Title: बदलाव की बयार और भूमंडलीकरण
Article-ID 202004006/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.1 Jan-April 2020 Language::Hindi
Domain of Study: Humanities & Social Sciences
Sub-Domain: Globalization
प्रदीप कुमार सिंह (स्व०)
असिस्टेंट प्रोफेसर, डॉ० भीमराव अंबेडकर कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, भारत
[E-mail: pradeepuskar@gmail.com] [Mob:+91-xxxxxxxxx]
शोध-सार-भारत सरकार द्वारा जारी किए गए तात्कालिक आकड़े उठाकर आप देख सकते हैं कि कितने लोग BPL कार्ड धारक हैं और कितने लोग करोड़पति या उद्योगपति अथवा संसाधन संपन्न। तब फिर साफ तौर पर कहा जा सकता है कि बाज़ार और पूंजी के गठजोड़ में भूमंडलीकरण के रास्ते जो सामाजिक चरित्र और उसकी आभासी दुनिया बनायी जा रही है वह झूठ की बुनियाद पर टिकी हुई है।
संकेताक्षर-गाँव, पूँजी, बाज़ार, भारत, भूमंडलीकरण
Note in English-India is a country of villages. All governmnets, including the present one, do not pay any attentin towards the development of these villages. In the process of globalization the concern of farmers, rural poors are completely ignored and a preference to industries and big investors is quite prevalant in contemporary economic policies.
भूमंडलीकरण कोई मानवीय दर्शन या विचार नहीं है, जिसके सहारे कोई समाज या देश अपना जीवन जीता है। बल्कि यह मानवीय दर्शन या विचार के विरोध में खड़ा एक बाज़ार है जिसका आधार मुनाफे की पूंजी और तकनीक है। आप कल्पना कीजिए कि आज के विकास की इस प्रक्रिया से पूंजी और तकनीक को बाहर कर दिया जाए तो क्या संभव है कि तब इस बाजारवादी भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को गति मिलेगी। या क्या हम उसके चरित्र को समझ पाएँगे।
इस पूंजी और तकनीक के साझेपन में बाज़ार के चरित्र को समझने के लिए भारतीय टेलीविज़न पर बहुतायत दिखाए जाने वाले विज्ञापनों में से ‘जीवन बीमा निगम’ (LIC) का विज्ञापन देखना महत्वपूर्ण है। जिसकी पंच लाईन हैं “जिन्दगी के साथ भी और जिन्दगी के बाद भी।” इस हिन्दुस्तान के दर्शन में चाहे वह दर्शन कोई भी हो (द्वैत, अद्वैत अथवा शुद्धाद्वैत) ईश्वर जिसे आप प्राकृतिक शक्ति भी कह सकते हैं उसमें ईश्वर की सत्ता सबसे बड़ी है। यानी जन्म और मृत्यु दोनों का नियंता ईश्वर ही है लेकिन पहली बार खास तौर से हिन्दुस्तान में 1990 के बाद भूमंडलीकृत पूंजीगत विकास के ढाँचे ने पूंजी को ईश्वर से बड़ा कर दिया। जिसने मृत्यु के बाद की गारंटी लेनी शुरू की। क्योंकि जीवन देने और उसके खत्म होने तक की जिम्मेदारी इससे पहले ईश्वर के पास थी। वही उसका नियंता था। हजारों सालों के भारतीय दर्शन और साहित्य इसके साक्ष्य हैं। यहाँ तक कि आधुनिक काल में नीत्से की घोषणा के बाद भी कि ‘ईश्वर मर गया है’ भारतीय समाज ईश्वर या प्रकृति की उस शक्ति पर भरोसा करता है। लेकिन आज की पूंजी ने उसे रिप्लेस कर दिया हैं। अन्यथा ‘जिन्दगी के साथ भी और जिन्दगी के बाद भी’ का नारा वह नहीं देता। शायद गांधी को पूंजी, तकनीक और बाज़ार के इस चरित्र का अंदाजा रहा होगा जिसके कारण उन्होंने इसका विरोध किया।
मैं यहाँ गांधी की बात इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि अंधगांधीवादी फैशनपरस्त हूँ जिसके खिलाफ बाद में राममनोहर लोहिया ने मठी गांधीवाद और सरकारी गांधीवाद कहकर उसका विरोध करते हुए कुजात गांधीवाद की एक नई धारा विकसित की। जो वास्तव में तर्कसम्मत तरीके से गांधी के विचारों से बहस करते हुए समाज को अपने संसाधनों के सहारे विकसित करने की बात करता है। इसलिए अपने विचार में गांधी के बाद लोहिया ने छोटी तकनीक और देशी पूंजी को विकास के रास्ते में स्वीकार किया है। खुद गांधी भी ट्रस्टीशिप की बात करते हैं। बशर्ते की वह वास्तव में बराबरी, स्वतंत्रता और सहभागिता के आधार पर समाज के विकास में दिखे।
संस्थानिक रूप से यहाँ भूमंडलीकरण की प्रक्रिया और उसके द्वारा खड़ी हो रही चुनौतियों के बारे में लगातार हम लोग बातचीत कर रहे हैं। उदाहरण के लिए स्वास्थ्य, हवा, पानी, जंगल, जमीन यहाँ तक कि हथियार भी जो भूमंडलीकृत बाजार में सबसे मुनाफे का उत्पाद है। मजेदार बात यह है कि भारत आज शिक्षा और स्वास्थ्य से ज्यादा हथियारों की खरीद पर खर्च कर रहा है जिसकी व्याख्या करते हुए उसका सबसे बड़ा उत्पादक देश अमरीका समझा रहा है कि एशिया में शान्ति, समता, न्याय और भाईचारे के लिए हथियारों की खरीद जरुरी है। लेकिन इस भूमंडलीकरण के बाज़ार और पूंजी की अच्छाईयाँ क्या हैं वह हमें केवल आज बाज़ार का सबसे बड़ा भोंपू मीडिया बता रहा है। टेलीविज़न या संचार के अन्य नए माध्यमों के जरिए यदि हम इस बात को समझने की कोशिश करें जिसका आधार खबरें और विज्ञापन हैं। बेहतर होगा कि यदि हम उनके आंकडें को देखें कि 247 के जमाने में कितनी खबरें समाज, संस्कृति, खेती, किसान आदि पर दिखाई जाती हैं और कितनी बाज़ार के उत्पादों पर। तब आप सहजता से अंदाजा लगा सकते हैं कि बाज़ार, पूंजी और तकनीक का साझा चरित्र किसके पक्ष में है। क्या आपने किसी विज्ञापन में काले, बौने, अपंग, कमजोर, मजदूर, गरीब, किसान, भिखमंगे जैसे जमात के लोगों को देखा है, जबकि समाज की वास्तविक दुनिया में इनकी संख्या सुन्दर और स्वस्थ लोगों की तुलना में कई गुना ज्यादा है।
भारत सरकार द्वारा जारी किए गए तात्कालिक आकड़े उठाकर आप देख सकते हैं कि कितने लोग BPL कार्ड धारक हैं और कितने लोग करोड़पति या उद्योगपति अथवा संसाधन संपन्न। तब फिर साफ तौर पर कहा जा सकता है कि बाज़ार और पूंजी के गठजोड़ में भूमंडलीकरण के रास्ते जो सामाजिक चरित्र और उसकी आभासी दुनिया बनायी जा रही है वह झूठ की बुनियाद पर टिकी हुई है। मैं बाज़ार के कुछ उत्पाद और उनके विज्ञापनों का जिक्र करना चाहता हूँ, जिससे इस तर्क को समझा जा सके। उदाहरण के लिए कोलगेट दांतों के लिए इतना स्वास्थ्यवर्धक है और इतना भरोसेमंद है कि आज उसकी वही लीगेसी कोई माँ अपने बच्चे को पास करना चाहती है। जबकि वास्तविकता इससे बिल्कुल उलट है मेडिकल काउंसिल सर्वें यह बताता है कि भारत में 1990 के बाद सबसे ज्यादा संख्या में अगर क्लीनिक खुले है तो वह डेंटल क्लीनिक ही हैं। फर्ज कीजिए कि हॉरलिक्स पीने से बच्चा अगर तेज दिमाग और दो गुनी रफ़्तार से बढ़ता तो सामान्यतया अलग से समाज के आदर्श रूप में आईंस्टीन और आलमचन्ना को बताने की जरूरत नहीं होती। या कोई क्रीम, साबुन या शैम्पू किसी को इतना कॉन्फिडेंट, सुन्दर और आकर्षक बना देगा कि वह समाज का नेतृत्व करने लगे तो क्या बात हो। मजा यह है कि अब केवल टाइड या रिन साबुन से धुले कपड़े पहनने वाले लोग ही भारतीय समाज में इज्जत के पात्र होंगे बाकी लोगों के प्रति समाज का नजरिया क्या होगा। या फिर टाटा नमक ही देश का नमक है बाकी......।
हद तो तब है जब इस तकनीक, पूंजी और बाज़ार की साझी व्यवस्था में ‘इंडियन आईडल’ भारतीय समाज का आदर्श बनने के लिए अब गांधी, अंबेडकर, नेहरु, लोहिया या जे.पी. की तरह किसी आन्दोलन में भाग लेने, लाठी खाने, भूख हड़ताल करने की ज़रूरत नहीं है बल्कि अब वह केवल मोबाइल के एस.एम.एस. या फेसबुक के लाईक के आधार पर आदर्श बन सकता है। आज ग्लोबल बनने की प्रक्रिया में इस बात पर सबसे ज्यादा बहस है कि बराक ओबामा के फेसबुक या ट्वीटर पर कितने फॉलोअर्स हैं और नरेन्द्र दामोदर मोदी के कितने। इससे तय होगा कि दुनिया का सबसे समर्थ, प्रभावशाली और आकर्षक नेता कौन है। उसके देश की जनता की क्या वास्तविक ज़रूरतें हैं, सुविधाएँ-असुविधाएँ हैं इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
शायद यह उनकी चिंता का विषय भी नहीं है जबकि प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक किशन पटनायक, सच्चिदानंद सिन्हा, अनुपम मिश्र, राजेंद्र सिंह सरीखे तमाम लोगों की चिंता का एक बड़ा तर्क यह है कि जो प्राकृतिक संसाधन मौजूद है मसलन ‘जल-जंगल-जमीन’ उसमें अमरीका के कितने वाशिंगटन डी.सी. या कि भारत के दिल्ली जैसे शहर विकसित किए जा सकते हैं। पता नहीं आज ‘स्मार्टसिटी’ बनाने के लिए संसाधन संतुलन का सिद्धांत क्या है जिस पर सरकार काम कर रही है। इस तरह भूमंडलीकरण के आभासी दुनिया का चरित्र कम से कम हिन्दुस्तान के अकादमिक जगत में या जनता के बीच 1990 से पहले तो बिल्कुल नहीं था। ग़ालिब का एक प्रसिद्ध शेर है-जला है जिस्म जहां, दिल भी जल गया होगा। कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तुजू (तलाश) क्या है। तो इस बाजारवादी मुनाफे की पूंजी का चरित्र बेदिल है। जहां आदमी कि परिभाषा उसके क्रय शक्ति से तय होती है। अभी पिछले 13 जून 2016 को ‘जनसत्ता’ सहित तमाम राष्ट्रीय दैनिक अखबारों कि खबर है कि दिल्ली के कनॉट प्लेस में सोनाली शेट्टी नाम की महिला लेखिका अपने पति के जन्मदिन पर कुछ गरीब बच्चों को ‘शिवसागर’ नामक रेस्टोरेंट में खाना खिलाना चाहती थी, लेकिन उस रेस्टोरेंट के वेटरों ने उन गरीब बच्चों को रेस्टोरेंट में बैठने से मना कर दिया, खाना खिलाने की बात तो बहुत दूर है। इसलिए आज के पूंजी और बाज़ार का चरित्र क्या है इसका सामाजिक संबंधों पर, परिवार और रिश्तों पर जिस तरह से असर पड़ रहा है उससे तटस्थ नहीं रहा जा सकता।
आप में से बहुत सारे लोगों ने प्रेमचंद को ज़रूर पढ़ा होगा और भीष्म साहनी को भी। मैं अपने समकालीन रचनाकारों का उदाहरण इसलिए नहीं दे रहा हूँ क्योंकि साहित्य अपने डिसीप्लीन से बाहर जनता या पाठक के बीच एक समय के बाद ही स्थायी जगह बना पाता है। उसे भूमंडलीकरण में शामिल पूंजी, बाज़ार और तकनीक की तरह अपनी पहुँच बढ़ाने की जल्दी नहीं है। कोई हड़बड़ी नहीं है कि आज फोन, मोबाइल, कैमरा, गाड़ी या कि फैशन की तरह रोज बदले और मुनाफा कमाए। वह भी मनुष्य को मनुष्य के खिलाफ खड़ा करके उसका भावात्मक दोहन करे। तकनीकी तौर पर 2जी का 3जी से या 3जी का 4जी सेट से मजाक उड़वाए और एहसास दिलाए कि मैं तुमसे बेहतर हूँ।
इसलिए साहित्य का धरातल काफी हद तक मानवीय और टिकाऊ बना हुआ है। उसमें जब कोई पैराडाइम शिफ्ट होता है तो इसका अर्थ है कि समाज-संस्कृति का ढाँचा भीतर से बदल रहा है। प्रेमचंद का सबसे प्रसिद्ध उपन्यास है ‘गोदान’। उसका एक युवा पात्र है ‘गोबर’। जो एक गरीब मजदूर-किसान होरी का बेटा है। मैंने होरी को मजदूर किसान इसलिए कहा क्योंकि खेतीहर संस्कृति में खेतों में काम करने वाले उस मजदूर को जो लगातार श्रद्धापूर्वक ईमानदारी से एक ही जमींदार से जुड़कर काम करता था लेकिन उसकी भावनात्मक समझदारी किसान की ही थी। उसकी मेहनत से जमींदार की खेती होती थी जिसमें उस मजदूर की हिस्सेदारी तय होती थी। खैर होरी उसी खेतीहर संस्कृति की पुरानी धारणाओं में जिन्दा रहने वाला व्यक्ति है। जिसके जीवन में यदि कुछ बदलाव होना है तो भाग्य से यानी ईश्वर के भरोसे लेकिन उसमें भी उसकी ईमानदार मेहनत शामिल है। जबकि उसका बेटा गोबर उससे ठीक उलट है, क्योंकि वह गाँव से निकलकर लखनऊ शहर जाता है। राजनीति और व्यवस्था, बाज़ार की नई दुनिया देखता है। उसका उस पर असर है। वह जब गाँव लौटता है तो बदलाव चाहता है। उसके लिए वह कोशिश भी करता है। उसे पता है कि उसके काम में यदि ईमानदारी है तो उसका लाभ भी उसे ही मिलना चाहिए। वह दूसरे यानी जमींदार को क्यों मिले। यह मूलतः वास्तविक बदलाव की प्रक्रिया है जो समाज के भीतर से आ रही है। जिसमें वह बराबरी के साथ अपना हिस्से की माँग करता है। तो ठीक दूसरी तरफ भीष्म साहनी की बहुचर्चित कहानी है ‘वाड़्चू’। जिसमें एक बौद्ध भिक्षु चीन से वाराणसी (जो अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर मोदी जी का संसदीय क्षेत्र है) इसलिए आता है कि बौद्ध दर्शन का अध्ययन कर सके। एक लंबे समय में प्रवास के बाद जब वह चीन वापस पहुंचता है तो लोग उससे तरह-तरह के सवाल करते हैं कि वह हिन्दुस्तान को कैसे देखता है। वहाँ की योजनाएँ क्या है इत्यादि-इत्यादि। इस सवालों से उबकर वह बहुत जल्दी फिर वाराणसी लौट आता है तो यहाँ भी लोग चीन को लेकर तरह-तरह के सवाल पूछते हैं, लेकिन वह कुछ बता नहीं पाता क्योंकि वह उस बदलाव की वास्तविक प्रक्रिया से जुड़ा ही नहीं। वह केवल एक आभासी दुनिया के उस विचार से जुड़ा रहा जिसमें बुद्धत्व को जानने के लिए केवल किताबों या मठों की जरूरत है। उसके सामाजिक-राजनीतिक या सांस्कृतिक तानों-बानों से उसका कोई लेना देना नहीं हैं। इसलिए उसके ज्ञान की प्रक्रिया पर सवाल खड़ा होता है, जबकि गोबर कम पढ़ा-लिखा होने के बावजूद भी बदलाव की उस सामाजिक राजनितिक प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है।
इसलिए आज भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को समझने के लिए गाँव के उस गोबर बनने की जरूरत है, पोंगापंथी वाड़्चू ज्ञानी नहीं। तब आज जो सूचना और ज्ञान के स्रोत हैं वह भी पूंजी और बाजार के गठजोड़ से ही चल रहे है, जिनके प्रति अतिरिक्त सावधान रहने की जरूरत है। पिछले दिनों अमरीकन विदेश नीति पर एक व्याख्यान देने के लिए मनन द्दिवेदी नाम के एक सज्जन IIPA से आए थे। जो भारत सरकार द्वारा ट्रेनिंग देने का सबसे बड़ा संस्थान है। उन्होने अमरीकन विदेश नीति पर जिस तरह से बातें कीं वह चौंकाने वाली हैं। मतलब अमरीका उनके लिए एक ‘मिराज’ है जिसको वह पाना चाहते हैं। वह इतना वर्चस्वशाली है कि कभी ध्वस्त नहीं होगा। बल्कि वह नहीं होगा तो दुनिया में भाईचारा, अमन-चैन और समानता संभव नहीं है। इसलिए उसके लिबर्टी स्टेच्यू को ध्यान कीजिए और उसी को अपना लक्ष्य मानिए। साथ ही वहां के कार्टून चरित्र सुपरमैन और स्पाइडर मैन को देखते हुए कल्पना कीजिए कि कभी आपके भी समाज में काश कोई ऐसा ही कोई सुपरमैन या स्पाइडर मैन बन जाए। मुझे आश्चर्य नहीं है मनन द्दिवेदी के उस व्याख्यान पर। जिसमें वह अमरीका के लिए इतने अभिभूत हैं। मैं ऐसे ज्ञान की प्रक्रिया को ‘वाड़्चू’ कहानी के बौद्ध भिक्षु की उसी ज्ञान-प्रक्रिया के तहत देखता हूँ जिसको अपने सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक ताने-बाने के वास्तविक बदलाव या जरूरतों से कोई लेना देना नहीं है। उसे तो मठी या किताबी बुद्धत्व मिल जाए। बस वही अंतिम सत्य है।
इसी क्रम में मैं पूर्वांचल यानी पूर्वी उत्तर-प्रदेश के एक छोटे से गाँव उसकर गाजियापुर जो बलिया जिले के अंतर्गत स्थित हैं, का जिक्र करना चाहता हूँ। यह उत्तर-प्रदेश राज्य के लगभग 97936 गावों में से एक है। बलिया जिले के अंतर्गत आने वाले कुल 1830 गावों कि स्थिति कुछ इस तरह की है कि उसमें से इस गांव के सर्वेक्षण के सहारे आप सभी गाँव में भूमंडलीकरण की प्रक्रिया और बदलाव की स्थितियों पर अपनी बात कर सकते हैं।
यह गांव मूलतः तीन नदियों गंगा, घाघरा और टौंस से घिरा हुआ है। जिसकी कुल आबादी लगभग 3000 के आस-पास की है। इसकी बसावट कुछ इस तरह की है कि गाँव के किनारे-किनारे दो तरफ ताल और एक तरफ पोखर है। निकास का रास्ता लगभग चारो तरफ से है क्योंकि गाँव के छोटे-छोटे पूरे (जातियों का समूह) एक-दूसरे को उन्हीं रास्तों से जोड़ते हैं। 1990 के बाद लगभग पिछले 26 वर्षों में धीरे-धीरे भूमंडलीकृत बाजार की सूचना और तकनीक का प्रवाह वहां अब पूरी तरह पहुंच चुका है। जिसमें टेलीविजन की मुख्य भूमिका हैं। हास्यास्पद यह है कि जिस पेप्सी या कोक को सुनीता नारायण के सर्वे के आधार पर पेस्टिसाइड मानकर सेहत के लिए बेहद खतरनाक बताया गया, जिसे बाद में बाबा रामदेव ने टॉयलेट क्लीनर की संज्ञा दी और अपने उत्पादों से बाजार में अपनी जगह बनायी इस बात की सूचना वहां नहीं है। बाजार का तकाजा और रणनीति देखिए कि उसी ठंडे पेय को शहरों से बहिष्कृत किए जाने के बाद जो अब दोबारा अपने विज्ञापन में लेबोरेट्री टेस्ट से पास हो गया है वह वहां के समाज के लिए प्रेस्टिज बन गया है। यानी अब आप जब कभी वहां जाएंगे तो संभव है कि आपका स्वागत पेप्सी या कोक जैसे शीतल पेय से ही किया जाए। इसका अर्थ है कि बाजार उस अंतिम आदमी तक अपनी पहुँच बना लिया है जिसे संसाधन संपन्न बनाने की चिंता गांधी आजादी की जमाने में कर रहे थे। आजादी के बाद की सरकारें चाहे गांधी की बात को न समझी हों लेकिन आज बाजार ने उसे बखूबी समझा है और अपनी पहुँच के आधार पर वह अंतिम आदमी से भी मुनाफ़ा वसूलने में लगा हुआ है।
उस गाँव में लगभग 1910 तक कभी भी पानी की कमी नहीं हुई, लेकिन भूमंडलीकृत बाजार की सुविधा और स्मार्ट सफलता की दौड़ ने उस गांव में आज सूखे जैसी स्थिति पैदा कर दी है। जाहिर है सुविधा और संपन्नता चाहिए तो आय बढ़ानी पड़ेगी। तब फिर गांव के किसानों की आय कैसे बढ़े। इसके लिए खेती कैश क्रॉप कीजिए। मसलन पारंपरिक गेहूँ, धान, दालें छोड़कर पेड़ लगाइए, गन्ना उगाइए और जब पैसा आ जाए तो स्मार्ट दिखने के लिए गांव के ताल, पोखर और कुओं को पाटकर गाड़ी खड़ी करने के लिए पार्किंग बनाइए। खेतों में खेती की जगह ईट के भट्टे लगाइए जिससे तत्काल पैसा कमाया जा सके। पेड़ भी वह नहीं जिससे गाँव हरा-भरा हो सके बल्कि वह पेड़ जो जल्दी पैसा दे। मसलन यू.के. लिप्टस इत्यादि। आप जानते हैं कि सबसे ज्यादा पानी वही पेड़ सोखता है। आज 2016 में उस गांव की स्थिति यह है कि वहां पैसा, गाड़ी, टेलीविजन व अन्य सुविधाएं तो पहुंच गयी हैं। यहाँ तक कि पीने के लिए कुछ संसाधन संपन्न लोग बिसलेरी का पानी भी इस्तेमाल करने लगे हैं लेकिन गांव में अब सूखा पड़ने लगा है। पिछले मार्च 2016 की खबर मैं बताऊँ कि वहां गांव के 60 से 70 फीसदी हैंडपंप से पीने का पानी ख़त्म हो गया है। आज जून में वहां की स्थिति क्या होगी आप समझ सकते हैं। वहां सारे ताल, पोखर और कुएं खत्म होने के कगार पर हैं। आश्चर्य है कि लगभग 15 चलते हुए कुएं उस गांव में थे लेकिन बाजार के स्मार्ट जीवन की सूचना ने वहां के लोगों को कुएं से दूर कर दिया जिसका नतीजा है कि आज एक भी कुआं वहां ऐसा नहीं है जिसमें पीने लायक पानी हो।
आप अंदाजा लगाएं कि जब एक छोटा सा गांव अगर केवल बिसलेरी पानी पीने लगे तो वहां की वस्तु स्थिति क्या होगी। यह कैसा स्मार्टनेस है और कैसी आधुनिकता है। यह तो मैंने नमूने के तौर पर केवल एक पानी की बात बताई तब आप वहां के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने के बदलने का हिसाब लगा सकते हैं। मसलन आज उस गांव का लगभग 25 फीसदी सुविधा संपन्न परिवार गांव छोड़कर वहीँ नजदीक के मऊ, बलिया, गाजीपुर, बनारस, आजमगढ़, मधुबन, घोसी, गोरखपुर जैसे शहरी टाउन में पलायन कर गया है। उसकी मात्र वजह यह है कि गांव में रहना बाजार के नजरिए में या ज्ञान की प्रक्रिया में पिछड़ापन है। अब आप अंदाजा लगाएं कि जब आभासी सुन्दर दुनिया जिसे मनन द्दिवेदी ने ‘मिराज’ कहा जो दुनियाभर में वाशिंगटन डी. सी. के नाम से जाना जाता है वहां तक पंहुचने के लिए लोगों को क्या-क्या कीमत चुकानी पड़ेगी। या फिर बहुत दूर जाने के बजाय भारत के ही हर गांव को दिल्ली की तरह सुविधा संपन्न बनाने के लिए कितना कुछ खोना पड़ेगा।