गणिका विमर्श

Title: गणिका विमर्श
Article-ID 202004007/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.1 Jan-April 2020 Language:Hindi                                                
Domain of Study: Humanities & Social Sciences
                                                                      Sub-Domain: Cultural Studies
सत्य प्रिय पांडेय (डॉ०)
असिस्टेंट प्रोफेसर, श्यामलाल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, भारत
[E-mail: info@globalculturz.org]   [Mob:+91-87504833224]                                                                                                                                            


Summary in English:

Indian female entertainers known as Ganika were an essential part of Indian courts. The auspicious presence, during crowning ceremony of princes and to encourage the departing soldiers, reflects their importance in the societyThe female dancers were the prime source of sublime energy in male-dominated society. Their references are documented in mythological and historical scriptures of India. Different literary works have depicted the importance Ganikas in social life. Needless to say, that a very similar tradition in Japanese culture as Geisha is also present. Prof. S.P.Pandey in his scholarly article-GANIKA VIMARSH-has discussed the many dimensions of this common tradition of India and Japan. Though he has elucidated the Indian context only in this research.
  
प्राचीन साहित्य को देखकर यह लगता है कि वेश्याओं की स्थिति आज की अपेक्षा काफी अच्छी थी , उन्हें राज्याश्रय प्राप्त था , राज्य में वेश्याओं को लिए समुचित व्यवस्था थी | राजा के राज्याभिषेक के अवसर पर अथवा सेना के प्रयाण के अवसर पर वेश्याओं को सम्मुख किया जाता था , इनका दर्शन शुभ माना जाता  था |
वाल्मीकि रामायण में लंका विजयोपरांत  राम के राज्याभिषेक के अवसर पर गणिकाओं की उपस्थिति वर्णित है , जिसके अनुसार – स्तुति और पुराणों के जानकार सूत , समस्त वैतालिक ( भांट) बाजे बजाने में कुशल सब लोग , सभी गणिकाएँ , राजरानियाँ , मंत्रीगण, सेनाएँ, सैनिकों की स्त्रियाँ, ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा व्यवसायी – संघ के मुखियालोग श्रीरामचंद्र जी के मुखचन्द्रका दर्शन करनेके लिए नगर से बाहर चलें | ( वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड , 127 / 3 – 4 |


युद्ध में प्रोत्साहित करने के लिए भी गणिकाओं को  राजा के साथ भेजा जाता था यथा – रूप से आजीविका चलाने और सरस वचन बोलनेवाली स्त्रियाँ तथा महाधनी एवं विक्रययोग्य द्रव्यों का प्रसारण करने में कुशल वैश्य राजकुमार श्रीरामकी सेनाओं को सुशोभित करें ( वाल्मीकि रामायण , अयोद्ध्याकांड , 36/ 3 |  राजा के विजय प्राप्त करने के बाद वेश्याओं , गणिकाओं को उनके स्वागत के लिए भेजा जाता था , महाभारत में विराट को युद्ध में विजय दिलाने के उपरान्त विराट द्वारा नगर में यह घोषणा की गई कि – सब प्रकार के बाजे बजाये जायं और वेश्याएँ भी सज – धजकर तैयार रहें |’ 1  और भी – मेरे नगर की सड़कों को पताकाओं से अलंकृत किया जाय | फूलों तथा नाना प्रकार के उपहारों से सब देवताओं की पूजा होनी चाहिए | कुमार , मुख्य – मुख्य योद्धा , श्रृंगार से सुशोभित वारांगनाएं और सब प्रकार के बाजे – गाजे मेरे पुत्र की अगवानी में भेजे जाएँ | 2 गणिकाओं की स्थिति सामान्य स्त्री से अच्छी थी , कई संस्कृत नाटकों में गणिकाएँ संस्कृत बोलती हैं , न कि स्त्री और शूद्रों की तरह प्राकृत | हितोपदेश तो कहता है कि – अत्यंत दुष्ट कुलबधू से अच्छी है , वेश्या | दुष्ट बैल से अच्छा है कि शाला सूनी ही रहे | अविवेकी राजा के राज्य से अच्छा है जंगल का वास और अधम की संगत से अच्छा है , प्राण का त्याग | ( हितोपदेश – 1- 129 ) संस्कृत साहित्य शास्त्र में गणिका प्रसंग पर काफी विस्तृत विवेचन हुआ है और गणिका से सावधान रहने की हिदायत दी गई है , यह अपने आपमें इस बात का प्रमाण है कि उसमें एक चुम्बकीय शक्ति थी जिससे कोई भी आकर्षित होता चला आता था , चाहे वह राजा ही क्यों न हों | कहा भी गया है –
  वेश्या का ह्रदय चुम्बक की तरह होता जो कि विषयासक्त मनुष्यों को अपनी तरफ उसी तरह खींच लेता है जैसे चुम्बक लोहे को खींच लेता है | ( कुट्टिनीमतं , दामोदरगुप्त पृष्ठ- 319) यों तो ये उच्छिष्ट समझी जाती थी , अब सवाल यह है कि समाज ने इसे बनाया ही क्यों ? गणिका को समाज ने ही निर्मित किया | यों इसके लिए आजकल एक मुहाबरा चलता है कि – ‘गन्दा है पर धंधा है’ निःसंदेह यह व्यवसाय ही था और राज्य को इससे राजस्व आता था | अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने इसकी समुचित व्यवस्था की है जिसके अनुसार वह राजा की सेवा में तत्पर रहे और उसको इस कार्य में गणिकाध्यक्ष नियुक्त करे | ‘ राजा की परिचर्या करना ही गणिका कुटुम्ब का कार्य है , वह कार्य आधा आधा बांटकर प्रतिगणिका की नियुक्ति की जाय | 3   उसके रूप सौन्दर्य के आधार पर उसकी श्रेणी बनायी गई थी और तद्नुरूप उन्हें राज्य की तरफ से बेतन दिया जाता था मसलन ‘ सौभाग्य और अलंकार की अधिकता के अनुसार ही एक हजार पण देने के क्रम से वारांगनाओं के तीन विभाग किये जावें, - कनिष्ठ , माध्यम , और उत्तम | अर्थात जो वारांगना ( वेश्या = गणिका ) सौन्दर्य आदि सजावट में सबसे कम हो , वह कनिष्ठ समझी जाए और उसे एक हज़ार पण दिया जावे ,  इसी प्रकार जो सौन्दर्य आदि में उससे अधिक हो वह मध्यम, उसको दो हज़ार पण दिया जावे और जो सबसे अधिक हो वह उत्तम और उसको तीन हज़ार पण बेतन दिया जावे | 4  गणिकाएँ आमोद प्रमोद का साधन थीं ( यों तो समूची स्त्री जाति ही आमोद प्रमोद का साधन मानी जाती रही है ) यह कहा गया है कि ऐसी पत्नी जो  गणिका की तरह सुरत व्यापार में सन्नद्ध हो और अपने पति को संतुष्ट करे तो वह अपने पति की प्राण प्यारी होती है , श्लोक देखें – 
             कोपे दासी रतौ वेश्या , भोजने जननी समा |
    मंत्रिणी विपदः काले , सा भार्या प्राणवल्लभा || 5  
और शास्त्रों में तो बार – बार यह आगाह किया गया है कि सावधान – वेश्या से अनुराग मत करना वह अनुराग की वस्तु नहीं है , बल्कि क्रीड़ा की वस्तु है | और यदि वह अनुराग का आडंबर करे तो विश्वास मत करना क्यों वेश्या अनुराग कर ही नहीं सकती , अनुराग करना उसके व्यवसाय के विरुद्ध है | शूद्रक के प्रसिद्ध नाटक मृच्छकटिकम में कहा गया है कि – समुद्र की लहर की भांति स्वभाव वाली और संध्या के मेंघों की अस्थाई प्रीति वाली वेश्याएँ तो धन उड़ाना चाहती हैं | जैसे महावर लगाने बाद उसकी रुई निचोड़कर फेंक दी जाती है उसी प्रकार वे मनुष्यों का धन हरण कर उन्हें छोड़ देती हैं | 6   यह कितना कठिन है कि देह को ह्रदय से विलग करके यंत्रवत सुरत व्यापार में तल्लीन हो जाना | यों इस बात के एकाध अपवाद भी हैं जिसमें वेश्या ने किसी पुरुष प्रेम किया , निर्धन व्यक्ति से न कि धनवान से ; इसका सबसे अच्छा उदाहरण शूद्रक का मृच्छकटिकम है जिसमें बसंतसेना दरिद्र ब्राह्मण चारुदत्त से प्रेम करती है और उसका मानना है कि ऐसी वेश्या घृणा का पात्र नहीं मानी जाती क्योंकि यह अकल्पनीय है कि वेश्या किसी निर्धन से स्नेह करे , वे तो धन से ही स्नेह करती हैं | यों ही नहीं एक गणिकाध्यक्ष गणिका को उपदेश करते हुए कहती है कि – सुजनों यानी धनवानों के शव का स्पर्श किया जा सकता है लेकिन निर्धन व्यक्ति का नहीं | 7  और भी – निर्धन पुरुष को वेश्या , पदच्युत राजा को प्रजा , फल से हीन वृक्षों को पक्षी और भोजन के बाद अतिथि गृहस्थ के घर को छोड़ देते हैं | 8  इसलिए बुद्धिमान पुरुषों को चाहिए कि वे वेश्या को उसी तरह त्याग दें जैसे श्मशान के फूल त्याग  दिए जाते हैं | 9  कथासरित्सागर में भी ऐसी कथाएं आई हैं जिनमें यह दिखाया गया है कि वेश्या के लिए धन ही सर्वस्व है | एक सन्दर्भ देखें जिसमें कुट्टिनी मकरदंष्ट्रा अपनी पुत्री से कहती है – बेटी तुम इस दरिद्र से क्या प्रेम कर रही हो | अच्छे व्यक्ति मुर्दे को भी छू लेते हैं ,वेश्या निर्धन को नहीं छू सकती |       कहाँ सच्चा प्रेम और कहाँ वेश्या वृत्ति , क्या तुम वेश्यायों के सिद्धांत को भूल गई | बेटी , स्नेह करने वाली वेश्या संध्या के समान अधिक देर तक नहीं चमक सकती | वेश्या को तो केवल धन के लिए अभिनेत्री के समान प्रेम दिखलाना चाहिए | ( कथासरित्सागर , लोह्जंग की कथा , द्वितीय लम्बक ) यद्यपि वे त्याज्य भले रहीं हों लेकिन ,वेश्याओं का प्रभाव हर काल में में रहा है | गुप्तकाल में तो बाकायदा नगरबधुयों की व्यवस्था थी , वैशाली की नगरबधू ऐसी ही एक वेश्या थी जिसके पास राजा बिम्बिसार जाता था | गुप्तकाल में श्रृंगार हाट की व्यवस्था थी और इसी पर आधारित संस्कृत में चार –चार नाटकों की रचना हुई है जिन्हें चतुर्भाणी नाम से वासुदेवशरण अग्रवाल ने संकलित एवं संपादित किया है  जिसमें क्रमशः पद्मप्राभृतकम , धूर्तविटसंवाद , उभयाभिसारिका, पाद्ताडितकम जैसे नाटिकाएँ हैं |  चतुर्भाणी की भूमिका में वासुदेवशरण अग्रवाल लिखते हैं – चतुर्भाणी के लेखकों का मुख्य उद्देश्य उस समय के समाज का जीता जागता चित्र सामने लाना और ढोंग का भंडाफोड़ करना था | भांणों के पढ़ने से पता चलता है कि राजा , राजकुमार , ब्राह्मण , बड़े –बड़े सरकारी कर्मचारी , व्यापारी , कवि और यहाँ तक कि व्याकरणाचार्य , बौद्ध भिक्षु इत्त्यादि भी वेश में जाने से नहीं हिचकिचाते थे | वेश्यायों और उनकी माताओं द्वारा कामियों को दुहने की तरकीबें , कामुकों के नाज़ और नखरे , मान , लीला , हाव भाव इत्त्यादि का भी इन भांणों में बड़ा चुस्त वर्णन हुआ है साथ ही वेश्याओं के प्रकार और उनके लक्षणों की भी चर्चा हुई है मसलन वेश्याओं की श्रेणियां होती है – उत्तमा , मध्यमा और अधमा | अधमा दान से अथवा अकारण ही प्रेम करती है , मध्यमा दान अथवा जवानी से प्रसन्न होती है और उत्तमा दानी , सुन्दर और अनुकूल कामी की सेवा करती है | इसमें विट और विश्वलक के संवाद के माध्यम से वेश्याओं पर बड़ी ही महत्पूर्ण चर्चा की गई है मसलन विस्वलक के यह पूछने पर कि क्या वेश्या को दिया गया धन व्यर्थ जाता है , विट इसका उत्तर देते हुए कहता है कि धन का उपयोग दान , उपभोग और गाड़ने में होता है |  इसमें दान और उपभोग ही ठीक है | अर्थ सुख प्राप्ति के लिए है और वह सुख वेश्या से मिलता है | कला इत्यादि और कामशास्त्र का ज्ञान होने से मनुष्य वेश में क्यों न जाए ? ............ विट ने कहा कि भोग की श्रेष्ठता से वेश्याएँ श्रेष्ठ हैं | सुख इसी जन्म में मिलता है , दूसरे जन्म में उसका मिलना संदेहजनक है , फिर उसमें क्या मजा ? इसके बाद अनेक प्रकार से   वेश्याओं के साथ मिलने वाले सुखों का विट उल्लेख करता है जैसे – भरे हुए गोल उरुओं और नितम्बों से युक्त तथा उघडे हुए आशुक और बंधी हुई मेखला से युक्त वेश्या के जघन प्रदेश का स्पर्श जिसे अच्छा लगता है वह उसके लिए जान भी दे सकता है , धन की तो बात ही क्या ? सब रसों में सुरापान अत्यंत निन्दित है , पर वेश्या के साथ उसका भी उपयोग मजा देता है |  10  वेश्या और कायस्थ की तुलना करते हुए वह कहता है , ‘अरे वेश्या और लिपिकर्ता दोनों छिद्र देखकर प्रहार करने में एक समान हैं | उनमें लिपिकार भी वेश्या की तरह मुट्ठी गरम करके रहता है पर कुछ देर आराम से बैठने देता है पर वेश्या वात रोग की तरह बहुत खर्च करा देती है और चैन से बैठने भी नहीं देती है |’ यहाँ एक बात और बड़ी महत्वपूर्ण है जिसका उल्लेख किया गया है वह है कुलबधू और वेश्याओं में तुलना | इसकी तुलना में ही मानो यह उत्तर निहित है कि लोग वेश्याओं के पास क्यों जाते होंगे ? मसलन वह कहता है – अनुकूलता कुलबधू में एक तरह की होती है | कुलबधू यदि सीधी है तो पहले तो वह जो प्रिय बोलती है वह कुसमय में बोलती है | फिर वह पति को अतीव प्रिय मानकर विप्रिय भी कह देती है | यही बात सर्वत्र देखने में आती है | काम एक इच्छा विशेष है , और प्रार्थना भी  इच्छा है | न मिलने से प्रार्थना पैदा होती है | वह प्रार्थना वेश्या के वश में आ जाने पर भी ईर्ष्या से भरि होती है , क्योंकि वेश्या में सबका हिस्सा है | ईर्ष्या से लोभ होता है इसलिए वेश्या के प्रति काम हटता नहीं | काम राग का मूल है  | और भी -  वेश्या के जघन रुपी रथ पर चढ़ा ऐसा कौन चेतन प्राणी है जो कुल्नारी की परवाह करे ? कोई ऐसा पुरुष नहीं जो रथ को छोड़कर बैलगाड़ी की सवारी चाहेगा | कुलबधू की एकरसता और विरसता को अभिव्यक्ति देता एक श्लोक क्षेमेन्द्र की रचना समय मातृका में आया है जिसके अनुसार – नित्य ही बच्चा पैदा करने से विनष्ट यौवनवाली ,वेशप्रसाधन से रहित अर्थात वेश को आकर्षक बनाने की कला से अनभिज्ञ , मदहीन ,सामाजिकों की गोष्ठी में होनेवाले विलास की रसकेलि का तिरस्कार करनेवाली , कलह की मूल , गृहिणियों में भला पुरुषों की कैसे कामरूचि होती है ? 11  यही पर और भी कहा गया है कि ‘ पुरुषों का गृहिणी के साथ संगम जन्म से ही जघन्य एवं एक दिन तक अर्थात स्वल्पकाल तक ही रमणीय है | तो भी ( मोहवश ) पशुओं के सामान अविचारी पुरुषवर्ग विवाह के विषय में आग्रह करते हैं |’ 12  वेश्या तो चाहती ही है कि लोग अपनी कुलबधुओं को छोड़कर उसके पास आयें , यों भी लोक में कहा जाता है कि रांड चाहती है कि सारी विवाहिताएँ  रांड हो जाएँ | वेश्या तो चिर विधवा है , उसके भाग्य में विवाह कहाँ ?  बहरहाल वह आगे कहता है – ‘जो वेश्या को छोड़कर स्वर्ग के दिव्य कामोपभोग की इच्छा करता है , मैं उसे ठगा हुआ मानता हूँ |’ 13  वेश्या से  जो आनंद मिलता है , वह प्रत्त्यक्ष है और सद्द्यः प्राप्त होता है , पुनर्जन्म किसने देखा है , यह घोर भौतिकवादी व्याख्या है | चार्वाक दर्शन की तरह यह दैहिक भोग को बल देती है और वेश्यागमन इसी भोग की तुष्टि करता है | इस भोग के समक्ष बड़े –बड़े नतमस्तक हो गए | भर्तृहरि ने अपने श्रृंगार शतक में वेश्या की भर्त्सना और प्रशंसा करते हुए लिखा कि – यह वेश्या सौन्दर्य रूप ईंधन से बढ़ाई गई कामाग्नि की ज्वाला ही है जिसमें कामुक अपने यौवन और धन की आहुतियाँ दिया करते हैं | 14  और भी कहा कि – वेश्या का अधर पल्लव ( ओठ ) यद्यपि अतीव मनोहर है ; किन्तु वह जासूस , सिपाही , चोर , नट , दास ,नीच और जारों के थूकने का ठीकरा है , इसलिए कौन कुलीन पुरुष उसे चूमना चाहेगा ? 15 कामसूत्र में वेश्याओं का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है , यहाँ वेश्याओं के कई भेदोपभेद दिए गए हैं मसलन , कुम्भदासी , परिचारिका , कुलटा , नटी, शिल्पवारिका , प्रकाश विनष्टा , रूपजीवा , गणिका , वेश्या आदि |  16  रूपजीवा का तो अर्थ ही है ऐसी स्त्री जो अपने रूप से अपनी आजीविका चलाती हो | अर्थशास्त्र में रूपजीवा शब्द का व्यवहार साधारण वेश्या और विशेष तरह की वेश्या के लिए किया गया है | कामसूत्र में इस बात का  उल्लेख हुआ है कि गणिकाएँ चौंसठ कलाओं में  कलाओं में पारंगत होती थीं क्योंकि न जाने कौन सी कला की जरूरत पड़ जाए पुरुष से धन ऐंठने के लिए | कामसूत्र तो यह भी कहता है कि वेश्याओं को किन पुरुषों से सम्बन्ध बनाना चाहिए और किनसे नहीं मसलन ‘ क्षय से पीड़ित , रोगी , कृमि रोग से पीड़ित , दुर्गंधित मुखवाला , अपनी स्त्री को प्यार करने वाला , कंजूस , बड़ों से त्यागा हुआ , चोर , दम्भी ,वशीकरण इत्यादि में विश्वास करने वाला , मान, अपमान की परवाह न करने वाला और लज्जालू इनके साथ वेश्या को प्रेम करने की मनाही थी |’ 17 यानी उस सामाज में वेश्या के स्वास्थ्य को लेकर इतनी चिंता थी कि उसे रुग्ण और अस्वस्थ पुरुष से दूर रहने की हिदायत दी गई थी आज जबकि समाज का इतना विकास हो गया है फिर भी वेश्याओं की सुध लेने वाला कोई नहीं | वे तथाकथित रेड लाइट इलाके में नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं , उन्हें तरह – तरह के यौनजन्य रोग हो जाते हैं और वे निरंतर मृत्यु  के मुख में  जाने को अग्रसर हैं |  इसमें कहा गया है कि अपनी पत्नी को प्रेम करने करने वाले से भी वेश्या सम्बन्ध न बनाए यानीकि वेश्या के पास प्रायः ऐसे पुरुष आते हैं जो अपनी पत्नी से प्रेम नहीं करते थे अथवा वेश्या के लिहाज से देखें तो ऐसा पुरुष उसे सुरत में पूर्ण आनंद नहीं देगा | इस आनंद का कारण एक तो यह है कि वह कुलबधू की सुरत में लज्जा नहीं दिखाती, वह अपने तन को परोस देती है सुरत के लिए और यदि गणिका लज्जालु होगी तो वह नष्ट हो जायेगी , उसका व्यापार नहीं चलेगा , कहा भी गया है – 
       असंतुष्टा द्विजा नष्टा: , संतुष्टाश्च महीभुजः |
       सलज्जा गणिका नष्टा , निर्लाज्जाश्च कुलांगना ||
  शास्त्रों में तो इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि वेश्या  किसी से  प्रेम नहीं करती है वह केवल धन हरण करती है , वह धूर्त  होती है जैसे पक्षियों में कौआ , जातियों में नाई और जंतुओं में सियार यथा – 
            पक्षिनां वायसो धूर्तः श्वपादानाम च जम्बुकः | 
            नराणाम नापितो धूर्तो नारीणाम गणिका मता || 18 
 दरअसल वेश्याओं का व्यापार झूठ और छल पर ही आधारित होता है , इसमें सत्य के लिए कोई स्थान नहीं होता | वेश्या यदि सत्यवादी होगी तो वह नष्ट हो जायेगी | आचार्य क्षेमेन्द्र ने अपनी पुस्तक समय मातृका में लिखा है कि – दान देने से व्यापारी नष्ट हो जाता है , और सत्य बोलने से वेश्या | अत्यधिक विनयशील होने पर गुरु नष्ट हो जाता है और दूसरों पर दया दिखाने से कायस्थ नष्ट हो जाता है | 19 जो भी हो शास्त्रों में वेश्या से दूर रहने की ही बात कही गई है क्योंकि वह धन , बल , कुल ,शील सबको हरण ही करती है , उसमें कुछ भी श्रेष्ठ नहीं मसलन कहा भी गया है – जिसके दर्शन मात्र से चित्र विकल हो जाता है , स्पर्श से धन नष्ट हो जाता है , मैथुन से वीर्य नष्ट हो जाता है ऐसी वेश्या मानों प्रत्यक्ष राक्षसी ही हो | 20   आचार्य क्षेमेन्द्र ने तो गणिकाओं पर आधारित एक स्वंतंत्र ग्रन्थ ही लिख दिया है जिसका नाम है ‘ समयमातृका’ | दरअसल कालांतर में वेशकर्म अत्यंत घृणित और गर्हित माना जाने लगा और वेशकर्म से अपनी आजीविका चलाने वालों के लिए तो यहाँ तक कहा गया कि – एक तेली दस कसाई के बराबर है और एक कलवार दस तेली के बराबर | इसी तरह से दस कलवार ( एक जाति जो प्रारम्भिक काल में मद्य व्यापार करती थी , बाद में ये वणिक वृत्ति में ही शामिल हो गए ) पहले के बराबर एक चकलेदार ( कुट्टिनी , गणिकाध्यक्ष आदि ) है और दस चकलेदार के बराबर एक राजा , श्लोक देखें – 
             दशसूनासमंचक्रं दशचक्रसमो ध्वजः | 
             दशध्वजसमो वेशो दशवेशसमो- नृपः  || ( मनुस्मृति , 4.85 )       
 यानी ये सभी व्यापार पापकर्म से जुड़े थे , इन्हें अच्छा नहीं माना जाता था , बहुत से लोग तो इनके हाथ का पानी भी नहीं पिटे थे | धन के अभाव में जो लोग अपनी बेटियाँ बेंच देते थे उन्हें भी ऐसा ही कसाई माना जाता था | यह तो हुई शास्त्र की बात अब जरा लोक को देखें कि वह गणिका के बारे में क्या कहता है | मसलन अवधी में एक कहावत कही जाति है कि – ‘पतुरिया रिसियान परलोक बना’ यानी वेश्या यदि रूठ जाय तो समझिये कि आपका उद्धार हो गया | ध्वन्यर्थ यह है कि इनसे जितना दूर रहा जाय उतना अच्छा | वेश्या के साथ जो पुरुष रहते हैं उन्हें भँड़ुआ कहा जाता है और यह लगभग गाली की तरह प्रयुक्त होता है | लोक में वेश्या के लिए एक बड़ा ही भदेस शब्द चलता है ‘रंडी’ | रंडी संभवतः रांड शब्द से बना है जिसका अर्थ है  पति से विहीन स्त्री | वैसे वेश्या तो चिर रांड है , उसे वैधव्य कैसा ? वह तो इन सबसे मुक्त है ,  कपट ही जिसकी जीविका है , न उसे दोष लगता  है , और न उससे सदाचरण की अपेक्षा ही की जाती है | दूसरे का धन हरण करने में उसे कोई पीड़ा ही नहीं होती और न ही उसे राजदंड का भय ही व्याप्त है , धन्य है वेश्याओं   का जीवन | 21 लोक में यह भी कहा जाता है कि ‘कागा कभी जती नहीं हो सकता और वेश्या कभी सती नहीं हो सकती’ , ये सर्वथा अशुद्ध हैं | मानस में भी  कौआ के लिए कहा गया है कि – ‘होहिं निरामिष कबहुं कि कागा’ ||  वेश्या पर आधारित एक लोक कवित्त के सौन्दर्य को देखें – 
       जब पूरण पाप के भांडे तें , भगवंत कथा न रुचे जिनको | 
 एक गणिका नारी बुलाइ लेइं , नचवावत हैं दिन को रन को |
  मृदंग कहे -  धिक् है  धिक् है , मजीर कहे किनको किनको ?
 तब हाथ उठाय के नारि कहे , ‘ इनको इनको इनको इनको’ ||
अवधी में एक कहावत और कही जाति है कि – ‘गाँठी दामइ न पतुरिया देखे रोवाई आवै’ || यानी पतुरिया के पास जाना है तो पल्ले में पैसा होना चाहिए अन्यथा वह पहचानेगी नहीं , वह केवल पैसे को चीन्हती है | उत्तर प्रदेश और विहार में विवाह में पतुरिया ( रंडी ) की नाच ले जाने का प्रचलन लम्बे समय तक मौजूद रहा | उच्च वर्ग के धनी और तथाकथित संभ्रांत लोग नाच जरूर ले जाते थे | नाचना भी वेश्याओं के कार्य व्यापार में शामिल था, यों सभी  वेश्यायें इस कर्म से नहीं जुड़ी थीं | यह कला सबको नहीं आती थी लिहाजा इस कर्म से जुड़ी वेश्याओं का जीवन अपेक्षाकृत सुखद होता था | जब से पाश्चात्य गीत संगीत का प्रचलन चल पड़ा तबसे उनका यह व्यवसाय भी लगभग समाप्त हो चला है | अब यदा कदा कोई – कोई ही नाच वगैरह ले जाता हो तो ले जाता हो | अंत में वीणा में छपी देवेन्द्र कुमार वर्मा की एक कविता देखें जिसका शीर्षक है ‘ वेश्या’  | यह कविता निश्चित रूप से आज वेश्या की स्थिति पर पुनर्विचार करने को विवश करती है –
  
     कुर्सी सभी चिर युवा हैं |
     वेश्या ही तो है इसकी विच्छिन्न हालत को देख  
     कुर्सी का उपयोग भी अनेक इसे सुधारने का विचार करते हैं 
     व्यक्ति तभी करता है लेकिन शांति मिलते ही 
     जब उसका अशांत थका मस्तिष्क चल पड़ते हैं 
     कोलाहल से दूर अपने पथ पर |
     शांति की खोज में  और भूल जाते हैं 
     भटक जाता | इसे सुधारने का विचार 
     बालक , युवा और वृद्ध का जो उन्होंने शांति मिलने से 
     अंतर इसे भी नहीं मालूम | पहले किया था | 
     इसके लिए सभी बराबर हैं 
     

सन्दर्भ : 
1.महाभारत , 2\ 34 \ 17-18 
2. महाभारत , 2\ 68\23-29 
3 . कौटिल्य अर्थशास्त्र , अद्ध्याय 27 , प्रकरण 44 पृष्ठ 278 
4. वही , पृष्ठ 279  
5. गणिका वृत्त संग्रह , पृष्ठ 12 , लुडविक स्टर्नबैक
6. समुद्रवीचीव चलस्वभावाः , संध्याभ्रलेखेव मुहूर्तरागाः |
  स्त्रियो हृतार्था पुरुषं निरर्थं निष्पीडितालक्तवत त्यजन्ति || मृच्छकटिकम ,4/  15 
7. कथासरित्सागर ,2.12.92  
8. चाणक्य नीति दर्पण , 2. 17 
9 . मृच्छकटिकम ,4/ 14 
10. चतुर्भाणी , धूर्त विट संवाद  
11. वही  धूर्त विट संवाद  
12. धूर्त विट संवाद  
13. धूर्त विट संवाद , पृष्ठ , 95  
14. भर्तृहरि , श्रृंगार शतक , 1/ 89 
15. वही , श्रृंगार शतक , 60   
16. कामसूत्र , वैशिक अधिकरण , 6 \ 16 
17. वही , कामसूत्र 
18.गणिका वृत्त संग्रह ,  पृष्ठ 94 , लुडविक स्टर्नबैक 
19. नीतिशास्त्र , 31 
20. वही , नीतिशास्त्र   
21 . गणिका वृत्त संग्रह , पृष्ठ 16