राजा है तो सीताफल से डरेगा ही!

Title:   राजा है तो सीताफल से डरेगा ही!
Article-ID 202004004/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.1 Jan-April 2020 Language::Hindi                                               
Domain of Study: Humanities & Social Sciences
                                                                      Sub-Domain: Literature-Book Review
साहिल कैरो
शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, भारत
[E-mail: sahilkairo99@gmail.com]   [Mob:+91-9818018494]                                                                                                                                            
       

[अज्ञेय ने 1935ई. के ‘विशाल भारत’ में जैनेन्द्र कुमार के कहानी-संग्रह ‘दो चिड़ियाँ’ की समीक्षा करते हुए लिखा था, जो लोग कहानी सिर्फ वक्त बिताने के लिए नहीं पढ़ते, उन्हें यह संग्रह अवश्य पढ़ना चाहिए.(1) चौखटें बाँधने को भले ही साहित्य और ज्ञान की दुनिया में (कहने के स्तर पर ही सही) अनुचित माना जाता हो पर आलोच्य कहानी और प्रस्तुत लेख के लिए अज्ञेय की यह चौखट उपयुक्त ठहरती है.]

नीचे पारदर्शी इमारतें और ऊपर एक नहीं अनेक सूर्य, रात-दिन के विधान से परे उजाले के राज से गतिमान (जिसमें सिर्फ दिन ही दिन होता है, रात का कोई स्थान नहीं – सैषा सर्वत्र प्रकाशम्) ; ऐसा भी एक राज्य है. नाम है ‘वर्तुल’. इस और उस दुनिया का तो पता नहीं, पर प्रवीण कुमार की इधर प्रकाशित कहानी में अवश्य है. जितना अनोखा यह राज्य है उतना ही अनूठा है इसकी दास्तान का शीर्षक भी – ‘एक राजा था जो सीताफल से डरता था’. अब बताइए कितना ही कह लीजिये कि नाम में क्या रखा है, पर यहाँ तो नाम ही कमाल कर जाता है. इसके आकर्षण का एक अपना जादू है जो पाठक की निगाहों को ठहरा (क्या जमा ही) लेता है. एक तो राजा, जो स्वयं ही बीते समय की बात हो चुका है और वो भी ऐसा-वैसा नहीं नींद को जीत चुका, कभी न सोने और न थकने वाला राजा; पर हमारे जैसे साधारण-दुर्बलों की भूख का अमूमन शिकार होने वाले सीताफल से जिसकी हवा सरक जाती है. यों इस कालातीत, अलौकिक और दैवीय शक्ति-सम्पन्न महापुरुष के सामने एक सीताफल की क्या बिसात! और अगर कुछ होने की संभावना भी बनती है तो वो परीकथाओं या जादुई किस्सों में ही हो सकती है, जहाँ तो एक तोते के भीतर विशालकाय राक्षस की भी जान बस सकती है. पर समस्या का समाधान तो इतने भर से भी नहीं होता क्योंकि ऐसी स्थिति में तो इस कहानी पर चर्चा की क्या ही आवश्यकता!
कहने की आवश्यकता नहीं कि मध्यकालीन किस्से में आधुनिक जटिलताओं से जूझते व्यक्ति के मन को थोड़ी देर बहलाने का सामर्थ्य तो भले ही हो पर उसे रमाने की योग्यता से वह वंचित ही रह जाता है. फिर भला इस ‘वर्तुल’ राज्य में ऐसा क्या है जो यह पाठक को रमा लेता है? बात और ज्यादा तब उलझ जाती है जब कहानी पर नजर डालते हैं. हमारी दुनिया से भिन्न एकदम अलग संसार. दो भिन्न-भिन्न दुनिया लेकिन फिर भी कुछ ऐसा जो भीतर से जोड़ता हो. अमूमन तो यही देखा जाता है कि जो रचना जितनी ज्यादा रचनात्मक विश्वसनीयता अर्जित करती है वह उतनी ही अधिक पाठक से जुड़ने में सफल होती है और रचनात्मक विश्वसनीयता अर्जित करने के लिए आवश्यक है कि रचना के भीतर के संकट, संघर्ष, द्वंद्व, मानसिक उद्वेलन, उसका परिवेश आदि हमें प्रामाणिक लगे. उसे पढ़ते हुए महसूस हो कि जैसे हमारी ही तो बात लिखी जा रही है. उसके होने का कोई न कोई सूत्र हमारे अनुभव के सिरों से जुड़ा हो. किन्तु यहाँ तो एक दूसरा ही संसार है पर फिर भी जुड़ाव महसूस होता है! कार्य है तो कारण भी होगा ही और कारण है इसमें प्रयुक्त फैंटेसी शैली. परन्तु अगर मान भी लिया जाए कि फैंटेसी के कारण ही इस रचना का संसार एकदम भिन्न प्रतीत होते हुए भी हमें जोड़ लेने का सामर्थ्य रखता है तो भी दो प्रश्न और तैयार मिलते हैं. एक तो यह कि कैसे और दूसरा, क्या इतने भर से ही इस रचना का महत्त्व स्वीकारा जा सकता है? अगर फैंटेसी होना ही किसी रचना के महत्त्व का आधार होता तो फिर फैंटेसीयुक्त रचनाओं के एक बड़े तबके को बालोपयोगी शिक्षाप्रद व मनोरंजक कथाएँ-किस्से कहकर आगे बढ़ जाने की प्रवृत्ति क्यों पाई जाती? स्थिति यहाँ कुछ-कुछ उस्ताद ग़ालिब के शे’र जैसी ही है – मरीज़ ए इश्क़ पे रहमत ख़ुदा की / मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की. जितना जवाब खोजने का प्रयत्न किया जा रहा है बात है कि उतनी ही उलझती जा रही है. इन गुत्थियों को सुलझाने और कहानी व इसके रचनात्मक अवदान को समझने के लिए फैंटेसी की अवधारणा से गुजरना होगा.
         अलबत्ता फैंटेसी ‘लार्जर दैन द लाइफ’ होती है पर इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि यह जीवन से मुक्त कुछ-भी उलजलूल होती है. फैंटेसी असल में जीवन को व्यक्त करने की कलात्मक युक्ति है. कबीरदास का प्रसिद्ध दोहा है – जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी. / फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यो ग्यानी.. जल, जीवन का यथार्थ है और कुम्भ फैंटेसी. फैंटेसी अपने लिए कथ्य जीवन से ही तलाशती है और उसे रचने के बाद भी जीवन को ही व्यक्त करती है. प्रेमचन्द ने अपने प्रख्यात निबंध (मूलतः व्याख्यान) ‘साहित्य का उद्देश्य’ में घोषणा की थी – मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि जो कुछ लिख दिया जाए, वह सबका सब साहित्य है. साहित्य उसी रचना को कहेंगे, जिसमें कोई सचाई प्रकट की गयी हो, जिसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित और सुंदर हो, और जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो और साहित्य में यह गुण पूर्ण रूप में उसी अवस्था में उत्पन्न होता है, जब उसमें जीवन की सचाइयाँ और अनुभूतियाँ व्यक्त की गयी हों. आगे प्रेमचन्द अपनी इस मान्यता से बिना फैंटेसी शब्द का प्रयोग किये उसे जोड़ देते हैं, साहित्य में प्रभाव उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि वह जीवन की सचाइयों का दर्पण (बिना नाक-मुँह मसोडे इसे लक्षणा में समझना उचित होगा) हो. फिर आप उसे जिस चौखट में चाहें, लगा सकते हैं – चिड़े की कहानी और गुलो-बुलबुल की दास्तान भी उसके लिए उपयुक्त हो सकती है. ‘जिस चौखट में चाहें’ और आगे दिए गये उदाहरणों की प्रकृति से साफ़ है कि उनका इशारा फैंटेसी की ओर ही था. यथार्थ की अभिव्यक्ति (जिसे प्रेमचंद ‘जीवन की सचाई’ कह रहे हैं) ही फैंटेसी की प्रभावोत्पादकता की धुरी है. यही विशिष्टता विश्व-प्रसिद्ध फैंटेसी युक्त रचनाओं को मनोरंजक और बालोपयोगी कही जाने वाली फैंटेसी रचनाओं से भिन्न करती रही है. कारण साफ़ है कि रचनात्मक विश्वसनीयता अर्जित करने के लिए रचनाकार को यथार्थपरक होना ही होगा. शिल्प और उसकी युक्तियों-प्रविधियों में वह भले ही कितनी ऊँची उड़ान भर ले पर कथ्य के पाँव यथार्थ की जमीन पर ही टिके होने चाहिए. सुखद है कि प्रेमचन्द की कसौटी पर सार्थक उतरती प्रवीण कुमार की ‘एक राजा था जो सीताफल से डरता था’ दूसरी दुनिया के सृजन के माध्यम से हमारी दुनिया को समझने का प्रयास है. 
        यह कहानी मानवीय सभ्यता के विकास का आख्यान है. आरम्भ में आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य नित नये-नये आविष्कारों की ओर प्रवृत्त हुआ. मानवीय आवश्यकताओं की बुनियादी खोजों (फसल, आग इत्यादि) के बाद इसमें उसकी बढ़ती जिज्ञासा और महत्त्वाकांक्षाओं का तत्त्व भी जुड़ता गया. जल्द ही सामूहिक रूप से रहने की जो शुरुआत जंगली जानवरों से बचाव आदि के लिए शुरू हुई थी वह अपनी फसल आदि संसाधनों के संरक्षण के लिए जरूरी हो गयी. संरक्षण का भाव अतिरिक्त की चाह पैदा करता ही और अतिरिक्त की चाह की पूर्ति एक सीमा के बाद दूसरे के हिस्सों से ही होती. इस तरह शुरू हुए सामूहिक संघर्ष, सुव्यवस्थित सैन्य निर्माण, व्यापार-व्यवस्था आदि और फिर धीरे-धीरे राज्य-गठन की प्रक्रियाओं ने सभ्यताओं का विकास किया. उसके बाद की सभ्यता की कहानी धर्म, शासन और व्यापार के गठजोड़; और धीरे-धीरे व्यापार के बढ़ते प्रभुत्व की कहानी है. ‘एक राजा था जो सीताफल से डरता था’ सभ्यता के इसी चरण को अपना उपजीव्य बनाती है. शुरुआत में ही वाचक (नैरेटर) सूचित कर देता है कि वर्तुल में नये राजा के आने के कुछ समय में ही राज्य के लिए ‘नगर’ और राजा के लिए ‘प्रजा प्रिय’ का व्यवहार होने लगा था. शब्दों का यह परिवर्तन न तो मुख-सुख के नियम का परिणाम था और न ही महज भाषाई तब्दीली का और फिर भाषा सम्प्रेषण का माध्यम-भर ही नहीं चेतना की वाहक भी होती है. इस शाब्दिक हेराफेरी के बीज बदलती व्यवस्था के भीतर मिलते हैं. चरमराते राज्य की बागडोर संभालते ही प्रजाप्रिय सबसे पहले व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ावा देते हैं. एक क्या धीरे-धीरे ‘नगर’ के चारों दरवाजें व्यापार के लिए खोल दिए जाते हैं. व्यापार बढ़ता है तो उसकी विशेषता ‘सरप्लस’ की चाह भी फैलने लगती है. अतिरिक्त की हवस. असामान्य प्रजाप्रिय को सामान्य उन्नति से संतोष कहाँ ही मिलने वाला था. व्यापारिक गतिविधियों के बढने में सबसे बड़ी अडचन थी रात (और उसका अँधेरा), इसलिए रात को ही मिटा देने का निश्चय किया जाता है. बहुत-से सूर्य आसमान में टाँगे जाते है! प्राकृतिक विधानों पर तो फिर भी एक हद तक नियंत्रण पा लिया जाता है(?) किन्तु पशु-पक्षियों की नैसर्गिक आदतों का क्या? वो तो रात होते ही ऊँघने लगते थे या अपने स्वभावानुसार आवाजें निकालना शुरू कर देते थे. ऐसे में रात-दिन का अद्वैत स्थापित नहीं हो पा रहा था तो इन्हें खत्म करने का फैसला लिया जाता है. व्यापारियों के सहयोग से शासन के अथक परिश्रम द्वारा पशु-पक्षियों के खात्मे का योजनाबद्ध कार्यक्रम शुरू किया जाता है! बाकायदा प्रशिक्षित बहेलियों की तमाम अत्याधुनिक उपकरणों के साथ नियुक्ति की जाती है और इस तरह ‘वर्तुल’ प्रकृति के तमाम विधानों और संसार की नैसर्गिकता से ऊपर उठ जाता है. व्यापारिक उन्नति से खुशहाली है कि बढती ही चली जाती है, इतनी कि प्रजा में यह बात लोकोक्ति की तरह ही प्रचलित हो जाती है – ये स्वर्ग क्या होता है? जो है बस वर्तुल है. पढने की प्रक्रिया में लगने लगता है कि तुलसी जिस ‘रामराज्य’ की बात कर रहे थे वह ‘वर्तुल’ ही है (संरचनागत भिन्नता भले ही हो पर मूल प्रकृति में तो है ही)! किन्तु वर्तुल की प्रिय प्रजा के प्रजा प्रिय हैं कि संतुष्ट ही नहीं होते! 
        यह तो रहा क्रमिक विकास, परन्तु कुछ घटनाएँ या सूत्र ऐसे होते ही हैं जो विशेष ध्यान की माँग करते हैं. यहीं से रचना अपने अर्थ की गहराई ग्रहण करती है. आचार्य शुक्ल की ‘मार्मिक स्थलों की पहचान’ इसी तरह की कसौटी है हालाँकि विधागत भिन्नता (कविता और कहानी) और परिस्थितियों में हुए बदलावों (वैज्ञानिक प्रगति, तकनीकी विकास, आधुनिक जीवन की जटिलता आदि) के कारण यह कहानी के लिए ठीक उसी रूप में लागू नहीं होती. बहरहाल, इस कहानी के ऐसे सूत्रों की चर्चा के बगैर इसकी व्यापकता और गहराई का भान सम्भव ही नहीं. इनकी व्याख्या से लेख को एकदम अकादमिक बनाने की मेरी कोई योजना नहीं. बस कुछ प्रसंगवश इनकी ओर संकेत कर देना ही उचित रहेगा. प्रकृति का विध्वंस इंसान की अतिरिक्त की हवस की दुष्परिणति है. गाँधी जी ने सही कहा था कि प्रकृति सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति को कर सकती है पर इच्छाओं की नहीं. और इच्छाओं का क्या, वो तो बढती ही चली जाती हैं. इतनी कि उनका अंत अनंत है. वर्तुल में भी यही हुआ. राजा को जिस अंतहीन विकास की हवस थी वह प्रकृति और उसकी नैसर्गिकता के विध्वंस पर ही संभव था. कितने योजनाबद्ध ढंग से उसे किया गया यह तो ऊपर वर्णित हो चुका, परंतु उसके लिए व्यापारिक गतिविधियों में जिस उछाल की जरूरत थी उसको हासिल किये जाने का रोचक वर्णन रचनाकार ने किया है. एक रात राजा भयानक सपना देखता है जिसकी व्याख्या कुलगुरु वांदीक ‘बहुत सोचने के बाद’ करते हैं – इस राज्य पर शनि का प्रकोप था. शनि ने यहाँ सात साल राज किया है, बस अब छः माह बच गये हैं. साढ़ेसाती पूरी होने वाली है, अतः शनि अब राज्य छोड़ना चाहते हैं. लेकिन जिन दरवाजों से उन्हें जाना है वह बंद पड़े हैं, इसलिए राज्य के शेष तीनों सिंहद्वार भी खोलने होंगे. शनि के जाने का तो पता नहीं पर व्यापरियों के आने में अविश्वसनीय बढ़ोतरी हो गयी. अब यहाँ एक बात गौर करने लायक है कि कभी न सोने वाले राजा को सपना कैसे आया? वाचक आरंभ में ही स्पष्ट कर देता है – भाग्यदेवी ने उनके हिस्से में नींद पहले ही नहीं लिख रखी थी.... अब जब नींद आती ही नहीं तो सपना कैसा! क्या रचनाकार वस्तुगत भूल कर बैठा? इतने जटिल शिल्प-प्रविधि में इस तरह की विषयवस्तु को पिरोने में न जाने कितनी ही बार कहानी का सृजन किया गया होगा और न जाने कितनी ही बार इसके भीतर से गुजरा गया होगा. ऐसे में यह सायास गलती लगती है और जब सायास है तो फिर इसका कोई गूढ़ निहितार्थ भी रहा ही होगा. यों फैंटेसी का शिल्प रचनाकार से अतिरिक्त सतर्कता और सजगता की माँग भी करता है क्योंकि पूरे पाठ के प्रतीकों और लक्षणा में होने में हर छोटी-सी छोटी बात से अर्थ की दिशा ही बदल जाने का भय भी रहता है. रचनाकार का ध्येय स्पष्ट है कि प्रजा को बताया जा रहा स्वप्न मिथ्या है. जब नींद ही नहीं आती तो सपना आ ही नहीं सकता और जब सपना आया ही नहीं तो यानी किसी ख़ास प्रयोजन के तहत ही एक सपने को गढ़ कर प्रचारित किया जा रहा है. सपने की विषयवस्तु और ‘बहुत सोच के बाद’ गुरु वांदीक द्वारा की गयी व्याख्या से जाहिर होता है कि नगर के चारों द्वार खुलवाने के लिए यह प्रपंच रचा गया था. शनि के जाने के लिए नहीं बल्कि व्यापारियों के आने के लिए इन द्वारों को खोला गया. इन द्वारों का इस तरह पूरी तरह खोला जाना सरकारों के व्यापारियों को निरंतर निरंकुशता प्रदान करते रहने का प्रतीक है. इस तरह सत्ता (प्रजाप्रिय का कल्पित स्वप्न) और धर्म (गुरु वान्दीक की पहले से तय होने के बावजूद ‘बहुत सोच कर’ की गयी व्याख्या) के गठजोड़ द्वारा प्रजा को मूर्ख बनाते हुए व्यापार-व्यवसाय (पूँजीवाद) को प्रदान की गयी निरंकुशता पर ध्यान केन्द्रित करने के लिये रचनाकार ने ऐसा किया. ऐसा नहीं है कि सायास लापरवाही द्वारा अर्थ-संवर्धन की यह युक्ति प्रवीण कुमार ने सर्वप्रथम प्रयुक्त की है. इसका कुशल प्रयोग उदय प्रकाश के यहाँ भी मिलता है. ‘और अंत में प्रार्थना’ के उदाहरण से बात स्पष्ट होगी – अब इसका क्या किया जाए कि डॉक्टर दिनेश मनोहर वाकणकर किसी कहानी या उपन्यास के पात्र नहीं हैं। उन्हें किसी कहानीकार की कल्पना ने नहीं पैदा किया है। डॉक्टर वाकणकर किसी कहानीकार या रचना के होने या न होने के बावजूद हैं। … कुछ-कुछ उसी तरह जैसे हम और आप हैं। क्या हमें होने के लिए किसी रचना के होने की ज़रूरत है? रचनाकार ने कहानी के मुख्य शीर्षक के नीचे कोष्ठक में सूचना दी है कि ‘इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं’ और यह वाचक तो कह रहा है कि वाकणकर को किसी कहानीकार की कल्पना ने पैदा नहीं किया है। वाचक की सत्ता यहाँ अलग से रेखांकित हो रही है जो पाठ की भीतर की सत्ता है और पाठ के भीतर ही अपना वजूद पाने वाला यह वाचक पूछ रहा है कि, ‘क्या हमें होने के लिए किसी रचना के होने की ज़रूरत है?’ वाचक अगर कहानी का पात्र होता तो फिर तो वह यह दावा किसी सीमा तक कर भी सकता था पर मजे की बात तो यह भी है कि वह कहानी का पात्र भी नहीं. ऐसे में साफ़ है कि इस कहानी का रचनाकार और वाचक एक ही होने चाहिए, किन्तु फिर यह अंतर पैदा करने वाले कथन कैसे? यह भी सायास संयोजन है. इसके प्रयोजन आदि की चर्चा करना तो अवांतर प्रसंग होगा. इसी से वर्तुल राज्य पर आना ही उचित होगा. 
          पूँजीवादी व्यवस्था की निरंकुशता के दुष्प्रभाव होने ही थे. प्राकृतिक विध्वंस की तो शर्त पर ही इसने विकास किया पर तबाही यहीं तक नहीं रुकी. विज्ञान जिसके प्रादुर्भाव का लक्ष्य मनुष्य जाति का विकास माना जाता था वह जल्द ही पूँजी की भूख की पूर्ति के लिये अधिक प्रतिबद्ध होने लगा और धीरे-धीरे तकनीक उसका पर्याय बन गयी. उसकी खोजों तक का महत्त्व उसकी व्यापारिक उपयोगिता के आधार पर किया जाने लगा. विज्ञान ही क्या ज्ञान के तमाम अनुशासन पूँजी के इर्द-गिर्द मक्खी की तरह मँडराने लगे और जो ऐसा करने में नाकाम रहें उनकी प्रासंगिकता को धीरे-धीरे कम किया जाने लगा. वर्तुल में जब भिन्न किस्म के सीताफल की खोज होती है तो राज-सहयोग द्वारा विद्वानों का एक बड़ा दल उस पर विभिन्न प्रयोग करता है जिससे और भी बहुत-सी खोजे हो जाती हैं. उन्हें जब राजसभा में प्रस्तुत किया जाता है तो रचनाकार बारीकी से उस दृश्य का अंकन करता है – इन महान खोजों से होने वाली व्यापारिक उपलब्धियों के बारे में सोचकर उनकी आँखें हीरे की तरह चमक गयी थीं. सामान्य जिंदगी की तरह वर्तुल में भी व्यापार का इतना आतंक था कि नगर का उत्थान, उपलब्धियाँ आदि सब व्यापारिक ही थीं. क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था की ‘सरप्लस’ की हवस दूसरे के हिस्से के संसाधनों का दोहन कराती ही है तो ऐसे में यह आवश्यक है कि सामान्य जनता की चित्त-निर्मिति(माइंड-मेकिंग) इस तरह से की जाए कि उनका ध्यान अप्रत्यक्ष रूप से हो रहे उनके शोषण की ओर जाए ही न. न होगा साँप न बजेगी बाँसुरी. जब यथार्थ-बोध होगा ही नहीं तो प्रतिरोध की संभावनाएँ भी पैदा होगी ही नहीं. इसलिए उसकी सोचने-समझने की प्रक्रियाओं पर हमला किया जाता है. इसका सबसे आसान रास्ता है कि उन्हें कुछ ऐसे झुनझुने उपलब्ध करा दो जिसे बजाने में ही उनका सारा वक़्त जाया हो जाए. मानव सभ्यता के विकास में अक्सर इसका प्रयोग किया जाता रहा. आज के समय का फ्री इन्टरनेट भी ऐसा है कि पूरा समय आप गैजेट्स पर व्यस्त रहें और सोचने-समझने की जहमत उठानी ही न पड़े. वर्तुल में भी प्रजाप्रिय जनता को मनोरंजन-प्रिय बनाता जाता है. मनोरंजन अनिवार्य है पर उसकी अधिकता हमारे चिंतन की बाधक और सत्ता-व्यापार का हथियार बनती है. यों वर्तुल में मनोरंजन खूब होता ही था पर जैसे ही सीताफल वाली समस्या पैदा हुई वैसे ही ‘भांडों, नटों, नर्तकियों और मसखरों की संख्या नगर में और बढ़ गयी थी, वे हर नये पहर कुछ नया लेकर आते. वैसे भी अब उनको करमुक्त नागरिकों की श्रेणी में रखा गया था.’ 
            मनोरंजन की अधिकता धीरे-धीरे हमारे सोचने-समझने की प्रक्रिया को ख़त्म करती है. जब सोचना-समझना कम होने लगेगा तो अपने समय और समाज से सम्पर्क कटने लगेगा. इसके बाद मनोरंजनप्रियता आदत बनती है और हर व्यक्ति अपनी एक सुरक्षित परिधि में ही सिमटने लगता है. यहाँ से एक ख़ास तरह का यथास्थितिवाद हमारे भीतर पनपने लगता है. अगर परिवर्तन की चाह जगती भी है तो प्रयत्न के स्तर तक आते-आते हम कछुए की तरह अपनी खोल में घुस जाते हैं – भगत सिंह पैदा तो हो पर मेरे घर में नहीं, पड़ोसी के घर में. यह यथास्थितिवाद ही अधिनायकवाद में तब्दील होता है. जब खुद कुछ करने की कोशिशें नहीं की जा सकती तो ऐसी अवस्था में हमारी सारी समस्याओं का समाधान निकाल देने वाले किसी सुपरमैन या अवतार का इन्तजार के अलावा और बचता ही क्या है. वर्तमान समय में सम्पूर्ण विश्व में मिथकीय पुरुषों की भाँति नेताओं का जो उभार देखने को मिला वह इसी प्रवृत्ति का परिणाम ही तो है. वर्तुल में भी प्रजाप्रिय का उभार ऐसा ही था. राजा के नगर-भ्रमण से ही अगला दिन मान लिया जाता था. प्रजाप्रिय ही नये पंचांग का सूर्य था. ऐसे पक्षियों के जोड़े वितरित किये गये थे जो राज ने आगमन से पूर्व प्रसन्न होने लगते थे. राज-भ्रमण किसी उत्सव-सा होता था. भगवानीकरण की जिस प्रक्रिया के तहत प्रजाप्रिय के व्यक्तित्त्व के चर्चे बढ़ रहे थे, प्रजाप्रिय भी अपने ‘सामजिक व्यवहार’ (वर्तमान में कैमरा लाइफ) द्वारा उसका दक्ष अभिनय प्रस्तुत करते थे. एक दृश्य देखिये,भावुक प्रजा ने प्रजाप्रिय को उनकी इस बार की शोभायात्रा में जयजयकार के साथ घेर लिया. नागरिक उनके रथ के आगे पीछे हाथ जोड़े खड़े हो गये. प्रजाप्रिय रथ से नीचे उतरे और उपस्थित नागरिकों में एक सबसे वृध्द नागरिक का हाथ बड़े प्यार से अपने हाथ में थाम लिया. ख़ुशी के मारे उस वृध्द की रुलाई छूट गयी. नागरिकों ने एक बार फिर प्रजाप्रिय का जय्घोध किया.प्रजाप्रिय न्र प्रजा को शांत रहन एक इशारा किया और उस वृध्द नागरिक का हाथ थामे संबोधित किया – बाबा! मुझे आपके आंसुओं की नहीं आशीर्वाद की ज़रुरत है. मुझे आशीर्वाद दो कि मैं सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलूँ. इतना कहकर राजा रथ पर सवार हुए और आगे बढ़ गये. 
         अधिनायकवाद है तो अतिरेक होगा ही. वर्तुल का मूल अतिरेक ही था. ज्यादा काम करना है तो रात को ही ख़त्म कर दिया गया. सुख है तो इतना बढ़ा दिया जाए कि मनोरंजनप्रियता ही मूल स्वभाव बन जाए. ‘महादंड के अलावा वहाँ कोई दंडविधान नहीं’ था. राष्ट्रप्रेम की भावना भी अति ही थी, जिसका प्रतिनिधि गुप्तचर-दल प्रमुख सुंग था. भावना का अतिरेक तर्क के क्षरण की शर्त पर ही संभव होता है और ऐसे में बहुत कुछ ऐसा नहीं देख पाते जो अक्सर देखते हैं. अंत में जब सुंग के समक्ष राजा का राज खुलता है तो वह यह कहते हुए आत्महत्या कर लेता है – ‘ओह! ओह अर्तुल! मैं किसके लिए लड़ रहा था’. सुंग की आत्महत्या आस्था और विश्वास की हत्या है और जब-जब विश्वास के होने में विचार का कोई स्थान नहीं होगा, तब-तब उसकी परिणति दुखद ही होगी. विश्वास था तो ऐसा कि राजा के विरुद्ध कुछ सुनते ही राष्ट्रवादी सुंग की मजबूत भुजाएँ फड़कने लगती थीं और टूटा तो ऐसा कि उसकी जान लेकर गया. ‘साइको नैशनलिज्म’ के साथ एक समस्या यह भी है कि उसमें व्यक्ति राष्ट्र की बजाये अधिनायक का अनुयायी हो जाता है. यही सुंग की दुखद परिणति का कारण बनता है. कहानी में और भी बहुत-से सूत्र हैं जो नेपथ्य की गुत्थियों की नब्ज हैं – साथ ही साथ नगर के तमाम राज अधिकारियों के वेतन में दोगुनी वृद्धि करने की सहमति भी बनी. नगर के सभी पुरोहितों की आमदनी को करमुक्त कर दिया गया और यज्ञ की सभी सामग्रियों की खरीद को आधा अवमूल्यित कर दिया गया. चीजें जब सस्ती होती हैं तो प्रजा की असहमतियाँ ज्यादा देर टिकती नहीं. आदि. इस प्रकार के सूत्र प्रतीक-रूप में हैं. यों प्रवीण कुमार इस मामले में चतुर कहानीकार हैं. आलोच्य कहानी से पहले प्रकाशित दो कहानियाँ – ‘नया जफरनामा’ और ‘छबीला रंगबाज का शहर’ – अपनी प्रतीक-व्यवस्था में बेजोड़ हैं और फिर इस कहानी में तो शिल्प-प्रविधि के तौर पर फैंटेसी का प्रयोग किया गया है. प्रतीकात्मकता फैंटेसी का अनिवार्य तत्त्व है. इस कहानी का तो सम्पूर्ण विधान ही प्रतीकात्मक है. राजा-प्रजा और राजशाही व्यवस्था के ढाँचे का प्रयोग अनायास नहीं. शीर्षक भी खुद प्रतीक ही है. सीताफल स्वयं एक प्रतीक है, जिसका प्रतीकार्थ रचनाकार एक स्थान पर रखता है – एक औषधि विज्ञानी ने अपने निजी शोधपत्र में यह टिप्पणी जरूर लिख दी थी कि जिन जीव-जंतुओं को इसे खिलाया गया था उन पर तत्काल कोई बुरा असर नहीं दिख रहा है, लेकिन इससे कोई दूरगामी परिणाम दिखें जैसे कि सत्य के दिखते हैं, पर क्या, यह शोध का विषय है. सीताफल सत्य का प्रतीक है. सत्य की तरह ही उसे नष्ट करने के प्रयत्न को खूब किये जाते हैं पर किया जा नहीं पाता. उसी की तरह वह निरंतर फैलता जाता है और प्रजाप्रिय के भय का कारण बनता रहता है तभी तो ‘एक राजा था जो सीताफल से डरता था’. सीताफल (सत्य) जो मूलतः है तो सत्ता के डर का सबब किन्तु प्रजा को भ्रमित कर दिया जात है – यह विरोधी राष्ट्रों के कूटनीतिक प्रयासों का फल है. जिस प्रजाप्रिय का मूल भय अपने रहस्य के खुल जाने का था वह इसे प्रजा से ही जोड़ देता है – इस शाप से निदान लम्बे समय के संगठित संघर्ष से ही संभव है. राष्ट्र को हमेशा से ही एक ईमानदार संघर्ष की जरूरत रहती है. जन-विरोधी ताकतों का अपने हितों की पूर्ति के लिए सम्पूर्ण जनता में भय का माहौल पैदा करना कोई नई बात नहीं. आजकल भी इस घिनोने हथकंडे का खूब धड़ल्ले से इसका प्रयोग किया जाता है. 
        पाठक कहानी में अक्सर महसूस करता है कि रचनाकार दो स्तरों को साध रहा है- एक, सभ्यता के विकास की यात्रा के संदर्भ में और दूसरा कहानी में तात्कालिक संदर्भ भी मिलते हैं. पाठक का यह अहसास हवाई भी नहीं. रचनाकार के इस संचरण के दो स्पष्ट कारण हैं- सत्ता के मूल स्वभाव (निरंकुशता, असंतोष, ताकत को खोने का भय आदि) की समानता और अपने समय से सम्बन्ध. कोई भी रचनाकार अपने समय से विमुख होकर नहीं लिखता. उसके लिखने में उसकी समझ और उसके अनुभवों का भारी योग होता है और उसकी निर्मिति में उसके समय और समाज का. इसी से बहुत-सी जगह तो राष्ट्रवादी राजनीति के बहुत सीधे लक्षण मिल जाते हैं. सुंग का पूरा चरित्र तो जो है सो है ही, राजा के भय को पूरे राष्ट्र पर खतरे की तरह प्रस्तुत किया जाता है और प्रजा के समक्ष एक काल्पनिक शत्रु का प्रोपोगैंडा रच दिया जाता है. क्या यह भी आश्चर्यजनक संयोग नहीं कि दक्षिणपंथी राजनीति की तरह वर्तुल में भी सत्ता तथाकथित सांस्कृतिक नजरिये का बहुत प्रयोग करती है- राजा का प्रेत वाला स्वप्न, गुरु की शनि सम्बन्धी व्याख्या, यज्ञ आदि के सामान पर विशेष रियायत, समस्याओं को शाप के रूप में प्रस्तुत करना और उनके समाधान के रूप में नगर की सम्पूर्ण इमारतों पर हल्दी का लेप आदि. और बताइए इस राष्ट्र के संकट की घडी में भी कुछ पढ़े लिखे विरोधी किस्म के नागरिक इन ध्वनियों के अर्थ खोजने में व्यस्त थे! 
         
     सम्पूर्ण कहानी अप्रत्यक्ष रूप से दो भागों में बँटी है – स्मृति और कल्पना. अब तक स्मृति खंड की चर्चा हुई –  सभ्यताओं के विकास की यात्रा और सत्ता का जनविरोधी रवैया. स्मृति का दामन थामे जैसे कल्पना अपनी जगह खोजती है वैसे ही इस लम्बी कहानी का आखिरी पन्ना कल्पना के हिस्से आया है. कल्पना यानि रचनाकार की आकांक्षा. प्रजा से जनता में तब्दील होते जन-समुदाय का विवेकयुक्त संघर्ष. संघर्ष का जो परिवर्तनकारी रूप जीवन से गायब है उसे रचनाकार ने कहानी में रच दिया है. यह साहित्य का न्याय है.
        
      सुंग की आत्महत्या और ‘सिंग्ग्ग’ की ध्वनि का भेद वर्तुल की नीव को हिला देता है. प्रजाप्रिय के ‘सूर्यों की रोशनियाँ मंद पड रही थीं’. उन्हें बुझाने की तैयारी हो चुकी थी. ‘कुलगुरु को इस बात की ज्यादा हैरानी थी कि प्रजा को इस अँधेरे का कोई दर शायद सता नहीं रहा था’ – वे डरते हैं / किस चीज से डरते हैं वे / तमाम धन-दौलत / गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद / वे डरते हैं / कि एक दिन / निहत्थे और गरीब लोग / उनसे डरना बंद कर देंगे.(गोरख पाण्डेय). पर उससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात थी कि ‘उजाले और अँधेरे की निर्णायक लड़ाई में वर्तुल की प्रजा अँधेरे के साथ थी.’ पारम्परिक अर्थ में अगर अँधेरे और उजाले के प्रतीकों को ग्रहण किया जाये तो यहाँ  ‘ऐलिगरी’ का प्रयोग माना जा सकता है किन्तु मेरे विचार से इसकी आवश्यकता नहीं. यह अनिवार्य नहीं है कि उजाले का सकारात्मक और अँधेरे का नकारात्मक अर्थ ही लिया जाए. रूढ़ हो चुके प्रतीकों को नये अर्थ प्रदान करना भी तो रचनाकार का ही दायित्व है और फिर प्रतीक का अर्थ पाठ से परे जाकर ग्रहण नहीं किया जा सकता. पाठ के भीतर से ही अर्थ लेना होगा. कहानी में उजाला प्रजाप्रिय की दृष्टि की धुरी है. उसकी योजनाओं, शासकीय दृष्टि और सत्ता का प्रतीक. प्रजाप्रिय के पूरे चरित्र को उजाले से अलग करके नहीं समझा जा सकता. प्राकृतिक उजाला यानी दिन; मनुष्य के क्रियाकलाप का समय पर प्रजाप्रिय को सब अतिरिक्त चाहिए और अतिरिक्त माँग अतिरिक्त पूर्ति से ही संभव है. इसी से प्रकृति द्वारा दिए गये समय से काम नहीं चल सकता. और समय चाहिए होगा. इसी से रात को भी दिन में तब्दील करना होगा जिसके लिए बहुत-से कृत्रिम सूर्य आकाश में स्थापित किये जाते हैं. इस तरह अँधेरे को उजाले और रात को भी दिन में बदलना सत्ता के कुछ भी कर सकने के घमंड और उसकी व्यक्तिगत हवस का प्रतीक है और अँधेरे के लिए किया गया संघर्ष प्रजा का सत्ता की मनमानी के प्रतिकार और प्रकृति से संचालित जीवन का समर्थन है. इस लिए अँधेरे और उजाले की निर्णायक लड़ाई में प्रजा का अँधेरे के साथ होना प्रजाप्रिय को भीतर से तोड़ देता है और फिर अंतिम दृश्य है – प्रजाप्रिय ने बेहद मजबूती से अपना दाहिना पैर परकोटे की गज भर दीवार पर रख दिया और वर्तुल को अंतिम बार झाँकते हुए अपना राजमुकुट हवा में उछाल दिया.
        कहानी का एक ऐसा पक्ष है जो इस कहानी को अलग बनाता है. पूरी कहानी में वर्तुल का प्रजाप्रिय और उसकी प्रिय प्रजा की खुशहाली वर्णित हुई और जहाँ कहीं समस्या का जिक्र जाया भी तो वहां वर्तुल के अथक संघर्ष ने उसे टिकने नहीं दिया. इतने समृद्ध और आदर्श नगर की दास्तान पढ़ते हुए भी एक भय पाठक के भीतर बढ़ता जाता है. जहाँ संतोष होना चाहिए वहाँ एक अजीब-सी असंतुष्टि पाठक में ही नहीं कहानी के प्रजाप्रिय में भी दिखाई देती है. खैर प्रजाप्रिय का कारण तो पाठ के अंत तक उसके रहस्य के सूत्रों में मिल जाता है पर पाठक का क्या? यहाँ तो अंत भी इतना आदर्शनुमा हो जाता है फिर भला क्या समस्या उसे परेशान करती है. इसका जवाब नामवर सिंह के इस कथन में मिलता है -  रेडियो और अखबार से असाधारण घटनाएँ सुनते-सुनते हम इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि अब कुछ भी असाधारण नहीं लगता. आश्चर्य की बात तो यही है कि अब किसी बात पर आश्चर्य नहीं होता....(इसीलिए) यदि तमाम लोगों और चीजों को उनके नाम तथा लेविल अलग करके एक अनजान, अपरिचित आगन्तुक की तरह देखें तो सब कुछ अजीबों-गरीब लगेगा. हो सकता है कि ‘वास्तविकता’ का पता इसी तरह चले. ...बचपन की जिज्ञासा, कुतूहल, विस्मित होने की क्षमता को प्रौढ़ रूप में इस्तेमाल करें तो साधारण जीवन के बीच से असाधारण जीवन-सत्य का उद्घाटन किया जा सकता है.(2) कहानी का वर्तुल असल में कोई काल्पनिक लोक नहीं बल्कि हमारी ही दुनिया का ‘अलग लेवल लगा’ संस्करण ही तो है और उसकी यही बात पाठक को बेचैन करती है. कहानी में रचनाकार समृद्धि के तमाम वर्णन के बावजूद गड़बड़ी के अनुमान की आशंका को बनाये रखता है. यह उसकी रचनाधर्मिता की ताकत है कि जैसे-जैसे पाठक कहानी को पढने की प्रक्रिया में उसके प्रयुक्त ‘असाधारण’ के माध्यम से अपने ‘साधारण’ दुनिया के यथार्थ से सामना करता जाता है वैसे-वैसे उसमें भीतर ही भीतर यह खौफ पैदा होने लगता है. यह फैंटेसी की काल्त्म्क-प्रयुक्ति के बिना शायद ही संभव था. यह भी विचारणीय है कि अन्य फैंटेसी रचनाओं की तरह अमूमन यथार्थ को लेकर तो चलती हैं किन्तु आशाजन्य अंत की ओर बढती हैं और अपने काल्पनिक अंत के बावजूद अपनी रचनात्मक विश्वनीयता का क्षरण नहीं होने देती. अलबत्ता इसमें शक नहीं कि यथार्थ के कलात्मक संयोजन के अभाव में फैंटेसी की युक्ति भी रचना को ढहने से नहीं बचा सकती. सवाल है और वाजिब भी है, किन्तु लेख की सीमा इसके विवेचन की छूट नहीं देती. किन्तु इतना कह देना आवश्यक जान पड़ता है कि फैंटेसी की प्राविधि के प्रयोग से ही कहानीकार आदर्श अंत के माध्यम से पाठक में उम्मीद के बीज के पोषण की संभावनाओं को भी बरक़रार रखने की सुविधा ले पाया है और पठनीयता की समस्या का जो अद्भुत हल इसने किया, सो तो है ही. 
          इस कहानी की अपार संभावनाएँ ही हैं कि लेख हनुमान जी की पूँछ की तरह बढ़ता ही चला जा रहा है पर लौकिक लेखक को वह अलौकिक सुविधा कहाँ! यहाँ तो सीमाओं के गणित की मंजूरी लेनी ही पड़ती है और फिर लेख को आगे बढ़ाकर पाठकों की खीज का पात्र कौन ही बने. लेकिन क्या कहानी की बात पूरी हुई?   


सन्दर्भ-सूची
  1. ‘नई कहानी: सन्दर्भ और प्रकृति’ – देवीशंकर अवस्थी ; पृष्ठ संख्या – 14,  राजकमल प्रकाशन (छठा संस्करण : 2018)
  2. ‘कहानी: नई कहानी’ – नामवर सिंह ; पृष्ठ संख्या – 88,89,लोकभारती प्रकाशन (संस्करण : 2014)