वैश्विक संवेदना की दो असाधारण कहानियां: ‘यारेग़ार’ और ‘प्रलय में नाव’

Title: वैश्विक संवेदना की दो असाधारण कहानियां: यारेग़ार और प्रलय में नाव
Article-ID 202006010/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.2 May-August 2020 Language::Hindi                                                
Domain of Study: Humanities & Social Sciences
                                                                      Sub-Domain: Literature-Criticism
रमेश अनुपम (प्रो०)
204, कंचन विहार, डूमर तालाब ( टाटीबंध ), रायपुर, छत्तीसगढ़. 492010, भारत
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Note :
Litrary criticism is well known genre. Criticism of stories helps readers to understand the form and content as well as the contemporary issues raised in that. Some of Hindi stories address global sentiments by breaking the langauage barriers. ‘Naya Gyanadaya’ is widely read journal among Hindi scholars. It published two stories viz. ‘Yareghaar’ and ‘Pralay me Nao’ in its August, 2019 special issue. This article presents a comprehensive evaluation of these stories in global perspective.  
  
‘नया ज्ञानोदय’ (अगस्त 2019) का कहानी विशेषांक आज की हिंदी कहानी की मिज़ाज को रेखांकित करने वाला एक महत्वपूर्ण दस्तावेज की तरह है। इस अंक में संग्रहीत उन्नीस कहानियाँ ज़िंदगी के अलग-अलग फ़सानों को बयां करने वाली हमारे आज के इस दौर की महत्वपूर्ण कहानियाँ हैं। 
‘नया ज्ञानोदय’ के इस कहानी विशेषांक में प्रकाशित उन्नीस कहानियों में से अनेक कहानियाँ न केवल अपने कथ्य और शिल्प में बेजोड़ हैं वरन् अनुभवों के नए से नए इलाकों में प्रवेश करने का जोखिम उठाती हुई कहानियाँ हैं। 
फिलहाल मैं ‘नया ज्ञानोदय’ के इस कहानी विशेषांक में प्रकाशित केवल दो कहानियों की विशेष रूप से चर्चा करना चाहूँगा, दिव्या विजय की कहानी ‘यारेग़ार’ और तरूण भटनागर की कहानी ‘प्रलय में नाव’। लेकिन इसका यह कतई अर्थ न निकाला जाए कि शेष सत्रह कहानियाँ चर्चा के योग्य नहीं हैं, उन पर भी चर्चा ज़रूर होनी चाहिए।
दिव्या विजय की कहानी ‘यारेग़ार’ देश और काल की सीमाओं का अतिक्रमण करने वाली एक अलग भाव और संवेदना की कहानी है। यह कहानी हमें अफगानिस्तान की राजधानी काबुल ले जाती है। इस कहानी का कथानक सन् 1996 का वह काबुल है, जब तालिबानियों ने मुजाहिदिनों को अपदस्थ कर पूरे अफगानिस्तान को अपने कब्जे में ले रखा था। वैश्विक इतिहास की समझ रखने वाले पाठकों को यह विदित ही होगा कि इस्लामिक कट्टर पंथी तालिबान को तब पाकिस्तान और अमेरिका दोनों का समर्थन प्राप्त था। 
इस कहानी में काबुल के हामिद और अफशीन के परिवार में तीन छोटे बच्चे हैं दो बेटे फरहाद और अली तथा एक बेटी शीर। फरहाद और अली दोनों बच्चों को पतंग उड़ाने का शौक हैं पर कट्टर तालिबानियों के चलते काबुल में पतंग उड़ाना भी किसी जुर्म से कम नहीं हैं। 
तालिबानियों को न बच्चों का पतंग उड़ाना पसंद है और न ही लड़कियों का स्कूल जाना। वहां आठ साल से बड़ी लड़कियों का स्कूल जाना मना है। इस प्रतिबंध के चलते शीर स्कूल नहीं जा पाती है। तालिबान जैसे कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन तथा इस तरह के अन्य कट्टरपंथी और धार्मिक संगठन का पहला निशाना औरत ही होती है।
दिसम्बर सन् 1996 के काबुल का परिवेश इस कहानी के केन्द्र में है। लेखिका इस कहानी में यह जानकारी भी पाठकों को देती हैं कि कंधार से चलकर तालिबानी तब तक काबुल पहुंच चुके थे। उस समय काबुल के बहुत सारे लोगों ने उनका इस्तकबाल किया था। उन्हें इस कट्टरपंथी संगठन से बेहतरी की उम्मीद थी। उन्हें लग रहा था कि कम्युनिस्ट और मुजाहिद्दीनों ने जिस तरह से मुल्क का बेड़ा गर्क किया था वह अब खुश दिनों में बदल जाएगा। वैसे भी हर देश में बहुतायत जनता धर्म और मज़हब के षड्यंत्रों का शिकार जाने-अनजाने हो ही जाती हैं। 
जिन्हें विश्व इतिहास की जानकारी है वे जानते हैं कि सन् 1996 में अफगानिस्तान को किस तरह से तालिबानियों ने अपने कब्जे में ले रखा था। नागरिक स्वाधीनता या प्रजातंत्र का वहां दूर-दूर तक कोई नामोनिशान शेष नहीं बचा था। इस इस्लामिक कट्टरपंथी संस्था ने अफगानिस्तान में जिस क्रूरता तथा बर्बरता का परिचय दिया था वह, इतिहास के किसी शर्मनाक अध्याय से कम नहीं है।
इसी परिवेश के आस-पास इस कथा का जन्म होता है। फरहाद और अली के माध्यम से लेखिका काबुल के तत्कालीन परिदृश्य को जिस तरह से इस कहानी में उकेरती चली जाती हैं वह हमारी संवेदना की परतों को जैसे छीलती चली जाती है। 
हामिद अपने बच्चों से कहता है अली, फरहाद और शीर ध्यान से सुनो। हुकूमत बदली है। नए हुक्मरानों के अपने दस्तूर हैं। हम उन्हें बदल नहीं सकते, उनके खि़लाफ नहीं जा सकते। शीर तुम अम्मी के काम में हाथ बटांओगी ’’।  शीर को जहां पढ़ने का बहुत शौक है वहीं फरहाद और अली को पतंग उड़ाने का। हुकूमत बदलने से और नए हुक्मरानों के काबुल में कब्जा करने से न तो शीर स्कूल जा सकती हैं और न ही फरहाद और अली आसमान में अपनी पतंगे उड़ा सकते हैं। नए हुक्मरानों को आसमान में पतंगे उड़ाना पसंद नहीं है। 
लेखिका इस कहानी में आगे बताती हैं कि ‘आने वाली शाम उनके घर का बहुत सा सामान आग के सुपुर्द हो गया। लेकिन अली और फरहाद की उम्मीद अभी खत्म नहीं हुई थी। उनका शौक अभी बचा था, हसरतें अभी मरी नहीं थी। अपनी पतंगे, चरखियां, मांझे सब उन्होंने अम्मी को यकीन में ले, छिपा दिए थे ’। 
यहां फरहाद का यह संवाद ग़ौरतलब है ‘हम पतंग उड़ाना ज़ारी रखेंगे। फ़न को बार-बार अमल में नहीं लाएंगे तो फ़न भी हमसे बेपरवाह हो जाएगा’। यहां लेखिका इस कहानी में यह भी जोड़ती हैं कि अफ़शीन ने पिछले हफ़्ते हामिद के साथ बाजार जाते वक्त दो बच्चों को पतंग उड़ाने के जुर्म में तालिबानियों से बेरहमी से पिटते हुए देखा था। 
इस कहानी में नूर अहमद जैसा एक महत्वपूर्ण पात्र भी है जो काबुल में पतंगे बनाता है। फरहाद और अली नूर चाचा से ही पतंगे लेते हैं। वे बच्चों से बिना अफगानी लिए पतंग दे देते हैं। नूर के पूछने पर कि पतंग कहां उड़ाओगे। फरहाद कहता है हमें कुछ महफूज जगहें मालूम है। वे इस ज़मीन पर अपना हक़ भले ही जता लें, आसमान को काबू में कर सकते हैं क्या’’? 
फरहाद का यह कथन गौर करने लायक है। चाहे दुनिया का कोई भी तानाशाह हो ज़मीन पर अपना हक भले ही जता ले पर आसमान तो सबके लिए एक समान है। यहां आसमान विचारों का पर्याय है। जैसे भगत सिंह कहते थेः ‘हवाओं में रहेगी मेरे खयालों की बिजली ’। इस खयालों की बिजली पर किसी तानाशाह या तालिबानियों का हक कभी नहीं हो सकता है। 
कहानी आगे बढ़ती है पतंग लेकर घर लौटते हुए बच्चों को आसिफ़ चचा मिलते हैं, जो गोश्त की दुकान बंद करने की तैयारी में थे। वे दोनों बच्चों फरहाद और अली को हिदायत देते है कि ‘तुम लोग साीधे घर जाओ। बदकारी के जुर्म में आज एक औरत पर पथराव होगा। उस औरत का धड़ ज़मीन के बीच होगा और सर बाहर। सब उस पर तब तक पत्थर फेकेंगे जब तक वो मर नहीं जाए’, आसिफ चचा यह कहना भी नहीं भूलते हैं कि अल्लाह कैसे दिन आ गए ’।
यह सन् 1996 के काबुल का चित्रण है। जहां लड़कियों का पढ़ना जुर्म है, स्त्रियों की आज़ादी के साथ जीना अपराध है और बच्चों का पतंग उड़ाना इस्लाम के खिलाफ है। अल्लाह सचमुच काबुल में ये कैसे दिन आ गए थे। 
नूर अहमद, फरहाद और अली इस कहानी के ऐसे पात्र हैं जो पतंग से मोहब्बत करते हैं और हर हालात में आसमान में पतंग उड़ाने में यकीन रखते हैं। नूर अहमद दोनों बच्चों के लिए बाज़ नामक पतंग बनाते है। इस कहानी में लेखिका लिखती है बाज़ याने अफगानिस्तान का कौमी परिंदा। काबुल में पतंग के शौकीन दीवानावार इस बाज़ को आसमान में उड़ाना सबसे अधिक पसंद करते हैं। बाज़ उनकी मोहब्बत और स्वतंत्रता का जैसे पर्याय है।
पतंग उड़ाने के जुर्म में दोनों बच्चों। तालिबानियों द्वारा पकड़ लिए जाते हैं। तालिबानी उन्हें सजा देते हैं। इन्हीं तालिबानियों में फरहाद और अली का हमउम्र एक बच्चा भी शामिल है जिसका नाम मूसा है, मूसा इन बच्चों को तालिबानियों के कहने पर मारता है, दोनों बच्चों को मार-मार कर लहूलूहान कर देता है। मूसा बाद में इन बच्चों का दोस्त बन जाता है, मूसा को भी पतंग उड़ाना पसंद है। 
कहानी के अंत में जब मूसा के कहने पर एक सुरक्षित जगह पर जाकर फरहाद, अली, शीर और मूसा चारों बच्चों पतंग उड़ाते हुए तालिबानियों द्वारा पकड़ लिए जाते हैं। पकड़े जाने पर मूसा बेहद डरा हुआ है उसे अपनी जान की फिक्र ज्यादा हो जाती है। वह तालिबानियों को यह यकीन दिलाने में कामयाब हो जाता है कि वह इन तीनों बच्चों के साथ शामिल नहीं है। वह तालिबानियों को इस बात का विश्वास दिलाते हुए झूठ बोलता है कि मुझे उनके मंसूबों की खबर हो गई थी। इसलिए इनका पीछा करता चला आया। मैं गद्दार नहीं हूं ’’। मूसा अपनी वफादारी का परिचय देकर बच जाता है पर तीनों बच्चे फरहाद, अली और शीर को वह मरवा देता है। 
चैदह पृष्ठों में फैली हुई इस सुदीर्घ कहानी का अंत प्रारंभ से जोड़ने वाला है। कहानी का प्रारंभ चैदह जनवरी मकर संक्राति के दिन गुलाबी शहर जयपुर से होता है। अद्वैत और निशि पतंग उड़ा रहें हैं। वहीं उनकी मुला़कात एक शख्स से होती है। मूलतः आप कहां के हैं? पूछने पर वह शख्स कहता है जहां से मैं हूं, वहां का अब नहीं रहा।  
कहानी जयपुर से निकलकर काबुल पहुंच जाती है। लेखिका काबुल का वर्णन करते हुए बताती है कि हिंदुकुश से आ रही काबुल नदी शहर के बीचों बीच बह रही थी। वहीं थे काबुल के बाज़ार-केसर की मीठी गंध, मसालों की तेज महक, पुदीने की कच्ची खुशबू में लिपटे, रेशमी लिबासों की सर-सराहट से भरे, ताजा़ मांस, रसीले फलों और उबलती चाय के साथ थी वहां पतंगों की फरफराहटें, महल, मस्जिद और बाग-बगीचे पुराने दिनों की शान ओ शौकत की गवाही दे रहे थे। 
कहानी जिस तरह से गुलाबी शहर जयपुर से प्रारंभ होती हैं उसी तरह से उसका अंत भी जयपुर में ही होता है। अद्वैत और निशि के साथ बैठे हुए उस शख्स की निगाह दूर कहीं उफुक (क्षितिज) पर अटकी थी। कहानी के अंत में निशि उससे पूछती है आप कौन है? जिसके जवाब में वह शख्स कहता है बरसाों हुए मैं अपना नाम नहीं लेता फिर भी आप चाहें तो मुझे दग़ाबाज़ पुकार सकती हैं ’’। 
निशि को लगता है उसकी आंखों में दूर कही अली और फरहाद के कहकहे थे। शीर के लम्बे सुनहरे उड़ते बाल। कहानी भले ही यहां समाप्त हो जाती है पर हमारे मन में ढ़ेर सारे सवालों को छोड़ जाती है। 
चैदह पृष्ठों की इस कहानी में दिव्या विजय ने काबुल का जिस तरह से चित्रण किया है तथा तीन छोटे-छोटे बच्चों के माध्यम से तालिबानियों की बर्बरता को उजागर किया है वह लेखिका की गहन संवेनशीलता का परिचायक है। मानवीय धरातल पर उन तीनों बच्चों के जीवन को लेखिका ने जिस तरह से इस कहानी में उकेरा है वह अद्भुत है। फरहाद, अली और शीर जैसे अफगानिस्तान के प्रतिनिधि चरित्र है। इस कहानी में लेखिका ने जैसे उस दौर के अफगानिस्तान को हमारी आंखों के सामने सजीव कर दिया है। यह लेखिका की व्यापक और वैश्विक दृष्टि का परिचायक है। 
’पतंग’ का बिम्ब बहुत अर्थगर्भित है। इसका सीधा सम्बंध अफगानिस्तान में मानवीय मूल्यों और स्वाधीनता की स्थापना से है।     ‘पतंग’ यहां विचारों की स्वतंत्रता का प्रतीक है। ‘पतंग’ को एक रूपक के रूप में केन्द्र में रखकर इतनी सुदंर कहानी हिंदी में मेरी जानकारी में लगभग नहीं है। एक लम्बे अरसे के बाद किसी लेखिका ने हमारे पड़ोसी मुस्लिम देश की त्रासदी और संघर्ष को केन्द्र में रखकर एक सुदंर कहानी लिखने का साहस दिखाया है। 
बहरहाल ‘यारेग़ार’ जिस तरह से देश और काल की सीमाओं का अतिक्रमण करती है। यथार्थ की ठोस ज़मीन के साथ फैण्टेसी को साथ लेकर चलती है। वह इस कहानी को हमारे समय की अत्यंत महत्वपूर्ण एवं मार्मिक कहानी बना देती है। इस कहानी के शिल्प के जादू को, भाषा के सौंदर्य को देर तक हम अपने भीतर खुशबू और लय की तरह महसूस कर सकते हैं। 
यहां यह भी ग़ौरतलब है कि इस तरह की कहानी बहुत आसानी के साथ नहीं लिखी जा सकती है। अपने समय के वैश्विक इतिहास में पूरी तरह से धंसकर, अपने समय की बर्बरता के साथ गहरी मुठभेड़ कर ही इस तरह की वैश्विक संवेदना की कहानी लिखी जा सकती है। 
भारत से दूर सन् 1996 में बहुत पीछे जाकर अफगानिस्तान के इतिहास के गलियारों से फरहाद, अली, शीर, मूसा तथा नूर अहमद जैसे असाधारण चरित्रों को पकड़ पाना, उनके साथ एक लम्बी अनथक यात्रा पर निकल पड़ना, कोई साधारण कार्य नहीं है। यह दिव्या विजय जैसी लेखिका ही सम्भव कर सकती थी। जो न जाने कितने दिनों, सप्ताह या महीनों तक इस कहानी को जुलाहे की तरह धीरे-धीरे बुनती रही होंगी।
यह कहानी काबुल की कहानी भर नहीं है, शायद इसका एक सिरा आज के भारत से भी जुड़ता हुआ कहीं दिखाई देता है। आज जिस तरह से भारत में मज़हबी, फिरकापरस्ती का दौर चल रहा है, उस तरफ भी यह कहानी इशारा करती है। 
हमारे बहुत सारे मित्रों को हिंदी कहानी से यह शिकायत बनी रहती है कि उन्हे लम्बें समय से कोई अच्छी कहानी पढ़ने को नहीं मिली है। उन्हें ‘यारेग़ार’ जरूर और जरूर पढ़नी चाहिए। इसकी सुंदर कथा, गज़ब का शिल्प विधान और भाषा, इसके बिम्ब तथा फैण्टेसी के जादू को जानने के लिए भी इस कहानी को जरूर पढ़ा जाना चाहिए। 
तरूण भटनागर की कहानी ‘प्रलय में नाव’ एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो दुनिया को प्रलय से बचाने के लिए जंगल में सैकड़ों वर्षों से नाव बना रहा है। ईश्वर का आदेश है कि पृथ्वी पर जो भी जीव जंतु अब तक बचे हुए हैं वे प्रलय के बाद भी बचे रहें, इसलिए वह एक विशाल नाव बना रहा है। नाव बनाने वाले व्यक्ति की बस एक ही चिंता हैः ‘इस दुनिया को बचाना हैं’। ईश्वर का भी आदेश है कि  ‘किसी से मतलब न रखना, यह काम तुम्हें निर्लिप्त भाव से करना होगा’। उस व्यक्ति को विश्वास है कि वह प्रलय के बाद भी अपने नाव के माध्यम से दुनिया को बचा लेगा। 
जंगल में नाव बनाने की खबर उस इलाके के प्रमुख शासक कुमारामात्य तक पहुंच जाती है। कुमारामात्य को प्रतीत होता है कि यह शत्रुओं के गुप्तचर का कार्य हो सकता है इसलिए वह एक गुप्तचर जीवक को इसकी जानकारी लेने के लिए जंगल भेज देता है। जीवक सात माह की यात्रा के बाद उस जंगल में पहुंच जाता है, ज़हां वह व्यक्ति नाव बना रहा है। जीवक के साथ गए सैनिकों के मशाल के टपकते हुए तेल के कारण जंगल में आग लग जाती है। जंगल की आग के साथ वह नाव भी जल जाती है। वह व्यक्ति नाव को जलने से बचाने के लिए लाख कोशिशें करता है, लेकिन नाव को जलने से बचा नहीं पाता है। 
जीवक को लगता है कि उसने बेकार ही उस व्यक्ति पर शक किया। जली हुई नाव के पास बैठकर उस व्यक्ति को ईश्वर का यह आदेश याद आ रहा था ’अगर नष्ट हो जाए, टूट जाए, खराब हो जाए तो इस नाव को तोड़कर फिर से बनाना। याद रहे यह सारी दुनिया को बचाएगी ’। ‘जलकर राख हो चुकी नाव के किनारे बैठे उस आदमी को ईश्वर का आदेश याद आ रहा था। उसकी पत्नी उसके पीछे खड़ी रो रही थी। पहाड़ों पर बर्फ पड़नी शुरू हुई थी। बर्फ के गिरने की कोई आवाज़ नहीं होती। दुनिया को कभी जंगल में बनाई जा रही नाव की आवाज़ सुनाई नहीं देती ’। 
इस कहानी में देहली ए कुहना के सुलतान नासिरूद्दीन महमूद का और उस दौर के रंगसाज अबू हसन जैसे पात्रों का सृजन कहानीकार ने किया है। अबू हसन बहुत सुदंर चित्र बनाता था उसने ही इस विशाल नाव का एक चित्र बनाया था। लेखक इसका चित्रण करते हुए लिखते हैं ‘बर्फ के ऊंचे पहाड़ों के पास से कभी गुजरते हुए जंगलों में अबू हसन को एक विशाल नाव दिखाई दी थी। यह इतनी विशाल थी कि बहुत दूर से ही वह जंगल के पेड़ों से बहुत ऊपर नाव की कुदास पर सीधे ऊपर उठे हुए आसमान के बीच तक फैले थे’।
काजी ए लश्कर जो जंगल के रास्ते से लौट रहा था उसने अबू हसन के उस तस्वीर को देखकर उसे गैर कानूनी करार देते हुए उसे जला देने का हुक्म दिया। सुल्तान की लश्कर के एक अदने से लड़ाके ने सरवर की नज़रों के सामने उस तस्वीर को जला दिया। कुमारामात्य, काजी ए लश्कर की क्षेपक कथाओं के माध्यम से लेखक ने सत्ता के चरित्र को उजागर किया है। 
जंगल में नाव बनाने वाले इस व्यक्ति को देखकर लोगों की राय है कि यह सनकी और संदिग्ध व्यक्ति है। उस व्यक्ति का चरित्र चित्रण करते हुए कहानी में कहा गया है: ‘अपनी नाव को वह इस तरह निहारता है जैसे कोई मां अपने बच्चे को निहारती है। वह नाव की मरिया और दुबांल के पास जाकर गौर से देखता है। लकड़ी के फट्टों को एक के ऊपर एक कसकर तैयार की गई दुबांल पर वह हाथ फेरता है। कील से ठोंककर मजबूत किए गए हर जोड़ को वह कुल्हाड़ी के बट से ठोंककर जांचता है। 
वह अकेला था और यह बात उसे उदास करती थी। पर नाव बनाने और उसकी जांच करने का खयाल उसे चहकाता था, खुश करता था, उसे किसी की जरूरत न थी। वह खुद में मगन था। उसके सपनों में प्रलय के हरहराते पानी में बेखौफ चलती नाव के दृश्य थे। ऊंची और खौफनाक लहरों के बीच सारी कायनात को अपने साथ महफूज रखने वाली विशाल नाव उसके ख्वाबों में रोज आती थी ’। 
प्रलय में नाव बनाने वाला अकेला है। केवल उसे ही प्रलय से दुनिया को बचाने की चिंता है। दुनिया से दूर जंगल में दुनिया को बचाने के लिए नाव बनाने वाले इस मनुष्य की चिंता आखिर क्या व्यंजित करती है? उस व्यक्ति के मार्फत लेखक की इस चिंता को भी समझने की जरूरत है। लेखक की यह चिंता कोई मामूली या क्षेत्रीय चिंता नहीं है। यहां लेखक की चिंता का फलक बेहद व्यापक है, यह देशकाल से परे एक वैश्विक चिंता है। 
जिस तरह यह दुनिया नष्ट हो रही है, या इसे नष्ट की जा रही है। वह आज पूरी दुनिया में चिंता का विषय है। यहां यह याद किया जाना भी बेहद जरूरी है कि स्वीडन की सोलह वर्षीया छात्रा ग्रेटा थनबर्ग को दुनिया को बचाने के लिए आंदोलन का दामन थामना पड़ रहा है। ग्रेटा थनबर्ग की आवाज़ ने पूरी दुनिया को विचलित कर दिया है। ग्रेटा थनबर्ग भी दुनिया को प्रलय से बचाने की मुहिम में शामिल है। 
तरूण भटनागर की चिंता का फलक व्यापक है। वह न केवल दुनिया को विनाश से बचाना चाहता है बल्कि वह इसे बचाने के लिए एक विशाल नाव बनाने की कल्पना भी कर रहा है। इसलिए वह इस कथा में एक ऐसी फैण्टेसी की रचना करता है जो अपने आप में एक महान फैण्टेसी है। 
कथा आगे बढ़ती है। अब यह जंगल दुनिया की नज़रों से दूर नहीं रह गई थी। संसार में जंगल खत्म हो रहे थे इसलिए इस आखिरी बचे हुए जंगल में लोगों का आना जाना बढ़ रहा था। उस जंगल में इस विशाल नाव को देखकर लोग खुश होते हैं और इसकी तस्वीरें खींचते हैं। 
नाव बनाने वाला व्यक्ति बाद में पेड़ों को बचाने के लिए एक लालची ठेकेदार से नाव बनाने के लिए लकड़ी खरीदने लगता है। वह उस ठेकेदार पर भरोसा कर उसके चंगुल में फॅस जाता है। वह यह नहीं जानता कि उस लालची ठेकेदार से लकड़ी खरीदना, उसकी सलाह पर अमल करना, उस पर भरोसा करना उसके लिए उचित नहीं है। ठेकेदार ने बिना उसकी जानकारी के नाव देखने आने वाले लोगों को टिकट बेचकर पैसों की वसूली करना भी शुरू कर दिया था।
कहानी में अंत में प्रलय की शुरूआत हो जाती हैं। कहानी के अंत में लेखक हमें बताते हैं कि दुनिया में जंग छिड़ी हुई है तभी उत्तर धु्रव हिमखंड तेजी से पिघलने शुरू हो गए। प्रलय के बाद लाशों के ढ़ेरों को, रोते बिलखते लोगों के चित्र देखकर लोग खुश होते। रासायनिक बमों और परमाणु हथियारों के हमले से पृथ्वी का तापमान बढ़ता जा रहा था। समुद्र का पानी अपनी सीमा पार कर शहरों और कस्बों में दाखिल हो रहा था। केवल नाव बनाने वाले व्यक्ति को ही यह पता था कि प्रलय पूरे दो वर्षों तक दुनिया को नष्ट करती रहेगी। 
प्रलय के पश्चात् का चित्रण करते हुए लेखक कहते है कि वह नाव लहरों पर थपेड़े खाती चली जा रही है। उस नाव में नाव बनाने वाला व्यक्ति निपट अकेला है। काले आकाश ने सूरज को अपने भीतर दफन कर लिया। दूर तक अंधेरे में हहराता और गरजता समन्दर था, कहीं कुछ न दीखता था। नाव में रोशनी न हो पाती थी। तेज चलती हवाएं रोशनी को बुझा देती थी। 
ऐसी ही एक रात में नाव की धरण टूट जाती है और नाव में पानी भरने लगता है। आदमी ने इस नाव में अनेक जीव जंतुओं को भी बंद कर रखा था जिसमें से कई प्राणी नाव में पानी भरने तथा टूट-फूट के कारण बाहर निकल आते है, इनमें से कई मांसाहारी जानवर भी हैं। ये मांसाहारी जानवर उस व्यक्ति पर टूट पड़ते हैं। तीन आदमखोर जानवर उसकी छाती पर खड़े हो जाते हैं क्योंकि उसने ईश्वर के हिदायत का उल्लंघन किया था। एक झूठे इंसान पर भरोसा कर ईश्वर के कायदे को तोड़ा था। इस कहानी का अंत कुछ इस प्रकार से होता है ‘वह अब सिर्फ आदमखोरों का निवाला था और ईश्वर उससे बेतरह नाराज़ था’।  
एक ईमानदार व्यक्ति जो चुपचाप अपना काम करने में यकीन रखता हो। पूरी दुनिया को प्रलय से बचाने के लिए वर्षों से जंगल में नाव बना रहा हो। एक ठेकेदार के संगत में आने से किस तरह ईश्वर के कोपभाजन का शिकार हो जाता है, एक शहरी आदमी के छल का शिकार हो जाता है इसे समझने की ज़रूरत है। 
यहां आदमी भी एक रूपक है, नाव भी और ईश्वर भी। इन रूपकों के अर्थ व्यापक हैं। यह कहानी आज की दुनिया की कहानी है खासकर उस दुनिया को जिसे हम तेजी से नष्ट करते जा रहे है। तरूण भटनागर की किस्सागोई, शिल्प विधान और भाषा इस कहानी की ताकत हैं। 
’नया ज्ञानोदय’ के कहानी विशेषांक में प्रकाशित इन दोनों कहानियों का हिंदी कथा साहित्य में स्वागत होना चाहिए। ‘यारेग़ार‘ और ‘प्रलय में नाव’ हिंदी कथा साहित्य में किसी उपलब्धि से कम नहीं है।