कृष्णदत्त पालीवाल के आलोचना-वृत्त में निर्मल वर्मा

Title:   कृष्णदत्त पालीवाल के आलोचना-वृत्त में निर्मल वर्मा 
Article-ID 202004003/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.1 Jan-April 2020 Language::Hindi                                               
Domain of Study: Humanities & Social Sciences
                                                                      Sub-Domain: Litrature-Memoir
राम प्रकाश द्विवेदी
ऐसोसिएट प्रोफेसर, डॉ० भीमराव अंबेडकर कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, भारत
[E-mail: ram.dwivedi@bramb.du.acin]   [Mob:+91-9868068787]                                                                                                                                            


आलोचक अौर रचनाकार का अनूठा रिश्ता होता है। वे एक दूसरे के पूरक होते हैं अौर दोनों के बीच एक सरोकारी संतुलन भी होता है। जब यह संतुलन गड़बड़ाने लगता है तो आलोचक में पूर्वग्रह सक्रिय हो चलता है अौर रचनाकार का वास्तविक मूल्यांकन बाधित होता है। आलोचक के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती उन कसौटियों को तैयार करना है, जिनसे उस विशिष्ट रचनाकार की भावभूमि का उद्घाटन हो सके। आलोचक को एक दूरस्थ-आत्मीयता अालोच्य लेखक से बनानी पड़ती है। अालोचक की जवाबदेही दोहरी है-रचनाकार अौर पाठक दोनों के प्रति। बहुधा देखने में आता है कि पाठक विभिन्न, विरोधी से दिखने वाले भी, लेखकों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है लेकिन आलोचक अपने मानकों के चलते यदा-कदा कृतियों के साथ न्याय कर पाने में सक्षम नहीं होता। ऐसा कर पाने में वही आलोचक सक्षम होता है जिसकी आलोचना की कसौटियाँ अपनी लोच बनाएँ रखने में सक्षम होती हैं अौर जिसमें उदारता का बोध सक्रिय रहता है। 

कृष्णदत्त पालीवाल एक अध्यापक-आलोचक हैं। विशुद्ध आलोचक नहीं। विशुद्ध आलोचक के पास यह छूट होती है कि वह अपने मानकों अौर कसौटियों को गढ़े अौर उन पर रचना का मूल्यांकन करे। यानी उसे अपने आलोचना-वृत्त के निर्माण की पूरी छूट होती है अौर वह बँधे-बँधाए ढाँचे के आधार पर अपने निष्कर्ष प्रस्तावित करने के लिए स्वतंत्र हो सकता है। अध्यापक-आलोचक को रोजमर्रा के जीवन में अपने विद्यार्थियों से संवाद करना पड़ता है अौर उनके उठाए प्रश्नों का हल खोजना होता है। संवाद की इस प्रक्रिया से अध्यापक-आलोचक अपनी कसौटियों अौर मानकों को निरंतर गतिशील बनाए रखने को विवश होता है जबकि विशुद्ध आलोचक अपनी बनाई दुनिया के अालोक में रचना को समझने को स्वतंत्र है। 8 फरवरी, 2018 को आयोजित ‘कृष्णदत्त पालीवाल स्मृति व्याख्यान’ में प्रो० विजय बहादुर सिंह ने बीज वक्तव्य देते हुए उलाहना की शैली में कहा कि ‘पालीवाल जी की आलोचना में अतिव्यापकता अौर अध्यापकीय प्रभाव’ है [1]। निश्चय ही वे इसे नकारात्मक संदर्भों में रेखांकित कर रहे थे। मैं, अतिव्यापकता अौर अध्यापकीय प्रभाव दोनों को आलोचना के सकारात्मक बिंदु के रूप में प्रस्तावित करना चाहता हूँ। इससे आलोचक की गतिशीलता का पता चलता है अौर उसके पास अपने छात्रों से संवाद का जो अवसर है, जिससे विशुद्ध अलोचक वंचित है, उसका रचनात्मक उपयोग करने की उत्कंठा है। कृष्णदत्त पालीवाल को इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो, वे भक्तिकाल से लेकर उत्तर-आधुनिकतावाद तक की रचनाशीलता पर विचार करते हुए अपने आलोचना-वृत्त का निर्माण करते हैं। उनका यह आलोचना-वृत्त सामाजिक इतिहास, द्वंद्ववादी भौतिकवाद के द्वंद्व, मनोविश्लेषण, भारतीय अौर पश्चिमी काव्यशास्त्र की स्थापनाअों, कविता अौर गद्य की अधुनातन कसौटियों, भाषा-वैज्ञानिक विन्यासों, नारी अौर दलित विमर्श की प्रतिज्ञाअों अौर चिह्न-शास्त्रीय उठा-पठक से निर्मित हुआ है। इस आलोचना-वृत्त में वाल्मीकि, व्यास, पाणिनि, भरत, मम्मट, विश्वनाथ, अानंदवर्धन, प्लेटो, अरस्तू, लोंजाइनस, कॉलरिज, टी०एस० एलियट, रोलां बार्थ्स, हिपोलिट टेन आदि के स्वर गूँजते हैं। इसमें बुद्ध, गाँधी, मार्क्स, अंबेडकर, जेपी, लोहिया का भास्वर नाद भी सुनाई देता है। अपनी साहित्यिक परंपरा का संदर्भ अौर स्वर तो मुखर है ही। इन संवेत स्वरों की सामानांतर ध्वनियाँ विशुद्ध आलोचक को ‘क्न्फ्यूज़न’ की प्रतीति करवाती हैं, क्योंकि इससे आलोचकीय मठ ध्वस्त होते हैं अौर गिरोहजीवी आलोचना की बेल मुरझा जाती है। पालीवाल जी का आलोचना-वृत्त पाठ अौर परंपरा की रेखाअों से उभरता है जिसमें रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, विजय देव नारायण साही अौर राम विलास शर्मा के मानकों का पुनर्अन्वेषण है। फलत: वे उदारवादी समालोचकों के बीच समादृत होते हैं अौर अपने शिष्य-मंडल की लोकप्रियता अर्जित करते हैं, लेकिन बहुतेरे आलोचना-समूह आलोचक के रूप में उनकी मान्यता रद्द करने का उपक्रम करते रहते हैं। हिंदी की आलोचना परंपरा में तीन प्रकार के आलोचक मिलते हैं-विशुद्ध, रचनाकार, प्राध्यापक। पालीवाल जी प्राध्यापक आलोचक थे। साहित्य मूल्यांकन की उनकी कसौटियाँ समाज के विभिन्न वर्गों से आए विद्यार्थियों के अंतरसंवाद से भी निर्मित-विकसित होती रहीं। प्राध्यापक आलोचक को अपनी कसौटियों की परीक्षा के लिए ‘क्लासरूम’ जैसा जीवंत बैटलग्राउंड भी उपलब्ध होता है। मैं स्वयं इस बैटलग्राउंड का प्रत्यक्षदर्शी रहा हूँ। 
बात उन दिनों की है जब पिता जी जिद कर रहे थे कि मैं उनके व्यवसाय में शामिल हो उनकी सहायता करूँ।मुझे उनकी इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं होती थी। कोई सामान बेचना मेरे लिए बेहद चुनौतीहीन लगता था। इसलिए मैं उनकी बात टालता रहता था। राहुल सांकृत्यायन की किताबें जहन में जोर मार रहीं थीं। दुनिया घूमने का सपना बार-बार आता था। इसलिए टूरिज्म का कोर्स करने पहुँच गया। 12 वीं कक्षा तक साइंस पढ़ने के बाद विज्ञान को छोड़कर कुछ अौर पढ़ना चाहता था। टूरिज्म में दाखिले के समय मेरा चरित्र प्रमाण-पत्र स्कूल में ही रह गया था। जब अपने स्कूल पहुँचा तो वापस जाने के लिए समय बहुत कम बचा था। इसलिए हिन्दू कॉलेज में हिन्दी में ही दाखिले के लिए चला गया। बाद में टूरिज्म कोर्स में माइग्रेशन की अपेक्षा के साथ। 1990 में पालीवाल सर ही इंचार्ज थे। पहुँचा तो थोड़ा डरा हुआ था। यदि आज दाखिला नहीं हुआ तो सब अटक जाएगा। उन्होंने ने मेरे कागजात चेक किए। फिर पूछा कोई कविता या डिबेट करते हो। मैंने कहा-जी सर! वे तपाक से बोले -कविता सुनाअो बेटा। मैंने दसवीं कक्षा में एक कविता लिखी थी-
स्वर्ण जड़ित रथ में चढ़कर, जब सूरज नभ में आता है।
मुखरित मानव मन होता है, पुष्प पेड़ लहराता है।
इस कविता के कुछ अंश सुनाए। उन्होंने फॉर्म दिया अौर मेरा दाखिला हो गया। बाद में मान्धाता अोझा, हरीश नवल, सुरेश ऋतुपर्ण, विजया सती, दीपक सिन्हा अौर रामेश्वर राय जैसे सभी अध्यापकों के प्रभाव ने हिन्दी ही पढ़ते रहने की प्रेरणा का सृजन कर दिया था, इसलिए टूरिज्म की बात पीछे रह गयी थी। जैसाकि सभी जानते हैं कि पालीवाल जी की स्मृति अत्यंत समृद्ध थी, इसलिए वे कक्षाअों में लगातार आकर्षित करते थे। अोजस्विता उनका दूसरा पहलू है। बहुत ऊर्जा के साथ उनका कक्षाअों में प्रवेश होता था अौर वे विषय के व्यापक आयाम खोल देते थे। उनके अध्यापन को ही देखकर लगता था कि हिन्दी एक ताकतवर भाषा है। दूसरे वर्ष में पता चला कि वे विश्वविद्यालय में चले गए है। इसलिए मिलना कम हो गया था। कभी-कभी अभय ठाकुर के साथ मिलने का मौका मिलता था।बाद में जब एम०ए० करने गया फिर उनके संपर्क में आया। उन दिनों कक्षाअों में नित्यानंद जी, पालीवाल जी अौर त्रिपाठी जी सबसे आकर्षित करते थे।पालीवाल जी में प्रवाह बहुत होता था। बहुत से मित्र इसकी अालोचना करते थे। शायद दुनिया का न सही पर भारत का सबसे बड़ा सच ‘ईर्ष्या अौर निंदा’ है। विश्वविद्यालय के दूसरे किसी अध्यापक में यह ताकत नहीं थी कि वह इतनी ऊर्जा से क्लास को चला सके। इसलिए वे निंदा का विषय बनते रहे। आपकी क्षमताएँ ही जब निंदा का विषय बनने लगें तो यह आपकी सफलता ही मानी जाएगी। आम छात्र तो सच को पहचनता है। इसलिए पालीवाल जी उनके बीच लोकप्रिय बने रहे। वे संकुचित विचारपंथी नहीं थे। बहुत तरह के विचारों का वे समभाव से आदर करते थे अौर हमें भी उसी तरह से सोचने-समझने की प्रेरणा देते थे। आज जब विचारधाराअों के महल खण्डहरों में तब्दील हो गए हैं तो उनकी स्मृति बड़े उज्ज्वल रूप में उभरती है। हाँ, वे गाँधी, आंबेडकर अौर लोहिया के सबसे करीब दिखाई देते थे पर मार्क्स की भी कभी भोड़ी व अतार्किक आलोचना की हो एेसा मुझे ध्यान नहीं आता। वे मार्क्स की तो नहीं पर अपने ईर्द-गिर्द जमा मार्क्सवादियों की खबर लेने में चूक नहीं करते थे अौर उनके अच्छे मित्रों में भी मार्क्सवादी ही थे।
माथे पर धँसी हुई दो छोटी-छोटी अाँखों में कितनी शक्ति है कितना उजाला है यह तब जान पाया जब उनके साथ पीएच०डी० करने का मौका मिला। हिन्दू कॉलेज अौर विश्वविद्यालय में ज्यादातर मैं अगली सीट पर ही बैठता था। कभी-कभी पढ़ाते हुए वे कंधों को झकझोर देते थे। याद नहीं पड़ता उन्होंने कभी बैठकर पढ़ाया हो। एक दिन लंच करते हुए हम कक्षा में बेतरतीब बैठे हुए थे। वे ‘राम की शक्तिपूजा’ का मौखिक वाचन करते हुए प्रवेश कर रहे थे। सब चंद सेकेण्डों में ही व्यवस्थित हो गए। हिन्दू कॉलेज में पता नहीं था कि वे सिगरेट पीते हैं। एक दिन जब विश्वविद्यालय के उनके कमरे में गया तो क्लास के ठीक पहले वे मुट्ठी बंद कर सिगरेट का लंबा कश खींच रहे थे। आश्चर्य चकित था, उनके इस स्टाइल पर।बाद में मैं उनकी अनेक बातों की मिमिकरी करता था अौर मित्र कहते थे मैं बहुत अच्छी तरह करता हूँ।उनके अध्यापन का असर कक्षाअों के बाहर भी मेरे साथ चला अाया था। अौरों के साथ भी जरूर जाता रहा होगा। इसलिए मेरे मित्र मनीष रंजन भी हूबहू उनकी नकल उतार लेते थे। उनके समीक्षात्मक लेखन पर छात्रों का दबाव बराबर बना रहता था। अपने ‘हिंदी आलोचना के नए वैचारिक सरोकार’ वाले ग्रंथ कि भूमिका में वे लिखते हैं, ‘यह पुस्तक विद्वानों के लिए नहीं है अौर न अतिरिक्त ज्ञान-दंभ में निमग्न शास्त्र जड़ता का रोना रोने वालों के लिए है। हर देश अौर काल का पाठक शास्त्र की जड़ता का अतिक्रमण करके गतिशील जीवन-यथा का साक्षात्कार करता रहा है अौर अब तो ‘पाठकवादी आलोचना’ का जमाना है।रामचंद्र शुक्ल अौर अज्ञेय, रिचर्ड्स अौर नाथ्रोप फ्राई भी पाठकवादी आलोचना के अग्रदूत कहे जा सकते हैं। फिर हम भारतीयों में रस मीमांसा (भाष्य-विज्ञान) को सदैव आदर से आपनाया है।’ पालीवाल जी के संदर्भ में यह पाठक उनका विद्यार्थी था।
पीएच०डी० के ही दिनों में उनके रोहिणी वाले अौर बाद में साकेत के घर में बराबर जाना होता रहा। पर ज्यादातर मुलाकातें लॉ फैकल्टी की चाय की दुकान पर होती थी। अनेक छात्र वहाँ आकर जम जाते थे अौर सहमतियों-असहमतियों के साथ हम अक्सर उनको बस अौर बाद में मेट्रो तक छोड़ने जाते थे। मेरे पीएच०डी० के ही दिनों वे तोक्यो विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय, जापान में थे। मुझे उनके लौटने का बेसब्री से इंतजार रहता। शोध की प्रगति अौर उसकी दिशा पर वे अक्सर अपनी मूल्यवान राय देते। यहाँ के किस्से-कहानियाँ भी वे सुनाते रहते।एक बार मैंने पूछा था कि-सर वहाँ कैसा लगता है आपको। उनका उत्तर था-सब मरि जाय अौर हम जाय। तब इंटरनेट का जमाना नहीं था। जापान जहाँ लोग अपने तक महदूद रहते हैं -उनके लिए जो हमेशा छात्रों-सहयोगियों के बीच घिरे रहते थे-एक मुश्किल मुकाम रहा होगा। बाद में जब मैं संयोग से वहाँ गया, तो इस बात को ज्याद अच्छी तरह समझ सकता हूँ। पहली बार उनसे ही ‘साके’ (जापानी शराब ) शब्द सुना था। हमारे अग्रज शंकर जी काफी उत्साहित हो जाते थे।बाद में उनसे मिलने का मौका संगोष्ठियों में ही मिलता था। लिखने-पढ़ने के लिए वे हमेशा प्रोत्सहित करते।पर हम सब अपनी मौज में बह रहे थे अौर आज भी वैसा ही है। हमारे सीनियर शंकर जी उनके सबसे करीबी थे। रमेश ऋषिकल्प को वे मित्रवत-शिष्य मानते थे। पर बेवजह अड्डेबाजी का समय उनके पास नहीं था। इसलिए हम सब अकेले-अकेले उनके साथ थे। या उन्हें अकेला कर रहे थे। भारतेन्दु, रामचंद्र शुक्ल, मैथिलीशरण गुप्त, अज्ञेय, रघुवीर सहाय, निर्मल वर्मा, विजयदेवनारायण साही को वे गहराई से याद करते थे। अपने समकालीनों में वे राम विलास शर्मा, रामस्वरूप चतुर्वेदी, केदारनाथ सिंह अौर अोम थानवी की चर्चा  बार-बार करते थे। (शायद मुझसे बहुत बातें छूट रही होंगी, आप जोड़ सकते हैं)। वे आदिकाल से लेकर समकालीन साहित्य तक किसी भी लेखक-रचनाकार को तर्कसंगत ढंग से पढ़ा सकते थे। परंपरा, आधुनिकता अौर उत्तर-आधुनिकता पर जब-जब उनसे बात हुई मेरा मानस कुछ समृद्ध ही होता चला गया था। उन्होंने पूरे देश में घूम-घूम कर व्याख्यान दिए हैं।प्रत्यक्ष शिष्य-समुदाय के अतिरिक्त परोक्ष शिष्यों का आदर-स्नेह उन्हें मिलता रहा है। भारत के जिस भी हिस्से में जाने का मौका मिला वहीं जब पालीवाल सर के अपने पीएच०डी० गाइड होने की बात बतायी तो आगे का परिचय देन की जरूरत न पड़ी। किसी शिष्य को गुरू एेसी शक्ति प्रदान कर दे तो उसका जीवन सार्थक हो जाता है। आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं, उनका दिया दर्प, गौरव अौर स्वाभिमान मेरे साथ खड़ा है। वही मेरी सबसे मूल्यवान पूँजी है। एक अटूट श्रृंखला है उनके साथ गुजारे समय की।
इन कक्षाअों की जीवंत ऊर्जा लेकर वे अपने आलोचना-वृत्त की रेखाएँ खींचते रहे, उसको छोटा-बड़ा करते रहे। विद्यार्थियों की सचल प्रश्नवाही परंपरा ने उनको भक्तिकाल से लेकर उत्तर-आधुनिकतावाद की यात्रा करने पर विवश किया होगा। तो, पालीवाल जी के आलोचना-वृत्त के मूल बिंदु क्या हैं? उसमे किस प्रकार के परिवर्तन अौर परिवर्धन को लक्षित किया जा सकता है? अाइए उनकी आलोचनात्मक पुस्तकों के माध्यम से इसे समझने की कोशिश करते हैं।
पालीवाल जी ने लगभग पैंतीस के करीब आलोचनात्मक ग्रंथों की रचना की जिसमें-राम नरेश त्रिपाठी, मैथिलीशरण गुप्त, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, सर्वेश्वर, गिरिजाकुमार माथुर, भवानी प्रसाद मिश्र, माखनलाल चतुर्वेदी, अज्ञेय अौर रघुवीर सहाय जैसे कवियों की आलोचना शामिल है।उन्होंने अज्ञेय अौर निर्मल के गद्य पर भी विस्तार से लिखा है। इसके अतिरिक्त मध्ययुगीन हिंदी महाकाव्य, भारतीय अौर पाश्चात्य काव्यशास्त्र का गहराई से विवेचन किया है। भारतीय आलोचना काव्य केंद्रित रही है। पालीवाल जी के आलोचक का मन भी कविता में रमता है। गद्य की अोर वे तब आते हैं, जब कोई विवशता होती है। काव्य आलोचना में वे गहरी डुबकी लगाते हैं। पुस्तकें ‘हिंदी आलोचना का सैद्धांतिक आधार’ (वाणी, 2004) तथा ‘हिंदी आलोचना के नए वैचारिक सरोकार’ [वाणी प्रकाशन, 2007 दूसरा सं०] उनके मानक अलोचना-ग्रंथ माना जा सकते हैं [1]। इनके समेत अन्य पुस्तकों-पं० राम नरेश त्रिपाठी का काव्य, महादेवी की रचना प्रक्रिया, मध्ययुगीन हिंदी महाकाव्यों में नायक, नया सृजन नया बोध, यूनानी अौर रोमी काव्यशास्त्र, सर्वेश्वर अौर उनकी कविता, भवानी प्रसाद मिश्र का काव्य संसार, मैथिलीशरण गुप्त: प्रासंगिकता के अंत:सूत्र, आचार्य रामचंद्र शुक्ल का चिंतन जगत, हिंदी के सैद्धांतिक समीक्षा पर पश्चिम की सैद्धांतिक समीक्षा का प्रभाव, उत्तर आधुनिकतावाद अौर साहित्य, नवजागरण अौर महादेवी वर्मा का रचनाकर्म:स्त्री विमर्श के स्वर, दलित साहित्य के बुनियादी सरोकार, हिंदी आलोचना का उत्तर आधुनिक विमर्श, निर्मल वर्मा: उत्तर अौनिवेशिक विमर्श, हिंदी आलोचना का समकालीन परिदृश्य, उत्तर समय अौर रचनाकर्म का संकट, अज्ञेय के सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकार अौर नवजागरण देशी स्वछंदतावाद अौर नई काव्यधारा आदि के आधार पर उनके आलोचना-वृत्त को रेखांकित किया जा सकता है। इनमें जो प्रमुख बातें उभरती हैं, वे निम्नवत हैं।
  1. प्रो० पालीवाल एक सामासिक आलोचक हैं, जो अपने अालोच्य मानक बिना किसी पूर्वाग्रह के विभिन्न विचार-दृष्टियों के समाहार से गढ़ते हैं।
  2. उनमें एक वैश्विक जिज्ञासा है, इसलिए आलोचना की नई सरणियों-प्रणालियों को तलाशने का वे हिंदीतर उद्यम भी करते रहते हैं।
  3. पूर्वी अौर पाश्चात्य आलोचना शास्त्र का वे सहज सम्मिश्रण कर पाते हैं जिससे आलोचना की संवादात्मकता अौर परस्परता; कृति के मूल्यांकन के लिए एक उत्कृष्ट माहौल पैदा करती है।
  4. उनका आलोचना-वृत्त भूगोल (विश्वभर के अनेक अालोचकों तक) अौर इतिहास (संस्कृत अौर रोमन से लेकर उत्तर-आधुनिकतावाद तक) के आयामों की व्याप्ति को एक साथ समेटता है।
  5. अद्यतनता की पराकाष्ठा।
  6. आलोच्य-कृति के आशय को पाठक (बहुधा विद्यार्थयों) तक पहुँचाने की बेचैनी।
  7. चूँकि, उनका आलोच्य-फलक बड़ा अौर बहुआयामी है, इसलिए रचना उसके वृत्त में आते ही अनेक कोणों से आलोकित हो उठती है। अन्य आलोचकों को यही बात निराश करती है। 

इस पृष्ठभूमि के बीच जब हम निर्मल वर्मा को पालीवालीय आलोचना-वृत्त में रखते हैं तो वे सर्वथा नए अर्थों में हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं। निर्मल के रचना कर्म पर विचार करने वाले प्रमुख आलोचकों में-नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, रमेशचन्द्र शाह, कृष्णदत्त पालीवाल, जयदेव, सुधीश पचौरी, उदयन वाजपेयी, मदन सोनी, नंद किशोर आचार्य, गगन गिल अौर प्रेम सिंह हैं। अनेक अन्य शोधार्थियों ने निर्मल के रचना कर्म का मूल्यांकन अपने-अपने ढंग से किया है। इस परिप्रेक्ष्य में निर्मल की रचनाअों के बारे में कोई सीधी राय बनाना आसान नहीं है। यहाँ तक कि जब मैं अपना शोध कार्य कर रहा था तब पालीवाल जी से निर्मल को लेकर मैंने अनेक बिंदुअों पर अपनी असहमति व्यक्त की थी। जिसे उन्होंने ज्यों की त्यों मेरे थीसिस में बने रहने दी। थीसिस की रूपरेखा तैयार करते हुए वे निर्मल की ‘मनोभूमिका’ पर बड़ा जोर डाल रहे थे जबकि अपने समाजवादी आग्रहों के चलते मैं इस प्रकार का कोई अध्याय नहीं रखना चाहता था। बाद में जब निर्मल के संश्लिष्ट लेखन से गुजरना हुआ तो यह अध्याय मुझे बहुत जरूरी-सा लगा। अपनी पुस्तक ‘हिंदी आलोचना के नए वैचारिक सरोकार’ का पहला खंड उन्होंने ‘मनोविश्लेषवादी समीक्षा के नए वैचारिक सरोकार’ पर केंद्रित किया है। इसमें मनोविश़्लेषण के कतिपय जटिल आयामों को बड़ी सहजता से उठाया गया है अौर हिंदी समीक्षाशास्त्र से इसकी संगति स्थापित की गई है।निर्मल पर लिखी अपनी पुस्तकों-‘निर्मल वर्मा: उत्तर अौपनिवेशिक विमर्श’ अौर ‘निर्मल वर्मा’ दोनों में वे निर्मल की मनोभूमिकाअों की विशद् पड़ताल करते हैं।
निर्मल की रचनाअों के मूल्यांकन के बिंदु निम्नलिखित माने जा सकते हैं:
(क) इतिहास, स्मृति अौर मिथक
(ख) कला, जीवन अौर सत्य का संबंध
(ग) भारत अौर यूरोप की प्रतिश्रुति
(घ) धर्म अौर सेक्युलरवाद
(ड) उत्तर उपनिवेशवाद, 
(च) भाषा, यथार्थ अौर आभास
निर्मल, हिंदी में या कहें भारत में सहज ग्राह्य लेखक नहीं है। प्रो० जयदेव ने अपनी पुस्तक ‘द कल्चर अॉफ पास्टिश’ में निर्मल पर पाश्रचात्य संस्कृति को अपनी रचनाअों में उभारने का आरोप लगाया है। वे एक चिथड़ा सुख पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं, ‘Pastiche, whether formal and inter-textual, as in the novels existential aestheticism, or cultural or moral as in its characters, does not happen to be the whole truth about Vermas art. It nevertheless affects it adversely. By figuring in the fiction of a great artist like him, it also earns legitimacy for itself. Finally, it becomes hard to resist because it comes floating on the waves of intense, lyrical prose and stunning formal effects’ [2]. कुछ ऐसे ही विचार भारत अौर यूरोप के आकर्षण के बीच झूलते निर्मल के व्यक्तित्व के बारे में प्रो० सुधीश पचौरी ने अपनी पुस्तक में व्यक्त किए हैं। वे लिखते हैं, ‘उनके (निर्मल) वृतांत बार-बार सूर की गोपियों की तरह कहते हैं: उर में माखनचोर गड़े। अब कैसे हूँ निकसत नाहीं तिरछे ह्वै जु अड़े। तो क्या निर्मल की दबी हुई टैक्स्ट यूरोप के प्रति घनघोर अनुराग की टैक्स्ट नहीं है? अनुराग जो उनके रूपकों अौर व्यंजकों ने दबाया हुआ है? शायद हाँ’! [3]। साफ है, निर्मल के पश्चिम के प्रति आकर्षण-विकर्षण के खेल पर यहाँ तंज कसा गया है। पचौरी जी का मानना है कि निर्मल देशज मनोविज्ञान में नहीं रमते, भारतीयता का गुणगान करते हुए भी वह पश्चिम की अोर ललचाई अाँखों से देखते रहते हैं। जयदेव अौर पचौरी जी से अलग पालीवाल जी ने निर्मल को ठेठ भारतीय परिप्रेक्ष्य में उद्घाटित किया है। या यूँ कहे कि निर्मल को भारतीय अौर विदेशी पाठकों के बीच में बाँटना, वे उचित नहीं मानते। प्रेमचंद अौर रेणु पर सबसे सार्थक कलम चलाने वालों में निर्मल ही हैं जिसे पालीवाल जी रेखांकित करते हैं।
निर्मल की इतिहास को लेकर अपनी समझ है। वे वाम विचारकों से भिन्न राय रखते हैं। प्रो० नित्यानंद तिवारी ने लिखा है, ‘सामान्यतया हम लोग इतिहास अौर एेतिहासिक प्रक्रिया को दूसरी तरह से समझते हैं। वह यह कि एेतिहासिक प्रक्रिया में कोई समस्या उभरती है तो उसके हल की संभावना भी कहीं उसमें निहित होती है। निर्मल जी यदि इतिहास को मानते हैं तो संभवत: इस अर्थ में कि हर युग में इतिहास मनुष्य के सामने कुछ ऐसी समस्याएँ पैदा कर खड़ा हो जाता है, जिसे हल करने के लिए कला-विवेक की जरूरत पड़ती है। इन समस्याअों से उलझने के साथ-साथ कला-विवेक को इतिहास के विरुद्ध भी होना पड़ता है [4]।’ निर्मल के कला-विवेक को प्रो० तिवारी ने इतिहास-बोध के आमने-सामने लाकर खड़ा कर दिया अौर एेसा प्रतीत होता है कि निर्मल एेतिहासिक प्रकियाअों की अोर ताकते भी नहीं, जबकि, नंद किशोर आचार्य ने कहा कि, ‘ ‘शुद्ध’ अौर ‘पवित्र’ का मतलब यही है कि कलाकृति किसी मोर्चे पर समर्पण न करे- न इतिहास के मोर्चे पर न विचारधारा के मोर्चे पर, तभी शब्द स्वयं विचार की हैसियत अख्तियार कर पाता है, अन्यथा वह किसी विचारधारा या इतिहास का वाहक बना रहता है [5]। प्रो० कृष्णदत्त पालीवाल ने निर्मल के इतिहास के प्रति नजरिए को लक्षित करते हुए लिखा है कि, ‘निर्मल की मनोभूमिका में ल्योतार, फ़ूकोयामा, हैबरमास के साथ उत्तर-आद्योगिक समाज में ज्ञान की स्थिति, इतिहास एक महाख्यान (ग्रैंड नैरेटिव) तथा नए आख्यानों की स्थिति के प्रश्न टकराते हैं। हैबरमास इतिहास की अव्यवस्था में व्यवस्था को ‘पोस्ट माडर्निटी’ में देखते हैं। समाज में उत्तर-आधुनिकता की धमक ने नैतिकता, धर्म, साहित्य, इंडस्ट्री जैसी चीजों की वैधता समाप्त कर दी है। निर्मल को याद आता है-सुकरात के बारे में नीत्शे का वह कथन था कि वे (सुकरात) पहले वयक्ति थे जिन्होंने ‘हिस्ट्री’ के ‘इल्यूजन’ की शुरुआत की [6]।’ पालीवाल जी निर्मल के इतिहास को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में उद्घाटित करते है। वे ऐसा इसलिए कर पाते है कि उनका आलोचना-वृत्त निरंतर गतिशील रहता है। वह किसी वैचारिक काल-खंड में आकर अटक नहीं गया है। 
‘निर्मल वर्मा अौर उत्तर अौपनिवेशिक विमर्श’ में पालीवाल जी ने निर्मल के लगभग हर पक्ष-निबंध, कहानी, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, नाटक, डायरी, पत्र अौर अनुवाद-कर्म, पर विचार किया है। निर्मल अौर पालीवाल जी में आत्मीय मित्रता थी। पालीवाल जी जब तोक्यो के विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय में अध्यापन कर रहे थे, तब निर्मल अौर गगन जी उनसे मिले थे। दोनों के साझा मित्र अौर जापान में हिंदी भाषा अौर साहित्य के एनसाक्लोपीडिया कहे जाने वाले प्रो० तोषियो तनाका को ही यह पुस्तक पालीवाल जी ने समर्पित की है। जब मैं तनाका जी से पहली बार उनके प्रिय इजागाया (मयखाना) में मिला तो सुरेश ऋतुपर्ण जी मेरे साथ थे। दरअसल तनाका जी के अवकाश प्राप्ति के बाद ऋतुपर्ण जी ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जो उनसे लगातार संपर्क बनाए रखते थे। जब उन्होंने मुझे पहली बार तनाका जी से मिलवाया तो वे बरबस मेरे शोध के बारे में बात करने लगे। निर्मल वर्मा (विषय) अौर पालीवाल जी (निर्देशक) का नाम सुनकर वे लगभग उछल पड़े थे अौर मेरे सामने वाले कप को आकंठ ‘साके’ से भर दिया था। वे बहुत देर तक निर्मल वर्मा अौर भगवती चरण वर्मा पर बोलते रहे। निर्मल के उनके संस्मरण अद्भुत हैं। अब सोचता हूँ, यदि उस दिन उनकी बातों को रिकार्ड कर लेता तो वह इतिहास बन जाता, नहीं कर पाया तो बस स्मृति भर है। बिना किसी प्रमाण के। 
इतिहास अौर स्मृति का द्वंद्व निर्मल के लेखन के पूर्व हिंदी साहित्य में शायद ही मुखरता से उठा है। पालीवाल जी ने ठीक लक्षित किया है, ‘निर्मल वर्मा के जीवन का ‘टेक्स्ट’ उनके पाठक के साथ बदलता है। उत्तर आधुनिक बुद्धिजीवियों अौर प्रबुद्ध पाठकों के बीच उनकी रचनाअों का सच पाठक के ‘पाठ’ की मानसिकता पर ही निर्भर करता है कि वह उन्हें किस कोण, विचार दृष्टि, भाव या भूमिका से देखता है क्योंकि किसी भी टेक्स्ट का कोई मूल या स्थाई सत्व नहीं होता। पाठ में सोये अर्थ को पाठक ही जगाकर अर्थ देता है’ [7]। दरअसल हिंदी साहित्य के आलोचना शास्त्र में ‘इतिहास बोध’ की जरूरत आधुनिकता के आगमन के साथ होती रही। तमाम मार्क्सवादी सिद्धांतकारों अौर रचनाकारों ने इतिहास बोध को रचना के मूल्यांकन के लिए एक अनिवार्य कसौटी बना दी। इसका यह भी अभिप्राय निकाल लिया गया कि सामाजिक यथार्थ के बिना रचना महत्त्वहीन हो जाती है। जयशंकर प्रसाद के बारे में भी यह कहा गया कि उनमें इतिहास बहुत है, पर इतिहास बोध नहीं। जैनेंद्र, अज्ञेय, निर्मल भी इसी श्रेणी में माने गए जिसका प्रतिवाद स्वयं रचनाकारों अौर अन्य आलोचकों ने दिया। इस बीच स्वयं साहित्य की सैद्धांतिकियों में भारी बदलाव आ चुका है, जिससे रचनाअों को देखने का बहुलतावादी दृष्टिकोण विकसित हुआ है। पालीवाल जी जब अपनी कक्षाअों में अध्यापन करते थे तो वे सहसा एक विचार से दूसरे पर पहुँच जाते थे। हम विद्यार्थयों को उनका यह करतब विस्मित अौर प्रेरित करता था, परंतु उनके सहयोगी उनका मज़ाक भी उड़ाया करते थे। मुझे याद पड़ता है कि पालीवाल जी की अध्यापन शैली पर, प्रो० पचौरी से सहज चर्चा होने लगी। उन्होंने गोपाल प्रसाद व्यास की एक काव्य पंक्ति को बदलकर कहा-‘पालीवाल जी का स्टाइल ‘तलवार चली, तलवार चली’ (व्यास जी की पंक्ति ‘सलवार चली, सलवार चली’ है) वाला है।’ निश्चय ही वे पालीवाल जी की आवेगधर्मिता को इंगित कर रहे थे, जिससे हम सब छात्र बखूबी परिचित हैं। ऐसा करके वे हमें उस छोटी सी क्लास में एक व्यापक फलक पर पहुँचाने का काम करते थे। मुझे इसका लाभ भी मिला अौर हिंदी पढ़ते हुए आज भी यदा-कदा एंथ्रोपोलोजी की पुस्तकों तक जो हाथ ललक के साथ उठ जाते हैं, यह उनके अध्यापन का ही प्रताप है।  
पालीवाल जी के आलोचना-वृत्त में रचना अौर रचनाकार एक-दूसरे के पूरक बने रहते हैं।उनकी आलोचना पाठ को, लेखक की छाँव में ही, पाठक तक पहुँचाती है। इसलिए जब हम उनकी आलोचना से गुजरते हैं तो रचना अौर उसका सर्जक; दोनों का प्रतिबिंब उभरता चला जाता है। यह हमारी देशज आलोचना शैली है। जब पश्चिम की अनेक आलोचना-शैलियों में पाठ की केंद्रीयता बढ़ रही थी, तब भी पालीवाल जी लेखक के व्यक्तित्व को अपने अलोचना-वृत्त में रेखांकित कर रहे थे। ‘निर्मल वर्मा’ [8] अौर ‘निर्मल वर्मा अौर उत्तर अौपनिवेशिक विमर्श’ [9] दोनों पुस्तकों के शीर्षक इसी का इंगित कर रहे थे। वैसे हिंदी में कुछेक लेखक अपने व्यक्तित्व के चलते अपनी रचनाअों के साथ बराबर चर्चा में रहे हैं। अज्ञेय इसमें अग्रणी थे। निर्मल भी अपने बयानों, कम्यूनिस्ट प्रेम अौर मोहभंग आदि के कारण ऐसे ही लेखकों की श्रेणी में आ खड़े हुए थे। हिंदी के मूर्धन्य आलोचक अशोक वाजपेयी ने जब निर्मल वर्मा की रचनाअों का मूल्यांकन करने हेतु पुस्तक का संपादन किया तो उसका शीर्षक ‘निर्मल वर्मा’ [10] ही रखा। प्रो० पचौरी [11] अौर उदयन वाजपेयी [12] की पुस्तकों के शीर्षक भी यही कहानी कहते हैं। कहना न होगा की निर्मल का अालोचक उनके व्यक्तित्व की आभा से घिर जाता है। इसका कारण, हिंदी में, निर्मल के पाठ का अनूठापन है।
पालीवाल जी निर्मल की डायरी अौर संस्मरणों को बड़ी आत्मीयता से अपने अलोचना-वृत्त में उकेरते हैं। इसमें उनका मन रमता चला जाता है। निर्मल के पश्विम के प्रति आकर्षण अौर भारतीयता के महिमामंडन पर विचार करते हुए पालीवाल जी अपनी टीप देते हैं, ‘बुद्धि से, विचार से निर्मल वर्मा पश्चिमी संस्कृति के खटके से बेचैन प्रश्नाकुल रहे हैं, लेकिन भाव अौर संस्कार से भारतीय परंपराअों, मिथकों, गाथाअों, लोक समृतियों, नदियों-तीर्थों-अनुष्ठानों-पर्वों में उनका मन बसता है। एक छोर पर यूरोप दूसरे छोर पर पूर्व या भारत। एक छोर पर इतिहास दूसरे छोर पर स्मृति।निर्मल वर्मा दोनों में संतुलन बैठाने की जी तोड़ कोशिश करते हैं अौर यह प्रत्यय कम मूल्यवान नहीं है [13]।’पचौरी जहाँ निर्मल के इस प्रत्यय को ‘दुविधा’ मानते हैं, पालीवाल वहीं इसे ‘संतुलन’ की संज्ञा देते हैं।दरअसल अपनी यूरोप यात्रा के बाद निर्मल मार्क्सवादी विचारकों को संशय से देखने लगे थे। माक्सवादी विचार अौर कर्म की द्विधा ने निर्मल के आखिरी संबल को छीन लिया था। यह निहत्थापन बाद के दिनों में अौर गहरा होता गया। भारत के आपातकाल के दिनों के बारे में निर्मल वर्मा की इसी वेदना को रेखांकित करते हुए पालीवाल जी ने लिखा, ‘उन्हें इस बात की अपार पीड़ा थी कि हिंदी की क्रांतिकारी विद्रोही कबीरी परंपरा का कायरता से सिर क्यों झुका हुआ है। क्यों हिंदी के प्रगतिशील लेखकों अौर संपादकों की जीभें तालू से लग गयी हैं? इसका उत्तर कौन देगा [14]? पालीवाल जी ने निर्मल के उस कथन का उल्लेख किया जिससे पता चलता है कि रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती अौर नागार्जुन आदि ने कैसे आपातकाल में माफी माँगी थी अौर लेखक समुदाय को कलंकित किया था। 
डायरी पर अपनी राय देते हुए पालीवाल जी ने लिखा, ‘डायरी जीवन की चुनिंदा, सजी-धजी नायिका होती है जो भीतरी कमरे से अपने को सँवारकर कर बाहर निकलती है। पूरी सावधानी से अपने समय, समाज, संस्कृति, साहित्य, धर्म, कला, सिनेमा, घटना-प्रसंग, मार्मिक प्रकरण, प्रेमाख्यान अौर व्यक्तियों के संपर्क पर की गई टिप्पणियों में ऐसा बहुत कुछ ‘अनकहा’ रह जाता है जिसके ‘पाठ’ का अलग से भाष्य करना पड़ता है। उसमें लेखक के वे टुच्चे-लुच्चे, कमीने, कमसिन समझौते भी शामिल होते हैं जिन्हें निर्मल क्या कोई भी मोहन राकेश या कृष्णबलदेव वैद नहीं कहना चाहता [15]।’ पालीवाल जी को निर्मल के बाद के रचनाकर्म में एक फ्यूजन नजर आता है। वे लक्षित करते हैं, ‘आरंभ में अंग्रेजी में कविताएँ लिखने वाला निर्मल का ‘कवि’ बाद के लेखन में एक ऐसा गद्यकार बन गया जो कहानी, निबंध, यात्रावृत्त-संस्मरण, रिपोर्ताज, डायरी की समस्त विधाअों को फेंटकर अपने ‘फ्यूजन’ से लुभाने लगा [16]।’ सन् 2015 की गर्मियाँ थीं, मैं अपने कुछ मित्रों के साथ तोक्यो के उत्तर में शिजूअोका की अोर जा रहा था। कारण था कि अज्ञेय जी ने अपनी एक पुस्तक में इस भूगोल का बड़ा अकर्षक वर्णन किया है। स्व० लक्ष्मीधर मालवीय ने लिखा है अज्ञेय जी ने उनसे कहा था कि मुझे पर्वत उतना ही प्रिय है जितना कि सागर तट। यदि मुझे कहीं बसने के लिए स्थान चुनना हो तो मैं ईज़ु को चूनूँगा, यहीं दोनों ही एक साथ देख सकते हैं [17]।’ इस दुनिया में रहने की सबसे अच्छी अौर सुंदर जगह को देखना। मन लालायित था। जिस सागर अौर पर्वत बिंब का वर्णन अज्ञेय जी ने किया था वह अतामी स्टेशन के बाद शुरु हो गया था। अज्ञेय अौर निर्मल के संस्मरण प्रकृति अौर भूगोल को जीवंत बना देते हैं। निर्मल की डायरियाँ अौर स्मृति लेख हमें एक अंतरयात्रा पर ले जाते हैं।   
चाहे भवानी भाई हों, अज्ञेय, माखनलाल चतुर्वेदी या कोई अन्य वह पालीवाल जी के आलोचना वृत्त में आकर नए ढंग से अलोकित हो उठता है। क्योंकि पालीवाल जी प्रोफेशनल आलोचक नहीं हैं। उनके विद्यार्थियों के प्रश्न उन्हें एक जीवंत अालोचक बनाते हैं। इसलिए उनका आलोचना-वृत्त जड़ परिधि से निर्मित नहीं होता, अपितु गतिशील रेखाअों से आकार पाता है।          





संदर्भ एवं टिप्पणियाँ
[1] सिंह, विजय बहादुर. 8 फरवरी, 2018. ‘प्रो० कृष्णदत्त पालीवाल स्मृति व्याख्यान’ कला संकाय, दिविवि, दिल्ली. 
[2] Jaidev. 1993. The Culture of Pastiche-Existential Aestheticism in the Contemporary Hindi Novel, Indian Institute of Advanced Study, First Ed. Shimla. p. 95.
[3] पचौरी, सुधीश. 2003. निर्मल वर्मा अौर उत्तर-उपनिवेशवाद, प्रथम सं०. राधाकृष्ण, दिल्ली. पृ० 47.
[4] तिवारी, नित्यानंद. 1989. अकेलेपन से सन्यासवाद की अोर. निर्मल वर्मा: सृजन अौर चिंतन, सं० प्रेमसिंह, प्रथम सं०. फ़िफ्थ डायमेंशन, पब्लिकेंशंस, दिल्ली. पृ० 26.
[5] आचार्य, नंद किशोर, 1989. समय की फुसफुसाहट को सुनते हुए. निर्मल वर्मा: सृजन अौर चिंतन, सं० प्रेमसिंह, प्रथम  सं०. फ़िफ्थ डायमेंशन, पब्लिकेंशंस, दिल्ली. पृ० 116.
[6] पालीवाल, कृष्णदत्त. 2009. रचनाकार कि मनोभूमिका. निर्मल वर्मा,  प्रथम सं०. साहित्य अकादमी, नई दिल्ली. पृ०  15.
[7] पालीवाल, कृष्णदत्त. 2012. निर्मल वर्मा अौर उत्तर अौपनिवेशिक विमर्श,  प्रथम सं०. भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली. पृ० 42.
[8] पालीवाल, कृष्णदत्त. 2009. रचनाकार कि मनोभूमिका. निर्मल वर्मा,  प्रथम सं०. साहित्य अकादमी, नई दिल्ली.
[9] पालीवाल, कृष्णदत्त. 2012. निर्मल वर्मा अौर उत्तर अौपनिवेशिक विमर्श,  प्रथम सं०. भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली. पृ० 42.
[10] वाजपेयी, अशोक. 1990. निर्मल वर्मा, प्रथम सं०. राजकमल, नई दिल्ली.
[11] पचौरी, सुधीश. 2003. निर्मल वर्मा अौर उत्तर-उपनिवेशवाद, प्रथम सं०. राधाकृष्ण, दिल्ली.              
[12] वाजपेयी, उदयन. 2000. कथा पुरुष-निर्मल वर्मा पर चार निबंध, प्रथम सं०. वाग्देवी, बीकानेर.
[13] पालीवाल, कृष्णदत्त. 2012. निर्मल वर्मा अौर उत्तर अौपनिवेशिक विमर्श,  प्रथम सं०. भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली.पृ० 75.
[14] पालीवाल, कृष्णदत्त. 2012. निर्मल वर्मा अौर उत्तर अौपनिवेशिक विमर्श,  प्रथम सं०. भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली.पृ० 30.
[15] पालीवाल, कृष्णदत्त. 2012. निर्मल वर्मा अौर उत्तर अौपनिवेशिक विमर्श,  प्रथम सं०. भारतीय ज्ञानपीठ,  नई दिल्ली.पृ० 265.
[16] पालीवाल, कृष्णदत्त. 2012. निर्मल वर्मा अौर उत्तर अौपनिवेशिक विमर्श,  प्रथम सं०. भारतीय ज्ञानपीठ,  नई दिल्ली.पृ० 234.
[17]  मालवीय, लक्ष्मीधर. इजु के सागर तट पर, अपने अपने अज्ञेय, अोम थानवी (सं०) खण्ड एक, प्रथम सं०. वाणी,  नई दिल्ली.पृ० 344.