डगमग राहों का पथिक: बच्चन की आत्मकथा



Title: डगमग राहों का पथिक: बच्चन की आत्मकथा

Article-ID 202006011/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.2 May-August 2020 Language::Hindi                                                

Domain of Study: Humanities & Social Sciences

                                                                      Sub-Domain: Literature-Criticism

राम प्रकाश द्विवेदी 

 एसोसिएट प्रोफ़ेसर, डॉ० भीमराव अंबेडकर कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-110094, भारत

[E-mail: ram@globalculturz.org]   [Mob:+91-9868068787]                                                                                                                                            


Note

Harivansh Rai Bachchan is renowned poet and author of Hindi language.  He has authored a detailed autobiography which is widely read and gained respect among scholars, students and reearchers. A short-version of his four-volume writings were compiled by poet Ajit Kumar. The below article focuses on this particular book and explains the major events and contributions of Mr. Bachchan’s life. It also hilights important biographies written in Hindi language.  

  

आत्मकथा लेखन एक आधुनिक विधा है। हिंदी की पहली आत्मकथा बनारसीदास जैन की ‘अर्धकथानक’ मानी जाती है। आत्मकथा लेखन के क्षेत्र में सर्वाधिक ख्याति मिली महात्मा गाँधी को, जिनकी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ विश्व स्तर पर प्रसिद्ध हुई। डॉ० राजेंद्र प्रसाद की ‘आत्मकथा’ भी एक अनूठी रचना है। हिंदी साहित्यकारों में बाबू श्यामसुंदर दास की ‘मेरी आत्मकहानी’,पांडेय बेचन शर्मा उग्र की ‘अपनी खबर’, बाबू गुलाब राय की ‘मेरी असफलताएँ’, सेठ गोविंद दास की ‘आत्म निरीक्षण’राहुल सांकृत्यायन की ‘मेरी जीवन यात्रा’, यशपाल की ‘सिंहावलोकन’ चतुरसेन शास्त्री की ‘यादों की परछइयाँ’ अज्ञेय की ‘लिखि कागद कोरे’ आदि की रचनाएँ अपने समय अौर समाज की नब्ज़ को टटोलती हैं। आज जब दलित अौर  स्त्री स्वर साहित्य जगत में मुखर हो रहा है तब स्वाभाविक ही है कि दलितों अौर स्त्रियों की आत्मकथाएँ हमारे समक्ष आएँ। इसी क्रम में मोहनदास नैमिशराय की ‘अपने-अपने पिंजरे’, अोमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जूठन’, सूरज पाल चौहान की  ‘तिरस्कृत’ आदि आत्मकथाअों का आगाज हुआ। इन रचनाअों का तेवर बदला हुआ है। इनमें एक आक्रोश है तो एक आकांक्षा भी।

दलित आत्मकथाएँ शोषण के विरूद्ध आक्रोश से भरी हैं तो बराबरी का हक पाने की तीव्रतर आकांक्षा भी उनमें प्रबल रूप में विद्यमान है। अोमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा पर एक टिप्पणी में कहा गया है कि जूठन अोमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकहानी मात्र नहीं है वरन् यह सदियो से मूक भार से पशुअों से भी बदतर अपमानित अौर लांछित जीवन जीने वाले समाज की सच्ची कहानी है [1]। दलित आत्मकथाएँ वैयक्तिक आग्रहों पर बल न देकर सामाजिक दुराग्रह का पर्दाफाश करती अौर अपने सम्मान का बिगुल बजाती हैं। स्त्रियों के द्वारा लिखी गई आत्मकथाअों में एक प्रकार की घुटन अौर बंधनकारी स्थिति से मुक्ति पाने की बेचैनी अौर छटपटाहट मौजूद है। पितृसत्ता की लौह-भीति को दरकाने की लालसा इन रचनअों का केंद्रीय स्वर है। प्रभा खेतान की ‘अन्या से अनन्या’,मन्नू  भंडारी की ‘एक कहानी यह भी’,अनामिका की ‘एक गो शहर एक ठो लड़की’ आदि रचनाएँ स्त्री आत्मकथा की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं। मन्नू जी ने अपनी आत्मकथा पर ‘स्पष्टीकरण’ देते हुए कहा है कि आजतक मैं दूसरों की जिंदगी पर आधारित कहानियाँ ही ‘रचती’ आयी थी, पर इस बार मैंने अपनी कहानी लिखने की जुर्रत की है। है तो यह जुर्रत ही क्योंकि हर कथाकार अपनी रचनाअों में भी दूसरों के बहाने से कहीं न कहीं  अपनी ज़िदगी के, अपने अनुभव के टुकड़े ही तो बिखेरता रहता है। कहीं उसके विचार अौर विश्वास गुंथे हुए हैं तो कहीं उसके उल्लास अौर अवसाद के क्षण------कहीं उसके सपने अौर उसकी आकांक्षाएँ अंकित हैं तो कहीं धिक्कार अौर प्रताड़ना के उद्गार [2]। स्त्री आत्मकथा का मिजाज बिल्कुल अलग दीखता है। परिवार अौर समाज की नयी यथार्थ-परतों का उद्घाटन इनमें हुआ है। इसप्रकार हिंदी आत्मकथा एक नये मुकाम की अोर अग्रसर है।

विषय-प्रवेश

बच्चन जी की प्रसिद्ध कविता ‘मधुकलश’ की पंक्तियाँ हैं- ‘तीर पर कैसे रुकूँ मैं आज लहरों में निमंत्रण।’ बच्चन जी ने जीवन के महासागर में जमकर छलांग लगाई अौर उसके बीच खूब तिरे। एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे बच्चन जी का जीवन संघर्ष अौर संताप की अनूठी गाथा है। आत्मकथा लेखन के उद्देश्य को रेखांकित करते हुए प्रो० नित्यानंद तिवारी लिखते हैं कि आत्मकथा, स्वयं लेखक द्वारा अपने जीवन का वर्णन है। प्राय: दो उद्देश्यों को लेकर आत्मकथा लिखी जाती है-(1) आत्मनिर्माण या आत्म-परीक्षण अौर (2) दुनिया अौर समाज के जटिल परिवेश में अपने आपको जानने-समझने की इच्छा [3]। बच्चन जी की आत्मकथा में ये दोनों ही उद्देश्य बड़े स्पष्ट तौर पर उभरते हैं। 

लेखक का परिचय

बच्चन जी का जन्म इलाहाबाद के निकट प्रतापगढ़ जिले के पट्टी नामक गाँव में 27 नवंबर, 1907 ई० में हुआ। इनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव अौर माँ श्रीमती सरस्वती देवी थीं। इलाहाबाद के कायस्थ परिवार में जन्में बच्चन जी का नाम एक भारतीय रूढ़ि से जुड़ा हुआ है। जब किसी परिवार में बच्चों की असामयिक मृत्यु हो जाती है तो उन्हें बचाने के लिये किसी दूसरे के हाथ बेचने की प्रथा का निर्वाह किया जाता है। बच्चन जी के परिवार ने भी इसी प्रथा का निर्वाह किया अौर हरिवंश राय के साथ ‘बच्चन’ नाम जुड़ गया। एक अन्य संदर्भ के अनुसार इनको बाल्यकाल में बच्चन कहा जाता था जिसका शाब्दिक अर्थ बच्चा या संतान होता है। इनकी शिक्षा उर्दू अौर अंग्रेजी भाषाअों में हुई। वे अपनी उच्च शिक्षा के लिये प्रयाग अौर कैम्ब्रिज गए।उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से अंगरेजी में एम ए और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पीएच डी किया । 1926 में उनका पहला विवाह श्यामा से हुआ था। तब उनकी उम्र 19 वर्ष थी अौर श्यामा मात्र 14 वर्ष की थी। 1936 में श्यामा की क्षयरोग से मृत्यु हो गयी। इसके पाँच वर्ष बाद उनका तेजी से विवाह हुआ जो गायन अौर रंगमंच से संबद्ध थीं। इनके दो पुत्र हुए अमिताभ अौर अजिताभ। अमिताभ हिंदी सिनेमा के शिखर-पुरुष बन चुके हैं।

उन्होंने  इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन से अपने कॅरियर की शुरुआत की। विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषज्ञ के रूप में भी उनकी नियुक्ति हुई। बाद में वे भारत सरकार द्वारा राज्य-सभा के सदस्य के रूप में मनोनीत हुए। 

उनकी कृति ‘दो चट्टाने’ को 1968 में हिन्दी कविता का साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मनित किया गया। इसी वर्ष उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के कमल पुरस्कार से भी नवाज़ा गया था।बिड़ला फाउन्डेशन ने उनकी रचनाअों के लिये उन्हें सरस्वती सम्मान दिया। 18 जनवरी 2003  को मुम्बई में बच्चन जी का देहावसान हो गया। हिंदी के लोकप्रिय कवि अौर अनूठे रचनाकार का अवसान हमारे लिये एक रिक्ति छोड़ गयी।

लेखक का रचनात्मक अवदान

कविता संग्रह

तेरा हार (1932), मधुशाला(1935), मधुबाला (1936), मधुकलश (1937), निशा निमंत्रण(1938), एकांत संगीत (1939), आकुल अंतर (1943), सतरंगिणी (1945), हलाहल (1946), बंगाल का काव्य (1946), खादी के फूल (1948),सूत की माला (1948), मिलन यामिनी (1950),प्रणय पत्रिका (1955),धार के इधर उधर (1957), आरती और अंगारे (1958), बुद्ध और नाचघर (1958),त्रिभंगिमा (1961),चार  खेमे चौंसठ खूंटे (1962), दो चट्टानें (1965), बहुत दिन बीते (1967), कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968), उभरते प्रतिमानों के रूप (1969), जाल समेटा (1973)

अन्य रचनाएँ

बचपन के साथ क्षण भर (1934), खय्याम की मधुशाला (1938), सोपान (1953),मैकबेथ (1957),जनगीता (1958), ओथेलो(1959), उमर खय्याम की रुबाइयाँ (1959), कवियों के सौम्य संत: पंत (1960), आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960), आधुनिक कवि: (1961), नेहरू: राजनैतिक जीवनचित्र (1961), नये पुराने झरोखे (1962), अभिनव सोपान (1964), चौसठ रूसी कविताएँ (1964), डब्लू बी यीट्स एंड औकल्टिज़्म (1968), मरकट द्वीप का स्वर (1968), नागर गीत) (1966), बचपन के लोकप्रिय गीत (1967), हैमलेट (1969)भाषा अपनी भाव पराये (1970), पंत के सौ पत्र (1970), प्रवास की डायरी (1971), टूटी छूटी कड़ियां (1973), मेरी कविताई की आधी सदी (1981),  सोहं हंस (1981), आठवें दशक की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कवितायें (1982), मेरी श्रेष्ठ कविताएँ (1984)

बच्चन की संक्षिप्त आत्मकथा:एक विवेचन

हरिवंशराय बच्चन ने अपनी आत्मकथा चार भागों में प्रस्तुत की है। ये चार भाग हैं- 

1- क्या भूलूँ, क्या याद करूँ(1969)

2- नीड़ का निर्माण फिर (1970)

3- बसेरे से दूर (1978)

4- दशद्वार से सोपान तक (1985) ।

इन चारों खण्ड़ों का समावेश कर हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ० अजित कुमार ने इसका संक्षिप्त रुप ‘बच्चन की आत्मकथा’ नाम से प्रस्तुत किया जो नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हुई। अजित कुमार ने इस संक्षिप्त कृति का उद्देश्य और सीमा बताते हुए लिखा है कि- प्रस्तुत संक्षेपण में संपादक ने पठनीयता और अन्विति को प्रमुखता दी है....लेकिन बारह सौ पृष्ठों में से यदि हजार पृष्ठ छोड़ दिए जाएं- केवल एक सौ इकसठ पृष्ठ रखे जाएँ तो संपादक यह दावा नहीं करना चाहेगा कि उसने सब दाने यहाँ चुन लिए हैं। एक से एक नायाब मोती वहाँ छूट गए हैं। कितने ही स्थल, व्यक्ति,घटनाएँ और प्रसंग उन हजार पृष्ठों में उस भाँति गुंफित है-------- कि संपादक यदि मूल रचना का पुन: संक्षेपण करें तो संभव है, इस पुस्तक से नितांत भिन्न एक और ही पुस्तक तैयार हो जाय, जो इसी की भांति प्रीतिकर और बहुमूल्य हो [4]। बच्चन जी की आत्मकथा के व्यापक कलेवर का संक्षेपण, उसकी तारतम्यता बचाए हुए कर पाना कठिन काम था लेकिन अजित जी ने इस कृति को उतनी ही कुशलता से उपस्थित किया जितना किसी संक्षिप्त कृति के लिए जरूरी होता है। इस संक्षिप्त रचना को पढ़कर भले ही हरिवशंराय बच्चन के जीवन का संागोपांग वर्णन न समझ आता हो परंतु उनके जीवन के सघन अनुभूति के पड़ाव, बसने-उजड़ने के अड्डे, राग-विराग के क्षण अपना सिलसिला बनाते हुए हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं। कदाचित्त यह लगता है कि बच्चन जी जब अपनी आत्मकथा का तीसरा खण्ड (बसेरे से दूर) लिख चुके थे तब वे असमंजस की स्थिति में थे। पर बिदायी के बाद भी उन्हें लगा कि अपनी जीवन-संस्मरण शब्दों में अवतरित होने की माँग कर रहे हैं इसलिए आत्मकथा का चौथा भाग (दशद्वार से सोपान तक) 1985 में आया। संक्षेपण, अन्तत: एक अन्याय ही है अन्य प्रक्रियाओं -अनुवाद,रूपांतरण आदि की भाँति परंतु इसके अभाव में रचना की पहुँच और प्रभाव को सुनिश्चित कर पाना भी कई बार कठिन होता है।

       बच्चन ने आत्मकथा रचने का दर्द, उसके पीछे की करूणा का उल्लेख इन शब्दों में किया है-इतने बड़े संसार में अपने को अकेला अनुभव करने से बड़ा बन्धन नहीं। इतने बड़े संसार में अपने को एक समझने से बढ़कर मुक्ति नहीं - सामुज्य मुक्ति यही है- सबसे युक्त होकर मुक्त। बच्चन की आत्मकथा अकेलेपन की व्यथा को भी दर्शाती है, परंतु जीवन की सार्थकता पाने के लिए यह अकेलापन विद्यातक नहीं वरन् सारवान हो उठा है। बच्चन की आत्मकथा की प्रेरक शक्ति फ्रांस के महान लेखक एवं विचारक मानतेन की ये पंक्तियाँ रही है- अगर मैं दुनिया में किसी पुरस्कार का तलबगार होता तो मैं अपने आपको और अच्छी तरह सजाता बजाता और अधिक ध्यान से रंग चुनकर उसके सामने पेश करता। मैं चाहता हूँ कि लोग मुझे मेरे सरल, स्वाभाविक और साधारण स्वरूप में देख सकें [5]। बच्चन की आकांक्षा और निवेदन भी अपने पाठकों से इसी प्रकार का है।

             आत्मकथा का संक्षिप्त संस्करण बच्चन जी के इस कथन से आरंभ होता है- इस बात को मैं सबसे पहले स्मरण करना चाहता हूँ कि पुराण, इतिहास, लोक कथाओं और लोकोक्तियों में जिनको अनेक रुपों में चित्रित किया गया है , मैं उन्हीं कायस्थों का वंशधर हूँ। सबसे पहले उनके जेहन  में जो व्यक्ति आता है, वह राधा थी। उन्होंने लिखा है कि - जब मै अपनी सुधियों की रील को उलटा घुमाना शुरु करता हूँ - तो वह जाकर ठहरती है राधा पर। वे भी मेरे पिता के पिता के पिता की पुत्री - मेरे जन्म के समय बीस कम सौ बरस की। अपने पिता प्रतापनारायण और माता सुरसती के संबंधों का उल्लेख करते हुए बच्चन लिखते हैं- कुल मिलाकर प्रतापनारायण में पुरुषोचित परुषता थी, सुरसती में स्त्रियोंचित कोमलता-एक शासन करने के लिए बना था और दूसरी स्वेच्छया, दबकर नहीं शासित होने के लिए थी। अपने जन्म की घटना का वर्णन बच्चन ने इस प्रकार किया है- मैं अपने माता-पिता की छठी संतान था। मेरा जन्म 27 नवंनर को हुआ। ... मेरा नाम हरिवंश राय रखा गया। घर पर मुझे वच्चन नाम से पुकारा जाता। मेरे होने और जीने के लिए मेरी माता ने बहुत से दान-उपाय, टोटके-टामन आदि किए। मुहल्ले की किसी बढ़ी -बूढ़ी ने उन्हें सलाह दी थी कि तुम्हारे लड़के नहीं जीते तो अब जब लड़का हो तो उसे पराया सकझकर पालना पोसना। अपनी पढ़ाई की शुरुआत में वे अंग्रेंजी संस्कारों से रची-बसी पुस्तुकों के संपर्क में आए लेकिन जब वे किशोर हुए तो प्रथम विश्वयुद्ध और भारतीय स्वाधीनता संग्राम आंदोलन ने उन के मन पर अपनी अमिट छाप अंकित की। बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय, गाँधी और जब इलाहाबाद पहुँचे तो उस घटना को वच्चन ने अपनी आत्मकथा में इस तरह याद किया है- एक सूर्य अस्त हुआ,एक उदय होने लगा। एक दिन नगर भर में खबर फैल गई, महात्मा गाँधी आ रहे हैं-साथ में आ रहे हैं मुहम्मद अली, शौकत अली। वे मंच पर आए हैं - अर्जुन और भीम के बीच कृशकाय सुदामा। अली भाई तूफान उठाते हैं, गाँधी जी नयी-तुली भाषा में नयी-तुली बात कहते हैं- जैसे कोई लोटे की कलम से पत्थर पर लिख रहा हो । गाँधी के इलाहाबाद आगमन का प्रभाव वर्णित करते हुए उन्होंने नेहरू और टंडन परिवारों के गाँधी जी के साथ जुड़ने का मार्मिक वर्णन किया है। अपने प्रथम विवाह के बारे में बच्चन बताते हैं कि - बाई के बाग में रहने वाले बाबू राम किशोर की बड़ी बेटी श्यामा के साथ मेरा विवाह मई 1926 में हो गया। बाद में श्यामा की मृत्यु हो गयी। श्यामा के साथ अपने अंतिम दिनों की चर्चा बच्चन जी ने इस प्रकार की है- उसने मेरा नाम Suffering नाम देने में शायद श्यामा ने मेरे स्वभाव,मेरी प्रकृति,मेरे जीवन,मेरे व्यक्तित्व में बीज की तरह दिये मेरे कवि को भी पहचाना था। शायद उसने समझ लिया था कि कवि तो साकात वेदना -Suffering ही है। मधुशाला के प्रथम प्रकाशन और प्रथम वाचन ने बच्चन को यशस्वी कवि बना दिया। आज भी बच्चन की अक्षय कीर्ति का स्रोत यही रचना है। बच्चन ने मधुशाला को लोकप्रियता वे संदर्भ में कुछ यूँ कहा है- दिसम्बर 1933 की ‘सरस्वती’ में दस रुवाइयाँ ‘मधुशाला’ की छपी। दिसम्बर में ही मैंने हिन्दु विश्वविद्यालय,काशी के शिवाजी हाल में ‘मधुशाला’ का प्रथम सार्वजनिक पाठ किया। कभी पढ़ा था, जब बाइरन की पुस्तक प्रकाशित होती थी तब खरीदारों की भीड़ पर नियंत्रण रखने को पुलिस बुलाई जाती थी---- मैं विश्वविद्यालय के अहाते में अकेले चल नहीं सकता था। स्त्रियों के प्रति अपने आकर्षण का बेवाक वर्णन बच्चन जी ने बावजह किया है। वे लिखते हैं- मनोविज्ञान की खोज है कि प्रत्येक पुरुष में एक नारी अन्तर्निहित होती है, जैसे प्रत्येक नारी में एक पुरुष भी अन्तर्निहित होता है। मेरे व्यक्तित्व में अन्तर्निहित पुरुष से अन्तर्निहित नारी अधिक सबल है। मुझे सदा ही वे नारियाँ प्रभावित करती है, जो मुझ पर हावी हो जाती है। बच्चन जी के व्यक्तित्व पर उनके इस कथन की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। आगे चलकर वे शमशेर बहादुर सिंह के काफी नजदीक आए,घंटो बैठकर उनके सुख-दु:ख सुने। ‘निशा-निमंत्रण’ पर देहरादून में व्यतीत की गई रातों की धुंधली छाया साफ देखी जा सकती है। इलाहाबाद लौटकर उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। फिर बरेली प्रवास, अमृतसर और लाहौर में बच्चन जी के काव्य सम्मेलन हुए। जीवन आकर्षण-विकर्षण से गुजरता रहा। पंत,नरेन्द्र शर्मा आदि से बच्चन का मिलना होता रहा। आदरिस तालिबुद्दीन नामक महिला ने एक बार फिर उनकी दृततंत्री को झकझोर दिया था। अपनी इस विह्वल और बेचैन मन स्थिति का व्यौरा बच्चन जी इस तरह दिया है- नारी किशोरावस्था से ही मेरे जीवन का अंग, आवश्यकता, अनिवार्यता बन चुकी थी, चाहे मुझे दु:ख के चाहे सुख,चाहे मुझे विचलित करे, चाहे शांति दे,चाहे मेरे लिए समस्या बने,चाहे समाधान। बरेली में अपने मित्र के यहाँ रहते हुए अचानक एक शाम बच्चन से काव्य पाठ का पारिवारिक अनुरोध हुआ और उन्होंने यह काव्यांश भी पढ़ा-


                          एक भी उच्छ्वास मेरा हो सका किस दिन तुम्हारा?

                             उस नयन में बह सकी कब इस नयन की अश्रुधारा?

                             सत्य को मूंदे रहेगी शब्द की कब तक पिटारी?

                            क्या करु संवेदना लेकर तुम्हारी? क्या करूँ?


   इस पारिवारिक काव्य गोष्ठी में तेजी भी उपस्थित थी और ‘उस नयन में बह सकी कब इस नयन की अश्रुधारा’ पंक्ति ने दोनों को ऐसा झकझोरा कि फिर वे इन अश्रुबूँदों जो जुड़े तो कभी अलग नहीं हुए। स्त्री-पुरुष संबंधों की यह अनूठी, ह्रदयस्पर्शी, मार्मिक,उदात्त और भाव प्रवण तथा चिरंतन सार्वभौम कथा है जिसके बारे में बच्चन ने लिखा- पहली जनवरी,1942 की रात को याद करता हूँ तो पाता हूँ कि जब तेजी मेरे जीवन में आई, तब वह पहली नारी थी,जिनमें देवी की दिव्यता, माँ की ममता, सहचरी की सद्भावना और प्राणाधार की प्राणदायिनी धारा का मैंने एक साथ अनुभव किया और वे मुझे प्राप्त हुई थीं-न मेरी खोज से, न मेरी साधना से,न मेरे अधिकारी होने से बल्कि दैव के रहस्यपूर्ण विधान से,

                           

                   कर परिश्रम कौन तुमको आज तक अपना सका है,

                         खोजकर कोई तुम्हारा कब पता भी पा सका है,

                          देवताओं का अनिश्चित यदि नहीं वरदान तुम हो,

                           कौन तुम हो?

इसके बाद बच्चन का चंचल मन जैसे स्थायित्व पा गया एक निर्वासित व्यक्ति जैसे भूल से ही, औचक अपने घर में प्रकट हो गया हो। तेजी ने अग्निपुंज बच्चन के लिए शामक का काम किया था। कवि अब स्थिर था, गृहस्थ जीवन ने उसमें एक जवाबदेही पैदा की थी। अभिताभ और अजिताभ ‘बच्चन’ के जन्म ने उनमें गांभीर्य पैदा किया। रचना निजता के धरातल से आगे बढ़कर नए फलक की तलाश में निकली। गाँधी जी की हत्या ने बच्चन को विचलित किया। इस काले दिन को याद करते हुए उन्होंने लिखा- 30 जनवरी,1948 को महात्मा गाँधी की हत्या कर दी गयी। मेरी वाणी सात दिन बाद फूटी और अठारह मई-अभिजात की वर्षगांठ तक- 204 कविताएँ लिखकर शांत हुई। बाद को पंत जी के पन्द्रह और मेरे तिरानके-कुल मिलाकर 108 गीतों का संकलन ‘खादी के फूल’ नाम से प्रकाशित हुआ। शेष गीतों को मैंने ‘सूत की माला’ के नाम से प्रकाशित कराया।

                           ‘मिलन यामिनी’ के गीतों का रचनाकाल 1945-49 था। उसमें 100 गीत संकलित हैं। ‘मिलन यामिनी’ का प्रकाशन जुलाई 1950 हो गया बच्चन जी गोस्वामी तुलसीदास की ‘विनय पत्रिका’  की तर्ज पर ‘प्रणय यत्रिका’ लिखना चाहते थे परंतु उनकी यह ख्वाहिश कभी पूरी न हुई। ‘मिलन यामिनी’ के प्रकाशन माह में ही बच्चन जीके छोटे भाई शालिग्राम की मृत्यु हो गई वे भाई-बहनों में अकेले रह गए। बच्चन जी ने 11 वर्षो तक अध्यापन कार्य किया। इसे उन्होंने विशुद्ध जीविकोपार्जन हेतु अपनाया था, वे लिखते है कि- किसी उदात्त आदर्शवादिता में अध्यापन को मिशन मानकर उसकी ओर उन्मुख होने की बात में कहूँगा तो झूठ बोलूँगा, सच्चाई इतनी ही है कि मैंने अध्यापन को रोटी कमाने के एक ईमानदार,स्वच्छ और सुविधाजनक साधन के रुप में स्वीकार किया था। आदर्शवादिता के बिना भी बच्चन जी मेहनत से अपना लेक्चर तैयार करते थे और विद्यार्थियों के बीच खासे लोकप्रिय थे। उन्होंने अपने समकालीन अकादमिक माहौल का जीवंत चित्र अपनी आत्मकथा में प्रस्तुत किया साथ ही, अपने विभाग के जिस व्यक्ति से वे सबसे ज्यादा प्रभावित थे वह फिराक गोरखपुरी थे। ‘फिराक’ साहब का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा कि- ‘फिराक’ साहब एक खास अर्थ में चिंतक थे पर उनका चिंतन अंग्रेजी साहित्य या सामान्य रूप से साहित्य,भाषा और कविता की समस्याओं तक सीमित न था। वे बाते तर्क से करते,जोशो-खरोश से करते, व्यंग्य-विनोद से करते और कभी-कभी मुँह फट भी हो जाते। उनकी बहुत-सी बातों में हमराय न हो सकते और कुछ को न पसंद करने पर भी कुल मिलाकर मुझे उनका व्यक्तित्व आकर्षक लगता था। विश्वविद्यालय का माहौल उन्हें चुनौतीपूर्ण नहीं लगता था। रफ्तार पकड़ते-पकड़ते इसमें अचानक ब्रेक लग जाता था। कहना न होगा कि वे अध्यापन में अपनी नई कुछ खास न खोज सके और इसे उन्होंने एक ईमानदार और निरापद पेशे के रूप में ही अपनाया। आत्मकथा लेखक का एक बहुत बड़ा गुण उसकी इमानदारी है।xxx आत्ममोह से बच सकने वाले आत्मकथा लेखक में एक दूसरा गुण भी उत्पन्न हो जात है। वह गुण है अपने जीवन अौर समाज का प्रामाणिक दस्तावेज प्रस्तुत करना [6]। बच्चन जी ने अपनी आत्मकथा में ऐसे अनेक सामाजिक,राजनीतिक प्रसंगों का समावेश किया है जिससे वे तत्कालीन समय का प्रामाणिक साक्ष्य बन गयें हैं।

                    1951 ई० में ब्रिटिश काउंसिल की ओर से एक योजना स्वरुप उन्हें विदेश जाने का संयोग बैठा। उन्हें अपने लिए 5000-रुपये का इंतजाम करना था परंतु बड़ी मशक्कत के बाद भी वह हो न पाया। तब तेजी के सुझाव पर वे पंडित ज्वाहरलाल नेहरू से मिले जहाँ से उन्हें 8000- की धनराशि प्रदान की गई। बच्चन ने इस प्रसंग को याद करते हुए लिखा है कि - दिल्ली से लौटा तो कुछ भारीपन और कुछ हल्कापन साथ-साथ अनुभव करता-भारीपन,पंडित जी के प्रति कृतज्ञता के भार से, हल्कापन-एक भारी आर्थिक चिंता के दूर तो जाने से। जैसे-तैसे बच्चन जी लंदन पहुँच ही गए। कवि ईट्स की रचनाओं पर शोध करने। कैम्ब्रिज को देखकर वे बोले- मैंने पहली ही दृष्टि में कैम्ब्रिज को समाहिक और ऊरध्व -दोनों आयामों में देखा और मैं अभिभूत हो गया- उसकी सौम्य सुंदरता पर मुग्ध,उसकी चमत्कारी देन के प्रति नतमस्तक। ईट्स के किस पक्ष पर कार्य किया जाय यह चयन कठिन था। पहले उन्होंने सोचा कि ‘ईट्स पर भारतीय दर्शन और दंतकथा का प्रभाव’ सार्थक विषय हो सकता है परंतु अपने निर्देशक हेन से मिलने के बाद उन्होंने विषय का चयन किया-W.B.Yeats and the Irrational (डब्ल्यू.बी.ईट्स और अतार्किकता) ईट्स के बारे में वे लिखते है कि - जिस भारत के प्रति वे आकर्षित थे,वह न तो ऐतिहासिक भारत था, न राजनीतिक, वह था श्रीमद्भागवत पुराणकार के शब्दों में: ‘भारतमद्भूतम’ -अद्भुत भारत,वह चाहे उसके पुरा साहित्य में मिले, चाहे उसके दर्शन में,चाहे उसकी दंत कथाओं में,चाहे उसके अन्धविश्वासों में। ईट्स पर कार्य करते हुए वे नियमित अपने निर्देशक मि०हेन से मिलते रहे और उनके व्यक्तित्व से गहरे प्रभावित हुए-खासतौर से उनकी कविता-पाठन की विधि से वे लिखते हैं कि - यह मि०हेन जैसे कुशल कीमियागार का ही काम था कि वे ‘काव्य’ को ‘शास्त्र’ की चर्चा से ज्ञानमय और ‘शास्त्र’ को ‘काव्य’ की चर्चा से रसमय कर देते थे।

                     शोध-कार्य के दौरान बच्चन जी को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उनके चरित्र के बारे में भी अनेक अफवाहें उड़ी। पंडित नेहरू जब इंग्लैंड पहुँचे तो उन्हें भी इन अफवाहों पर भरोसा हो गया था। बाद में बच्चनजी ने अपने आर्थिक संकटों का समाधान खुद ही निकाल लिया। ईट्स पर शोध-सामग्री जुटाने हेतु वे डब्लिन की ओर रूखसत कर गए जहाँ उनकी मुलाकात मिसेज ईट्स से हुई जिनके बारे में बच्चन लिखते हैं कि उन सी पतिपरायणा मैंने पश्चिम में शायद ही कोई दूसरी देखी हो। आयरजैंड यात्रा के साथ उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण गीत भी लिखा- ‘तुम्हारे नील झील से नैन,नीर-निर्झर से लहरे केश।’ उधर बच्चन अपने शोधकार्य में लगे थे इधर तेजी संघर्षरत थी। बच्चन ने तेजी के व्यक्तित्व पर मार्मिक टिप्पणी करते हुए लिखा है कि-तेजी अद्भुत मनोशिराओं की महिला हैं। यदि सामान्य परिस्थितियों मेम वे फूलमाला का समान कोमल हो सकती हैं तो चुनौती मिलने पर लौह-दंड के समान कठोर भी हो सकती हैं। बच्चन का शोध कार्य पूरा हो गया। वे अब ‘डॉक्टर’ हो गए थे। लौटते वक्त वे अपने निर्देशक मि०हेन से मिलने गए साथ ही,उनकी ईट्स पर केन्द्रित पुस्तक- ‘The Lonely Tower’ पर उनके हस्ताक्षर की इच्छा जाहिर की। मि०हेन ने पुस्तक पर लिखा- ‘With gratitude for many wrong things which owner has pointed out in this book- Tom Rice Hen.’ बच्चन ने मि०हेन को अपनी आत्मकथा में बड़ी ही कृतज्ञता से याद किया है।[पृ० 115]

                           भारत लौटने पर उन्होंने सबसे पहले तेजी की क्षतिपूर्ति की और गृहस्थी की पटरी पर लौटाने का प्रयास किया। यूनिवर्सिटी खुलने पर 1000 रूपये मिले और अध्यापन शुरू हो गया। पंडित नेहरू जब पुन: इलाहाबाद आगमन हुआ तो बच्चन - तेजी को साथ देखकर वे प्रसन्न हुए। इस बीच बच्चन ने कवि-सम्मेलनों में शिरकत करने के बदले पारिश्रमिक की प्रथा भी डाली। कैम्ब्रिज से डिग्री लेकर लौटने पर उनका ‘भारतीय संस्कृति संसद’ द्वारा कलकत्ता में सम्मान किया गया। इस बीच अमिताभ और अजिताभ शेरवुड, नैनीताल भेज दिए गए और बच्चन जी विदेश मंत्रालय कें एक सेक्शन का हेड बना दिया गया जिसका उद्देश्य था राजनयिक काम-काज में हिन्दी को एक सक्षम माध्यम बनाना। इसीदौर काव्य-पाठ के लिए विभिन्न जगहों पर आमंत्रित हुए विदेश मंत्रालय में काम करते हुए उन्हें तेजी को अपने साथ रखने की चुनौती थी। काफी मशक्कत के बाद उन्हें एक नहीं दो-दो मकान मिल गए लेकिन उन्होंने 77,साउथ एवेन्यू के फ्लैट को अपने रहने के लिए चुना। पंडित नेहरू के घर पर एक आमंत्रण को बच्चन ने बड़े ही मार्मिकता से याद किया है। इसमें इंदिरा जी, राजीव,संजय,तेजी और अजिताभ तथा अमिताभ भी शामिल थे। बच्चन जी लिखते है कि- उस दिन पंडित जी की मुद्रा,उनका व्यवहार देखकर मुझे तो यही लग रहा था कि चार बच्चों के बीच एक बड़ा बच्चा बैठ गया है- बच्चे सा ही सरल,निश्चल,विनोद प्रिय,हँसमुख। यह मानव-स्वभाव का ही चमत्कार था कि एक ऐसा व्यक्ति जो देश दुनिया की गंभीर और जटिलतम समस्याओं को सुलझाने में उलझा रहता था, कैसे,जब चाहता था, बच्चे-सा बन जाता था। इस प्रकार बच्चन दिल्ली की आबोहना में रम गए थे। विदेश मंत्रालय की कामकाजी आदर्श हिन्दी के बारे में उनकी राय ‘संस्कृत फारसी प्रभाव से युक्त’ परंतु उसके ‘दवाब से मुक्त’ हिन्दी की थी। इसी बीच हिन्दी अनुभाग में सहायक अनुवादक के तौर पर श्री अजित शंकर चौधरी (अजित कुमार, प्रसिद्ध कवि एवं लेखक तथा इस पाठ्यपुस्तक के संक्षेपणकर्ता) के आने से उनका कार्यभार कुछ हल्का हुआ।

          दिल्ली में रहते हुए बच्चन ने शेम्सपीयर के विभिन्न नाटकों का अनुवाद और प्रस्तुति की,अपनी अनेक रचनाएँ प्रकाशित करवाई, मंत्रालय की उठा-पटक से जुझते रहे और अपने परिवार को ऊर्जा देते रहे। उन्होंने लिखा- मनुष्य को सीखना चाहिए और नियति अपने तरीके से सिखाती भी है,और यह कोई छोटी सीख नहीं है कि जीवन में निराशा भी होती है, और मनुष्य को कैसे इस निराशा को झेलना चाहिए,और कैसे उसका सदुपयोग कर लेना चाहिए। 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। इसने देश के बुद्धिजीवी राजनेताओं और आम लोगों सबको हिला दिया लेकिन इसका सबसे बड़ा आघात झेला पंडित नेहरू ने। बच्चन ने लिखा चीनी आक्रमण उनके लिए देश के किसी भूमिभाग पर आक्रमण मात्र न था; वह उनके आदर्शों, स्वप्नों,आस्थाओं-विश्वासों पर वज़्राघात था। [पृ० 135]  1965 ई० में जब महाकवि ईट्स की जन्मशती पड़ी तो बच्चन जी ने अपना शोध प्रबन्ध “W.B.-Yeats and Occultism” प्रकाशित कराया जिसके लिए मि०हेन ने एक सारगर्णित भूमिका लिखी। इसी वर्ष उनका काव्य संकलन ‘दो चट्टानें’ प्रकाशित हुआ जिस पर 1967 ई० में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।


              1971 में ‘पंत के दो सौ पत्र’ प्रकाशित हुए। यह प्रकाशन एक दुखद घटना ही बन गया। बच्चन ने लिखा है कि इन पत्रों के प्रकाशन के बाद- पंत जी ने मुझको लिखा था कि संकलन में से 10 पत्र या तो निकाल दिए जाँए या उनमें से कुछ अंश, जो वे कहें , हटा दिए जाएँ। मैं उसके लिए तैयार न था। इससे नाराज होकर पंत जी ने अपने वकील के द्वारा मेरे खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया। हाँलांकि बच्चन यह मुकदमा जीत गए लेकिन ‘पंत जैसा आत्मीय’ वे हार गए थे। [पृ० 145] 

              1973 में बच्चन जी एक महत्वपूर्ण काव्य संकलन निकाला जिसका नाम था ‘जाल समेटा’ इसी वर्ष मई में अमिताभ की फ़िल्म जंजीर भी हिट हुई और जून में जया-अमिताभ का परिणय। बच्चन जी लिखते हैं कि- ‘ तेजी  और मैंने तय किया कि जया नववधू के रुप में आएगी तो हम दोनों औपचारिक सत्कार के बाद उसके कहेंगे- गृहलक्ष्मी, भाग्यलक्ष्मी,कुललक्ष्मी बनकर इस घर में पाँव रखो।’ बच्चन जी जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं में परिवर्तन और नव्यता के आकांक्षी थे। जैसे वे अपने रचनाकर्म के प्रति सजग रहें वैसे ही उन्होंने पारिवारिक दायित्व का निर्वाह किया। रचनात्मकता और जवाबदेही दोनों का बड़ी समर्थ गति से उन्होंने संचालन किया। परिवार के सुख-दुख, बीमारियाँ और छोटे-मोटे उत्सव बड़े सरोकारों के साथ-साथ उनके लिए महत्त्वपूर्ण बने रहे। ‘आत्मकथा’ में ये चिताएँ लगातार अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं जिससे पता लगता है कि वे इन पारिवारिक घटनाओं के प्रति कितने संजीदा थे। संक्षिप्त आत्मकथा के अंतिम अंश अमिताभ बच्चन और अभिषेक के इर्द-गिर्द बने हुए हैं। अमिताभ बच्चन के फिल्म के महानायक बनने की प्रारंभिक अनुगूँज हरिवंशराय जी ने सुन ली थी। अंतिम भाग मूलत: एक कलाकार (पिता) का दूसरे कलाकार(पुत्र) की सफलता देखने ,उसी में अपनी भी सफलता के दर्शन करने जैसा है। कला का एक नवीन शिखर जैसे बच्चन अपने पुत्र में देखते हैं।          

                          आत्मकथाअों के बारे में लिखा गया है कि, सच तो यह है कि भारत का सामजिक इतिहास लिखने के लिये ये महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रदान करती हैं। शिल्प की दृष्टि से इनमें पत्र, डायरी, संस्मरण आदि सबका सम्मिलित रूप मिलता है। ये प्रेरणा की अक्षय स्रोत है तथा पढ़ने में उपन्यास का-सा आनंद  देती हैं [7]। बच्चन की आत्मकथा आम आदमी के जननायक बनने की कथा है अौर इसमें भी इन गुणों को देखा जा सकता है। यह यात्रा विभिन्न पड़ावों से गुजरती हुई आम जनजीवन के संघर्ष,सपनों, आकांक्षाओं एवं अभिलाषाओं को उजागर करती हैं। इस आत्मकथा में हरिवंशराय बच्चन का आत्म बिम्ब तो उभरता ही है,साथ ही सामान्य जन भी अपने को इससे तराकार पाता है। बच्चन की ज़िन्दगी बिल्कुल मध्यवर्गीय आम व्यक्ति की तरह रही। वे इस अर्थ में कुशल जीवन साधक थे कि सामाजिक जद्दोजहद से उलझते हुए भी उनकी एक नज़र अपने पारिवारिक सुख-शांति पर टिकी रहती थी। अनेक तरह की प्रतियोगिता - प्रतिद्वन्द्विता के बीच भी वे कभी अमानवीय नहीं हुए और पथ विचलित भी नहीं। काव्य साधना का उनका चस्का उन्हें लगातार सृजनात्मक बनाए रहा। बाहर के घात-प्रतिघात को समन्वित करने का सबसे बड़ा जरिया उनके लिए कविता ही थी।

                  हरिवंशराय की आत्मकथा में समय के तीनों काल खण्ड- अतीत,वर्तमान और भविष्य सघन रूप में उपस्थित हैं। आरंभिक अंश जहाँ पूर्वजों की स्मृतियों से भरा पड़ा है  वहीं अंतिम में अमिताभ और अभिषेक के प्रसंग भविष्य के सपनों को उजागर करते हैं। मानव-प्रकृति का गहरा विश्लेषण भी इसमें व्यापकता से उपलब्ध होता है। बच्चन ने मानव जनित दुर्बलताओं को छुपाया नहीं वरन् बेवाकी से उसका वर्णन किया। स्त्री-पुरूष संबंधों का जिस मार्मिकता और यथार्थपरकता से वर्णन बच्चन जी ने लिखा है वह अन्यत्र दुर्लभ है।

        छोटे-छोटे प्रसंगों,चाहतों से बच्चन बड़े होते गए। बीज से वटवृक्ष  बनने की कथा जैसा वृत्त बच्चन का है। इस आत्मकथा में हर मनुष्य अपने लिए कुछ न कुछ पा ही जाता है, यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है और संभवत: इसकी प्रसिद्धि का मूलाधार भी।

जीवनी,संस्मरण अौर आत्मकथा एक-दूसरे के करीब माने जाने वाली विधाएँ हैं। इनकी आपसी विभाजक रेखाएँ हैं भी काफी धुँधली। प्रो० राम स्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं कि, जीवनी की तुलना में हिंदी में आत्मकथा कम लिखी गई हैं। आत्मकथा लेखन में विनम्रता का गुण उतना अपेक्षित नहीं, जैसा सामन्यत: समझा जाता है, जितना निर्वैयक्तिकता का [8]। बच्चन जी सम्भवत: निर्वैयक्तिकता अपनी आत्मकथा में निर्वाह न कर सके हैं। जहाँ-तहाँ उनके निजी आग्रह प्रबल हो उठे हैं। हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा एक ऐसे  व्यक्ति की जीवन-प्रक्रिया उद्घाटन करती जो निरंतर संघर्ष अौर सफलता के मध्य अपने पड़ाव तय कर रहा है। इस आत्मकथा में जीवन के बहुआयामी चित्र उपस्थित हैं जो प्रेरणा के स्रोत बनते हैं। आत्मकथा लेखन के लिये लेखक के पास साहस अौर सुदृढ़ भाषा की जरूरत होती है। इस आत्मकथा के रचनाकार के पास ये दोनों ही बातें मौजूद थीं। आत्मकथा के विभिन्न प्रसंग बड़ी रोचकता से बुने गये हैं। 

 निष्कर्ष

आत्मकथाएँ हमारे जीवन के सत्य को एक निजी नजरिये से पहचानने का उद्यम करती हैं। संभव है कि हमारा जीवन अन्य लोगों ने किसी अौर ही तरीके देखा हो पर आत्मकथा में निजी संदर्भ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हो उठते हैं।हमारे जीवन के प्रति किसी अन्य की दृष्टि आत्मकथा में परोक्ष रूप से उपस्थित होती है। बच्चन जी का जीवन अनुभव कैसा था अौर वह किन परिस्थितियों के भीतर गढ़ा गया था इसे वे अपनी आत्मकथा में बखूबी प्रस्तुत करते हैं।उनकी आत्मकथा में निजता के अतिक्रमण का भी उद्यम मिलता है। आजादी के आंदोलन अौर आजाद भारत की अनेक छटपटाहट अौर बेचैनियों को अनेक जगहों पर उभारा गया है। बच्चन जी ने एक सुदीर्घ अकादमिक यात्रा भी की है जिससे तत्कालीन शैक्षिक माहौल का परिचय प्राप्त होता है। हरिवंशराय बच्चन के अनेक राजनेताअों के साथ प्रगाढ़ संबंध थे जिससे उन्होंने अपने समय की राजनीति को भी गहराई से देखा था। तत्कालीन राजनीति पर उनकी आत्मकथा में महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ मिलती हैं। यह कृति निजता अौर सामाजिकता का अन्तर्संवाद रचती है अौर आम जीवन के अनुभव को खास बना देती है।बच्चन जी की आत्मकथा के अनेक प्रसंग ऐसे हैं जो आम आदमी की संभावना अौर स्वप्न को उजागर करते हैं। बच्चन जी के संघर्ष में उसे अपने सरोकार प्रतिबिंबित होते नजर आते हैं।



संदर्भ

[1]  भाषा साहित्य अौर संस्कृति, विमलेश कांति वर्मा,मालती(सं०),अॉरियंट लाँगमैन,पृ०302

[2]  एक कहानी यह भी, मन्नू भंडारी, राधाकृष्ण पेपरबैक्स, पृ०7

[3]  साहित्य का स्वरूप, नित्यानंद तिवारी, राष्टीय शैक्षिक अनुसंधान अौर प्रशिक्षण परिषद, पृ०98

[4]  संक्षिप्त आत्मकथा

[5]  -वही-

[6]  साहित्य का स्वरूप, नित्यानंद तिवारी, राष्टीय शैक्षिक अनुसंधान अौर प्रशिक्षण परिषद, पृ०98

[7]  हिंदी-साहित्य का इतिहास, डॉ० नगेंद्र(सं०),पृ०716

[8]  हिंदी साहित्य अौर संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी,लोकभारती,पृ०190


ग्रंथ-सूची

1-भाषा साहित्य अौर संस्कृति, विमलेश कांति वर्मा,मालती(सं०),अॉरियंट लाँगमैन

2-हिंदी-साहित्य का इतिहास, डॉ० नगेंद्र(सं०)

3-हिंदी साहित्य अौर संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी,लोकभारती

4-साहित्य का स्वरूप, नित्यानंद तिवारी, राष्टीय शैक्षिक अनुसंधान अौर प्रशिक्षण परिषद