पहचान छिपा कर झूठ दिखा रहे हैं फेक आई डी बनाते हैं यह प्रवृति बहुत घातक है। फेक प्रोफाइल बनाना चिंतनीय है।  यह एक कदम उनकी आपराधिक प्रवृति को और बढ़ाता है।  बच्चे उम्र से पहले इन साइट्स पर वह सब देखते हैं जिसके लिए अभी सही नहीं है हर सोशल मीडिया साइट्स पर ऐसा कंटेंट आसानी से उपलब्ध है, जो बच्चों के लिए नुकसानदेह है जो कि उनके बौद्धिक विकास में बहुत बाधा बन रहा है यह सच है की वर्तमान समय प्राइवेटाइजेशन का है जिसका लक्ष्य मुनाफा और केवल मुनाफा होता है यह हमारे चारों और फायदे नुकसान की संस्कृति फैला रहा है।  और इस जाल में यदि कोई सबसे अधिक फ़से हैं तो वह बच्चे ही हैं उनके नाजुक कंधों पर एक और तो अभिभावकों की महत्वाकांक्षा, दूसरी ओर बच्चे स्वयं बाजार के जाल में मोबाइल , कंप्यूटर , डब्ल्यू डब्ल्यू एफ , वीडियो गेम आदि में अपनी हंसी खुशी अपना बचपन, अपनी दोस्ती साथ ही आत्मीय रिश्तों को खोता चला जा रहा है। " सुबह उठते ही किताबी बस्तों का बोझ लादे देर रात तक इसी बाजार का एक अंग बनने की 'हॉर्स रेसिंग ' में दौड़ रहे हैं, हांफ रहे हैं। नतीजा - एक आक्रामक, आत्मकेंद्रित, स्वार्थी पीढ़ी तैयार हो रही है जो अपने आस-पास के परिवेश से बेखबर -कल्चर में डूबी हुई है। "


आपके बच्चे AK-47 , हल्क, शिनचैन को तो जानते हैं लेकिन तेनालीराम कौन थे, पंचतंत्र की कहानियाँ , अकबर बीरबल की प्रसिद्ध कहानियाँ , चाचा चौधरी जैसे उनके लिए किसी और गृह की बात हैं, प्राणी हैं।  हमने जो अपने बचपन में अनेक प्रेरक कहानियाँ पढ़ी हैं , याद करें तो हम पाते हैं कि वह कहानियाँ हमें इमोशनल स्ट्रेंथ देती हैंलेकिन अब मानसिक समस्याओं के साथ-साथ स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी बच्चों में लगातार बढ़ रही हैं मधुमेह , बी पी , मोटापा , जैसी बीमारियों से बच्चे ग्रस्त हो रहे हैं ऑनलाइन उनके पास ढेरों दोस्त हैं लेकिन रियल लाइफ में ऐसा दिखायी नहीं देता यहाँ तक की उनके एक्सप्रेशंस , कल्पनाशीलता , विचारों में भी हमें कम ही नवीनता देखने को  मिलती है वह सब कुछ देखकर कॉपी करना सीख रहा है निसंदेह बिना कहीं आये गये दोस्तों से बात करने की सुविधा मिल रही है अपनी फोटो , पोस्ट पर कमेंट देखने , पाने की ललक, अपनी बात रखने की सुविधा बच्चों के लिए भी सोशल मीडिया के आकर्षण को बढ़ा रहे हैं इसीलिए बच्चे भी इसके आदी होते जा रहे हैं। वह अपना बेहतरीन सबको दिखाकर आकर्षण का केंद्र बनना चाहते हैं क्षणिक खुशी पाने की लालसा में कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाते हैं 


बचपन में सुनी परी-कथाओं, लोक-कथाओं , नीति-कथाओं , ऐतिहासिक और पौराणिक कथाओं के पात्रों को देखने, सुनने से हम कहीं कहीं मानसिक रूप से मजबूत हो रहे होते थे।  लेकिन अब के शिनचैन, बैटमैन, हल्क ने बच्चों के व्यवहार, विचार पहनावे में बहुत तेजी से बदलाव किया है। बच्चे के मानसिकता और बच्चे की जीवन शैली को पूरी तरह बदल कर रख दिया है सोशल मीडिया ने। इसमें शंका नहीं कि देश को तकनीक की जरुरत है, पर उसके साथ ही यह भी जरूरी है कि उस तकनीक का शेष समाज के विकास से निकट का रिश्ता हो। 


बच्चे राष्ट्र के वर्तमान और भविष्य के लिए अनमोल होते हैं किसी राष्ट्र के भविष्य को यदि संवारना है, संभालना है तो उसमे बच्चों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है अत: बच्चों का बचपन कल्पनाशीलता, मासूमियत सबको बचाने का प्रयास होना चाहिए।  जरूरत है व्यावहारिक बल साहित्य लिखे जाने की जो बच्चों को इस कठिन समय में शीतलता दे सके और सही राह दिखा सके।  ऐसी जटिल परिस्थितियों में बाल साहित्यकारों की जिम्मेदारी है की वह सैद्धांतिक आधार पर रचनाएँ लिखें बल्कि बहुत ही व्यावहारिक आधार पर बाल साहित्य की रचना करें। जो समस्याएं हैं उन सभी चुनौतियों को देखें, समझें और फिर बाल साहित्य की रचना करने की आवश्यकता है तभी संभव है की हम एक अच्छे समाज, राष्ट्र  का निर्माण करने का सपना साकार कर सकते हैं। 





सन्दर्भ एवं टिप्पणियाँ

  1. संपादक - अनिल चमड़िया, जन मीडिया, वर्ष 2016,अंक 5, प्रकाशन सी-2 , बादली एक्सटेंशन, दिल्ली-42 , पेज न० 27  
  2. कुमुद शर्मा- भूमंडलीकरण और मीडिया, संस्करण 2007 , ग्रन्थ अकादमी , नई दिल्ली 
  3. संपादक - पंकज बिष्ट, समयांतर, वर्ष अगस्त 2009, पेज न०
  4. लेख - पूरन चंद्र जोशी, कुछ चिंताएं, कुछ प्रश्न, कुछ विचार, संपादक - राजेंद्र यादव, हंस, अक्टूबर 1997, अक्षर प्रकाशन, दरियागंज, दिल्ली
  5. मीडिया और साहित्य- अंत: सम्बन्ध संपादक - रतनकुमार पाण्डेय, अनंग प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण -2014 
  6. ऑनलाइन पत्रकारिता - हर्षदेव, भारतीय पुस्तक परिषद्, नई दिल्ली पेज 9
  7. पुष्पा बरनवाल,बाल रंगमंच : कुछ मुददे-कुछ विमर्श, आजकल संपादक - राकेशरेणु नवंबर 2015, अंक 7 , आजकल प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली, पेज