दिव्‍यांगता को लेकर समाज, सरकार और मीडिया की भूमिका

 Title: दिव्‍यांगता को लेकर समाज, सरकार और मीडिया की भूमिका

Article-ID 202008014/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.2 May-August 2020 Language:Hindi:E                                                

Domain of Study: Humanities & Social Sciences

                                                                      Sub-Domain: Cine-Studies (Review*)

विनीत भार्गव 

मुख्य कार्यकारी अधिकारी, मेंटल हेल्थ फाउंडेशन, नई दिल्ली (भारत)

[E-mail: info@globalculturz.org    Mob:891308022                                                                                                                                             



Summary in English

Disability is just a taboo. Many a times disabled people have performed and delivered a better result in society than so called medically medically fit people. Indian constitution provides an equal opportunity to disabled persons without any discrimination. Datas collected through various censu suveys show that urban based disability is more severe than that of the rural. Policy makers are using these datas to address the problem and to frame the policy for the welfare of the diasbled people in the country. Several films have been cited in the article to represent how these problem are raised and adressed and also indicate the future cousre of action required in this direction.


   

हर काल और समाज में सक्षमता और असक्षमता को लेकर विवाद रहा है. बाकी समस्‍याओें की तरह इस समस्‍या पर भी अभी तक बहस, परिचर्चा, संगोष्‍ठि आदि हो रहे हैं. लेकिन हम अपने-आप को इस बात के लिए राजी नहीं कर पाये हैं कि शारीरिक या मानसिक अक्षमता/निशक्‍तता काफी हद तक हमारे जड़वादी सोच की ही सफलता का परिणाम है. अन्‍यथा इतिहास तमाम ऐसे उदाहरणों से पटा पड़ा है, जहां असक्षम या निशक्‍त कहे जाने वाले ‘मैडिकली अनफिट’ या दिव्‍यांग लोगों ने भी वो काम कर दिखाया जो ‘मैडिकली फिट’ लोग भी नहीं कर पाते.

मानव समाज ने अपने अनुभव के आधार पर यह देखा है कि सही माहौल एवं साकारात्‍मक प्रेरणा ने ‘मैडिकली अनफिट’ लोगों में साहस का ऐसा संचार किया है, जो न सिर्फ उन्‍हें सफलता के परचम लहराने में बल्‍कि समाज को एक नई सोच व दिशा देने में भी कारगर साबित हुए हैं. 

इसलिए हमारे नीति-निर्माताओं ने भी इस बात को समझा और संविधान में सभी के साथ समान व्‍यवहार का अधिकार दिया. भारत का संविधान अपने सभी नागरिकों के लिए समानता, स्वतंत्रता, न्याय व गरिमा सुनिश्चित करता है और स्पष्ट रूप से यह दिव्‍यांग व्यक्तियों समेत एक संयुक्त समाज बनाने पर जोर डालता है. हाल के वर्षों में दिव्‍यांगों के प्रति समाज का नजरिया तेजी से बदला है. यह माना जाता है कि यदि दिव्‍यांग व्यक्तियों को समान अवसर, समान व्‍यवहार तथा प्रभावी पुनर्वास की सुविधा मिले तो वे बेहतर गुणवत्तापूर्ण जीवन व्यतीत कर सकते हैं. समान व्‍यवहार तभी संभव है जब हम विचार और व्‍यवहार दोनों ही स्‍तर पर सम रहें.

जहां तक प्रभावी पुनर्वास और समान अवसर का सवाल है तो इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि हमारे पास दिव्‍यांग लोगों के बारे में सही एवं संपूर्ण जानकारी मौजूद हो. जिसके लिए हमारे पास दिव्‍यांग लोगों के सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्‍थिति संबंधी आंकड़े होने चाहिए. इसलिए  सन् 1872 से 1931 तक की जनगणना में दिव्‍यांगता संबंधी आंकड़े लगातार एकत्रित किये जाते रहे हैं. सिर्फ सन् 1941 से 1971 तथा 1991 की जनगणना में दिव्‍यांगता पर सवाल को शामिल नहीं किया गया. सन् 1981 की जनगणना में तीन तरह की दिव्‍यांगता की श्रेणी संबंधी आंकड़े एकत्रित किए गए. जबकि सन् 2001 की जनगणना में पांच तरह की दिव्‍यांगता की श्रेणी को लेकर आंकड़े एकत्रित किए गए. लेकिन सन् 2011 की जनगणना में दिव्‍यांगों से संबंधित श्रेणियों की संख्‍या 5 से बढ़कर 8 हो गई. 

सन् 2011 के जनगणना की बात करें तो भारत में दिव्‍यांग कुल 26,810,557 हैं. जिसमें 14,986,202 पुरूष तथा  11,824,355 महिलाएं शामिल हैं. अगर हम सन् 2001 तथा 2011 की जनगणना के आंकड़ों को तुलनात्‍मक दृष्‍टि से देखें तो वर्ष 2001 की जनगणना में कुल जनसंख्‍या का 2.13% लोग दिव्‍यांग थे, जबकि 2011 में यह बढ़कर 2.21% हो गया. ग्रामीण क्षेत्रों में यह आंकड़ा सन् 2001 में 2.21% था जबकि सन् 2011 में बढ़कर 2.24% हो गया. वहीं अगर शहरी क्षेत्र पर गौर करें तो सन् 2001 में 1.93% था, जबकि सन् 2011 में यह बढ़कर 2.17% हो गया. यानी की ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले शहरी क्षेत्रों में इन आंकड़ों का दर अधिक तेजी से बढ़ा है. 

भारत सरकार द्वारा सन् 2011 की जनगणना में विभाजित दिव्‍यांगता की 8 श्रेणियों में सबसे अधिक दिव्‍यांग 20.3% चलन नि:शक्‍तता की श्रेणी की थी. इसके बाद 18.9% श्रवण निशक्‍तता तथा 18.8% दृष्‍टि निशक्‍तता की थी. अन्‍य श्रेणी में भी निशक्‍त लोगों की संख्‍या 18.4% थी. दिव्‍यांग व्‍यक्‍तियों से संबंधित आंकड़े एकत्रित करने का काम राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन भी करती है ताकि दोनों एजेंसियों के आंकड़ों के बीच के अंतर को मिलाया जा सके एवं अधिक वास्‍तविक आंकड़े प्राप्‍त किये जा सकें.

कई सारे मामलों में दिव्‍यांगता को रोका जा सकता है, इसलिए इसकी रोकथाम के लिए कड़े प्रयास करने की आवश्यकता होती है. ऐसे रोगों की रोकथाम के लिए कार्यक्रम को काफी बढ़ावा देना होगा, जिससे दिव्‍यांगता उत्पन्न होती है. और गर्भावस्था के दौरान और उसके बाद होने वाली दिव्‍यांगता के लिए जागरुकता फैलाने की जरूरत है. ऊपर हमने देखा कि विगत एक दशक में शहरी क्षेत्रों में दिव्‍यांगता का वृद्धि दर ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले अधिक है, इससे यह साफ प्रतीत होता है कि शहरी लोगों की जीवनशैली में अधिक असंतुलन आया है. परिणामस्‍वरूप तनाव, हताशा-निराशा आदि में अनुपातिक वृद्धि हुई है, जिसका विपरीत प्रभाव गर्भावस्‍था के दौरान शिशु पर पड़ा है.  

दिव्‍यांगता के प्रति आंकड़ों को एकत्रित करने का यह सरकारी प्रयास एक ओर जहां दिव्‍यांगता को दूर करने की सरकारी प्रतिबद्धता को दर्शाता है, वहीं दूसरी तरफ इस बात का भी प्रमाण है कि अभी भी हमारे समाज में दिव्‍यांगता को लेकर जो समझ बननी चाहिए थी वह नहीं बन पाई है. लेकिन इस बात से मेरा अभिप्राय निराशावादी होने से नहीं है, क्‍योंकि मेरा यह बड़ी मजबूती से मानना है कि पहले जो स्‍थिति दिव्‍यांगता को लेकर थी, उसमें काफी कुछ परिवर्तन हुआ है. किंतु संसाधनों के निवेश के जिस अनुपात में प्रतिफल की वांछनीयता थी वह हमें नहीं मिल पाई है. 

 

हमारे सरकार ने दिव्‍यांग लोगों के अधिकारों को सुनिश्चित करने व उनके जीवन को सुगम बनाने के लिए न सिर्फ आंकड़े एकत्रित किये बल्‍कि इन आंकड़ों की मदद् से दिव्‍यांगों के लिए तीन कानूनों को भी लागू किया है, जो इस प्रकार हैं:

1.     दिव्‍यांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकार सुरक्षा तथा पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995, जो ऐसे लोगों को शिक्षा, रोजगार, अवरोधमुक्त वातावरण का निर्माण, सामाजिक सुरक्षा इत्यादि प्रदान करता है.
2.     ऑटिज्म, सेरीब्रल पाल्सी, मानसिक मंदबुद्धि व बहुदिव्‍यांगता के लिए राष्ट्रीय कल्याण ट्रस्ट अधिनियम 1999 में चारों वर्गों के कानूनी सुरक्षा तथा उनके स्वतंत्र जीवन हेतु सहसंभव वातावरण के निर्माण का प्रावधान है.
3.     भारतीय पुनर्वास परिषद् अधिनियम 1992, पुनर्वास सेवाओं के लिए मानव-बल विकास का प्रयास करता है.

कानून के अलावा, गहन संरचना का विकास भी किया गया है। निम्न सात राष्ट्रीय संस्थान हैं जो मानव बल के विकास के लिए विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं:

शारीरिक दिव्‍यांग संस्थान, नई दिल्ली 

राष्ट्रीय दृष्टि दिव्‍यांग संस्थान, देहरादून 

राष्ट्रीय ऑर्थोपेडिक दिव्‍यांग संस्थान, कोलकाता

राष्ट्रीय मानसिक दिव्‍यांग संस्थान, सिकंदराबाद

राष्ट्रीय श्रवण दिव्‍यांग संस्थान, मुम्बई

राष्ट्रीय पुनर्वास तथा अनुसंधान संस्थान, कटक 

राष्ट्रीय बहु-दिव्‍यांग सशक्तीकरण संस्थान, चेन्नई. 


दिव्‍यांग लोगों के जीवन की गुणवत्‍ता को बढ़ाने के लिए जिन उपायों की जरूरत है तथा भारत सरकार ने भी समय-समय पर जिसे अपने कार्यक्रम में शामिल किया है वह इस प्रकार है:-

शारीरिक पुनर्वास, जिसमें आरंभिक पहचान तथा उपचार, परामर्श व चिकित्सा तथा मदद व उपकरण का प्रावधान है. इसमें पुनर्वास कर्मचारियों का विकास भी शामिल है.

व्यावसायिक शिक्षा समेत शैक्षणिक पुनर्वास, तथा 

समाज में गरिमामय जीवन जीने के लिए आदर्श व्‍यवहार एवं आर्थिक पुनर्वास.

ये उपाय तभी कारगर होंगे जब सरकार के साथ-साथ समाज, गैर-सरकारी संगठनों एवं जनसंचार माध्‍यमों को भी ईमानदारी से इस कार्य में अपनी जिम्‍मेदारी तय करनी होगी, क्‍योंकि लक्ष्‍य की प्राप्‍ति में ये सभी एक-दूसरे के अनिवार्य पूरक हैं.

संचार के सशक्‍त जनमाध्‍यमों; टीवी चैनलों, अखबारों तथा सिनेमा को अपनी संचार क्षमता का उपयोग कर इस दिशा में सार्थक परिवर्तन का उत्‍तरदायित्‍व स्‍वीकारना होगा. ताकि समाज में निशक्‍तों के प्रति अच्‍छी भावना पैदा हो सके. 

जनसंचार के सशक्‍त माध्‍यमों में से एक सिनेमा ने समय-समय पर दिव्‍यांगता को अपना विषय चुना और समाज में उसको लेकर एक साकारात्‍मक माहौल को बनाने में अपनी भूमिका निभाई है. दोस्‍ती (1964), कोशिश (1972), स्‍पर्श (1980), सदमा (1983), खामोशी (1996), इकबाल (2005), ब्‍लैक (2005), तारे जमीन पर (2007) ये उन हिंदी सिनेमाज् में हैं जिसने दिव्‍यांगों के विषय पर थीम को केंद्रित कर समाज में अपनी गहरी छाप छोड़ी है. माई लेफ्ट फुट (1989), फ्रीदा (2002), फोर वेडिग्‍ंस एण्ड अ फ्यूनिरल (1994), अ ब्यूटीफुल माइंड (2001), चिल्‍ड्रेन ऑफ अ लेसर गॉड (1986), कमिंग होम (1978), आइरिस (2001), फिलाडेल्‍फिया (1992), रैन मैन (1988), पैशन फिश (1992) ये वो ऑस्‍कर नामित फिल्‍में हैं, जिन्‍होंने दिव्‍यांगता विषय को अपना थीम बनाया तथा साकारात्‍मक प्रभाव की ओर एक सशक्‍त प्रयास किया. ये अलग बात है कि मुनाफेखोरी की तीव्र इच्‍छा एवं दर्शकों का ऐसे फिल्‍मों की ओर कम झुकाव ने इस विषय पर फिल्‍मों के निर्माण में निराशा पैदा की है.

हमारे देश में जिस तरह प्रधानमंत्री, राष्‍ट्रपति एवं नौकरशाहों से एक आदर्श व्‍यवहार करने की परंपरा है, ठीक उसी तरह दिव्‍यांगों से भी एक आदर्श व्‍यवहार करने की परंपरा होनी चाहिए. ताकि दिव्‍यांगता उनकी कमजोरी न बन सके। हमारे समाज में दिव्‍यांगों को हेय दृष्‍टि से देखा जाता है एवं सामान्‍य तौर पर कमतर आंका जाता है. इसलिए व्‍यवहार के स्‍तर पर भी सामान्‍य लोगों की तुलना में दिव्‍यांग व्‍यक्‍तियों से व्‍यवहार में अंतर पाया जाता है. इस व्‍यवहारिक अंतर के कारण जो ठेंस उन लोगों को पहुंचता है, वह शायद उनकी शारीरिक निशक्‍तता से भी नहीं पहुंचता हो. 

यह व्‍यवहारिक असमानता शिक्षा के बुनियादी ढांचों स्‍कूल-कॉलेज के साथ-साथ घरों तथा कार्यालयों में भी आसानी से दिख जाता है. दु:ख तो इस बात का है कि विकास के इस पायदान पर पहुँचकर भी हम अभी तक उनके साथ व्‍यवहार के लिए कम-से-कम एक सही शब्‍दावली तक का निर्माण नहीं कर पाये हैं, ऐसे में आचरण का सवाल तो बेमानी ही होगा. 

तमाम राजनीतिक खींचा-कशी से हम बाहर निकलकर निरपेक्षता से देखें तो 03 दिसंबर, 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पहली बार सुझाया गया यह शब्‍द ‘दिव्‍यांग’ तथा 27 दिसंबर, 2015 को ‘मन की बात’ कार्यक्रम में दोहराया गया यह शब्‍द, शाब्‍दिक स्‍तर पर ‘विक्‍लांग’ की अपेक्षा अधिक आदर्श शब्‍द है. अब देखना यह है कि आचरण के स्‍तर पर प्रधानमंत्री मोदी जी इसे कितना साकार कर पाने में सक्षम होते हैं. क्‍योंकि आचरण के अभाव में मोदीजी द्वारा सुझाया गया यह शब्‍द अपनी महत्‍ता खो देगा.

आचरण के स्‍तर पर समानता की जिम्‍मेदारी सभी को यानी समाज, सरकार, गैर-सरकारी संगठनों एवं मीडिया को बराबर-बराबर उठानी होगी तथा सामूहिक जिम्‍मेदारी के साथ-साथ सामूहिक जवाबदेही भी सुनिश्‍चित करनी पड़ेगी. सिविल सोसाइटी तथा गैर-सरकारी संगठनों को कंधे-से-कंधा मिलाकर सरकारी योजनाओं तथा नि:शक्‍त लोगों के बीच पुल का काम करना होगा. जिससे सामान्‍य लोगों में निशक्‍त लोगों के प्रति सहज समभाव का बोध पैदा हो सके. 

इन सबसे बढ़कर उस परिवार को भी, जिस किसी परिवार में निशक्‍त व्‍यक्‍ति हो, उसके प्रति एक साकारात्‍मक दृष्‍टिकोण अपनाना होगा. जिससे कि निशक्‍त व्‍यक्‍ति को आत्‍मबल मिल सके. इन सबके अतिरिक्‍त उन सामान्‍य परिवारों की भी यह जिम्‍मेदारी है, जिनके घरों में निशक्‍त लोग नहीं है. एक ऐसे संस्‍कार या परंपरा का निर्माण करना ताकि उनके परिवार के बच्‍चे या अन्‍य सदस्‍य निशक्‍तों के प्रति आदर्श व्‍यवहार रखें और इस तरह उनके आत्‍मबल को मजबूती प्रदान करें. 

निशक्‍तता का अभिप्राय सिर्फ दृष्‍टि बाधित, श्रवण दोष, मूक होने या चलन दोष आदि से ही नहीं रह गया है, बल्‍कि टीबी, कैंसर, एड्स आदि बीमारियां भी सामाजिक जागरूकता की कमी के कारण निशक्‍तता की श्रेणी में लाकर खड़े कर दिये गये हैं. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारा समाज जागरूकता के स्‍तर पर कितना पिछड़ा हुआ है. सबसे बड़ा सवाल यह है कि इतनी सारी खबरिया चैनलों, मनोरंजन और ज्ञान के चैनलों के होते हुए भी सामाजिक जागरूकता का स्‍तर इतना नीचे क्‍यों है? यानी कहीं-न-कहीं कुछ कमी तो जरूर रह गई है और यह कमी किसी एक में नहीं बल्‍कि सभी में किसी-न-किसी स्‍तर पर जरूर है. मैंने खुद कई ऐसे माता-पिता को देखा है जो अपने निशक्‍त बच्‍चे के प्रति अधिक आशान्‍वित नहीं दिखते और न ही उसके पढ़ाई-लिखाई में ज्‍यादा दिलचस्‍पी ही लेते हैं. ऐसा प्रतीत होता है मानो वह बच्‍चा उनके लिए बोझ के समान हो.

समाज में निशक्‍तता को लेकर परंपरावादी सोच के कारण यह बोझ और अधिक बढ़ जाता है. सक्षमवाद की इस अंधी दौड़ ने निशक्‍तता को नकारात्‍मकता के निचले पायदान पर लाकर खड़ा करने का काम किया है. आज भी निशक्‍तजनों के प्रति सदभाव सिर्फ विश्‍व–विक्‍लांग दिवस, सभा एवं संगोष्‍ठियों आदि में ही देखी और सुनी जाती है. हमें इस सदभाव के स्‍वांग को बेनकाब करना होगा. हमें निशक्‍तजनों के प्रति सहज समभाव को सभा-संगोष्‍ठियों एवं दिवसों के इस चौहद्दियों से बाहर लाना होगा, तभी हम इसका हल निकाल पाएंगे. अन्‍यथा निशक्‍तता इसी तरह कुछ तथाकथित शिष्‍ट लोगों के लिए उनके पद, प्रतिष्‍ठा एवं आय का स्रोत बनकर रह जाएगा. हम उसका सही निराकरण नहीं कर पायेंगे.


*Observations on above article may be submitted to editorccgs@gmail.com by August 31, 2020