Title: ‘ब्लैक’ फिल्म में दिव्यांग-सशक्तिकरण
Article-ID 202008016/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.2 May-August 2020 Language:Hindi:E
Domain of Study: Humanities & Social Sciences
Sub-Domain: Cine-Studies
आशा (डॉ०)
असिसटेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, अदिति महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली (भारत)
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Summary in English
Portryal of disability in cinema and other art forms is a common feature. However studies regarding these are rare. ‘Black’ a Hindi film has a theme to depict the empowerment of handicapped persons. This is a good piece to study and sensitize the society about the abilities and challenges of the disabled. Dr. Asha has explored the diffrent dimensions of these aspects through her analysis which breaks our stereotype mindset towards the disabled community. Finally she opines that disable people are an asset not a burden for our society.
भारतीय समाज में दिव्यांगता को ‘चैरिटी’ से जोड़कर देखने की परम्परा रही है. यहाँ सामान्यतः विकलांगता ऐसी दिमागी अवधारणा बना दी गयी है जिसके तहत व्यक्ति विशेष को अक्षम मानते हुए उसके प्रति दया का भाव रखा जाने लगता है. इस प्रकार की बंधी हुई मानसिकता से दिव्यांगों और समाज का भी कुछ भला नहीं होने वाला है. भारत में प्रचलित विभिन्न मुहावरों में प्रयुक्त विकलांगों से सम्बंधित शब्द, विकलांगों के प्रति समाज की उस मानसिकता की ओर संकेत करते हैं जिसमें उनकी विकलांगता को हँसी और व्यंग्य का पात्र और परिवार पर एक प्रकार का ‘बोझ’ माना जाता है. दिव्यांगों के प्रति समाज की इस रूढ़ मानसिकता को स्वस्थ सोच में बदलने के लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत है.
हालाँकि पिछले कुछ वर्षों से इस दिशा में सरकारें नीतिपरक कार्यक्रम करने लगी हैं. इस क्रम में भारत सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा दिव्यांग सशक्तिकरण विभाग की स्थापना करना एक सराहनीय कदम है. किन्तु इतने भर से काम चलने वाला नहीं है. मीडिया को लोकतंत्र का तीसरा स्तम्भ कहा जाता है. दिव्यांग सशक्तिकरण की दिशा में मीडिया को अगुवाई करते हुए समाज की सोच को परिवर्तित करना होगा. प्रिंट के साथ ही रेडियो, टेलीविजन और सिनेमा – अपने-अपने माध्यम-रूप में सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं. “सिनेमा एक अत्यंत शक्तिशाली विधा है इस बात को उसके जन्म के तुरंत बाद ही पहचान लिया गया था. जनसंख्या के एक बहुत बड़े वर्ग तक किसी सन्देश को पहुंचाने के लिए कोई भी दूसरी विधा इतनी शक्तिशाली नहीं थी. बल्कि सिनेमा ने अपनी बनावट में रंगमंच, साहित्य, संगीत, चित्रकला, स्थापत्य आदि सभी रचनात्मक प्रयासों को बड़ी चतुराई और कुशलता से समेट लिया. पूंजीवादी देशों में एक ओर सिनेमा ने मनोरंजन की आड़ में प्रभावशाली सामाजिक सन्देश दिए और दूसरी ओर समाजवादी देशों में प्रचार की हद तक पहुँचने का खतरा उठाते हुए सिनेमा की शक्ति को पहचाना गया.” सिनेमा की इसी व्यापक ‘एप्रोच’ के चलते दिसंबर 2015 में भारत सरकार ने पहली बार दिव्यांगता केन्द्रित अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का आयोजन किया – इस प्रकार के आयोजनों से एक ओर दिव्यांगों के प्रति सामाजिक जागरूकता और संवेदनशीलता पैदा होती है तो दूसरी ओर दिव्यांगों में उत्साह, आत्मविश्वास और ‘अपने-आप को साबित करने का’ का जज्बा साकार होने लगता है.दिव्यांग सशक्तिकरण की दिशा, दिव्यांग लोगों के प्रति सामाजिक जागरूकता और उससे भी अधिक सद्भाव, सहानुभूति व संवेदना का निर्माण करने में फ़िल्में एक कारगर माध्यम सिद्ध हो सकती हैं. हिन्दी में दिव्यांगता से सम्बंधित फ़िल्में बहुत कम बनी हैं. इस सन्दर्भ में सबसे पुरानी फिल्म ‘दोस्ती’ में नेत्रहीन किशोर केंद्र में है किन्तु इस फिल्म में किशोर के प्रति दया का भाव ही अधिक उभरता है. अभिनेता संजीव कुमार अभिनीत फिल्म ‘कोशिश’ में मूक-बधिरों की समस्याओं को दिखलाया गया. नसीरुद्दीन शाह अभिनीत ‘स्पर्श’ में नेत्रहीन व्यक्ति की मनःस्थिति को व्यक्त किया गया. “अपनी समस्याओं को खुद ही झेलते हुए उसका आत्मसम्मान कम नहीं होता है. अपनी महिला मित्र को रेस्तरां में चाय-नाश्ता कराने के बाद वह स्वयं बिल का भुगतान पूरे अधिकार के साथ करता है. अनावश्यक मदद करने पर वह झल्ला जाता है. इस फिल्म के माध्यम से ब्रेल में रोचक साहित्य के न होने पर भी प्रकाश डाला गया है.” इस सन्दर्भ में ‘नाचे मयूरी’ फिल्म खासी चर्चित और प्रेरक रही जिसमें अभिनेत्री सुधा चंद्रन को कृत्रिम पैर के सहारे सामान्य लोगों के समान नृत्य करते दिखाया गया. ‘खामोशी – द म्यूजिकल’ और ‘इकबाल’ में मूक-बधिर लोगों में छिपी अपार संभावनाओं को शानदार तरीके से सामने लाया गाया. ‘तारे जमीं पर’ में डिस्लेक्सिया से पीड़ित बच्चों का मनोवैज्ञानिक चित्रण और उसी के अनुरूप समाधान प्रस्तुत किया गया है. इस फिल्म ने दर्शकों को भीतर तक झकझोरा. इसीलिए फिल्म के प्रदर्शन के बाद सामान्य बच्चों के अभिभावकों के दृष्टिकोण में भी अपने बच्चों के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास हुआ. ‘कोई मिल गया’ फिल्म का नाम भी इस कड़ी में लिया जा सकता है किन्तु दिव्यांग सशक्तिकरण की दृष्टि से यह फिल्म उल्लेखनीय नहीं कही जा सकती. 'प्रोगेरिया' से पीड़ित बालक पर 'पा ' फिल्म का फिल्मांकन काफी सराहनीय रहा. ‘गुजारिश’ फिल्म भी संवेदनाओं को जाहिर करने में कामयाब रही. ‘बर्फी’ फिल्म में दिव्यांगों के जीवन में प्रेम की उपस्थिति को मनोरंजक ढंग से दिखलाया गया. हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री विश्व की सबसे बड़ी इंडस्ट्री है बावजूद इसके दिव्यांगों पर केन्द्रित फिल्मों की गिनती दहाई का आँकड़ा भी नहीं छू पायी है – इस बात के पीछे फिल्म उद्योग की पैसा अर्जित करने वाली व्यावसायिक मानसिकता भी है जो संवेदनशील मुद्दों में भी ‘मसाला’ या ‘तड़का’ डालना चाहती है और दिव्यांगता सम्बंधित विषयों में उन्हें इस प्रकार का कोई ‘स्कॉप’ ही नहीं मिल पाता.
4 फरवरी 2005 को प्रदर्शित संजय लीला भंसाली निर्देशित ‘ब्लैक’ फिल्म में अमिताभ बच्चन और रानी मुखर्जी ने मुख्य भूमिकाएँ अदा कीं. ‘ब्लैक’ फिल्म हेलेन कैलर के जीवन और संघर्ष से प्रेरित है. ‘ब्लैक’ को फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिल चुका है. यूरोप की प्रसिद्द ‘टाइम’ पत्रिका ने ‘ब्लैक’ को वर्ष 2005 की विश्व की श्रेष्ठ दस फिल्मों में पाँचवें स्थान पर शुमार किया था.
‘ब्लैक’ फिल्म फ़्लैश-बैक शैली में है. शुरुआत में दृष्टि-बाधित, वाक्-बाधित और श्रवण-बाधित मिशेल अस्पताल में अल्जाइमर से पीड़ित अपने बूढ़े हो चुके मरणासन्न शिक्षक मिस्टर सहाय (अमिताभ बच्चन) की देखभाल करती दिखती है. वहीं से वह अपने बीते जीवन में चली जाती है. मिशेल (रानी मुखर्जी) शिमला में रहने वाले एक एक अमीर घर की बड़ी बेटी है. जन्म के दो साल बाद ही एक बीमारी के चलते वह अंधी, गूंगी और बहरी हो जाती है जिसके चलते मिशेल का व्यवहार अत्यधिक चिड़चिड़ा, असंतुलित और अनियंत्रित हो जाता है. शारीरिक अशक्तता के चलते उसके साथ आये दिन एक-न-एक हादसा हो जाता है. इन सबसे परेशान उसके पिता उसे पागलखाने भेजने का मन बना चुके हैं. एक आख़िरी कोशिश के रूप में मिशेल की माँ उसके लिए एक विशेष शिक्षक मिस्टर देबराज सहाय को मिशेल को सम्भालने के लिए नियुक्त करती हैं. मिस्टर सहाय जी-जान से मिशेल को एक बेहतरीन इंसान बनाने में जुट जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप मिशेल का विश्वविद्यालय में भी दाखिला हो जाता है. विश्वविद्यालय में कक्षा के दौरान मिस्टर सहाय सांकेतिक भाषा में मिशेल को पढ़ने में मदद करते हैं. लिखने की गति अत्यंत धीमी होने के कारण तीन साल तक मिशेल परीक्षा में लगातार असफल होती जाती है. इस बात पर मिस्टर सहाय के गुस्से से आहत होकर मिशेल कई बार पढ़ाई करने से ही मना कर देती है. लेकिन लगातार के अभ्यास से उसकी टाइपिंग स्पीड साठ शब्द प्रति मिनट हो जाती है. इसी बीच मिस्टर सहाय भूलने की बीमारी से पीड़ित हो जाते हैं और एक दिन अचानक गायब हो जाते हैं. चौदह साल बाद जिस दिन मिशेल को ग्रेजुएट होने की डिग्री मिलती है, वे घर के बाहर ही मिशेल को मिल जाते हैं लेकिन वे अब सब कुछ भूल चुके हैं. मिशेल अपने इस शिक्षक को पुनः बीता जीवन याद दिलाने के लिए उसी लग्न से जुट जाती है जिस लग्न से मिस्टर सहाय ने मिशेल को सिखाया था.
दिव्यांगों को घर में भी किस तरह के व्यवहार का सामना करना पड़ता है, इस बात को ‘ब्लैक’ फिल्म से समझा जा सकता है – पहले-पहल मिशेल के पिता के व्यवहार से. मिशेल आँख, कान और जीभ से यानी कि बहुल-अशक्त थी. लगभग हर काम के लिए उसे दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता था. इस बहुल-अशक्तता के कारण उसके साथ हादसे भी बहुत होते थे. इन हादसों से क्षुब्ध होकर उसके पिता पॉल उसे आवारा पागल जानवर तक कह देते थे और उसकी माँ कैथी पर मिशेल को पागलखाने भेजने का दबाव डालते थे. यहाँ तक कि उन्होंने मिशेल की देखभाल में आसानी के लिए उसके गले में पालतू जानवरों के समान घंटी बाँध दी थी ताकि घंटी की आवाज से मिशेल की गतिविधियों और स्थिति के बारे में जानकारी रहे. निश्चित रूप से दिव्यांगों के प्रति इस तरह की मानसिकता और व्यवहार ठीक नहीं है. यदि परिवार में ही इस तरह का नकारात्मक व्यवहार किया जाएगा तो समाज से उम्मीद बहुत कम रह जाएगी. लेकिन परिवार में सभी सदस्य ऐसे ही हों, यह जरुरी नहीं. यह एक माँ की अपनी संतान के प्रति चिंता और गहरी चिन्तनशीलता का ही परिणाम था कि कैथी मिस्टर सहाय जैसे शिक्षक को मिशेल के लिए बुलाती हैं. हालाँकि पहले-पहल जब मिस्टर सहाय मिशेल को विशेष कक्षाओं के लिए परिवार से दूर रखते हैं तो कैथी को मिशेल की अत्यधिक चिंता भी होती है क्योंकि उन्होंने मिशेल को उसके जन्म से लेकर अब तक अपनी आँखों से ओझल नहीं होने दिया था. लेकिन मिशेल की विशेष शिक्षा के क्रम में उसकी माँ यह भली-भाँति समझ जाती हैं कि केवल संवेदना प्रकट करने या अपने आस-पास रखने से मिशेल को कोई लाभ नहीं होगा. उसके जीवन को सही दिशा देने के लिए धर्य के साथ विशेष तकनीक और विशेष व्यवहार की आवश्यकता है.
मिशेल का खुद का स्वभाव बेहद जिद्दी, चिड़चिड़ा और अड़ियल था और उस पर बहु-विकलांगता के कारण मिशेल को कुछ भी समझाना और तदनुसार काम करवाना बेहद मुश्किल था. हर छोटी चीज सिखाने में उसे सामान्य बच्चों की तुलना में कई गुणा अधिक समय और परिश्रम लगता था – मिशेल को प्रत्येक वस्तु का अर्थ समझाने के लिए उसके हाथ पर उँगलियों से अक्षर बनाकर, हाथ के विभिन्न स्पर्शों की तकनीक अपनाई गयी. बीस दिनों की विशेष कक्षाओं के बाद जब मिशेल घर लौटती है तो पुनः पहले जैसा व्यवहार करने लगती है. मिस्टर सहाय उसके इस व्यवहार से क्रोधित होकर मिशेल को पानी के फव्वारे में गिरा देते हैं – यहाँ से मिशेल की विकलांगता दिव्यांगता की ओर बढ़ती है.
मिस्टर सहाय की देख-रेख और सिखाने के लिए अपनाई गयी तकनीक के चलते दिव्यांग मिशेल भावों का प्रदर्शन करना भी बखूबी सीख जाती है. क्रिसमस पार्टी में जब वह नाचती है और संकेतों के माध्यम से अपना भाव-प्रदर्शन करती है तो सारी पार्टी के आकर्षण का केंद्र बन जाती है. मिशेल के माता-पिता अपनी बेटी की इस सफलता और सफल भाव-प्रदर्शन के तरीके से मिली सामाजिक महत्ता से बहुत खुश होते हैं लेकिन मिशेल की बहन सरा एकदम सबके विपरीत होकर इस बात से दुखी होती है कि उसके माता-पिता का सारा दुलार और ध्यान मिशेल को ही मिला है और उसका कारण है उसकी दिव्यांगता. इसी कारण सरा एक दिन भरी महफ़िल में वह जहर उगल देती है जो बचपन से उसके मन में मिशेल के प्रति भरा हुआ है. क्योंकि सरा के पैदा होने के बाद मिशेल की बीमारी के कारण उसकी माँ का सारा ध्यान मिशेल के प्रति ही अधिक रहता था, जिसके कारण सरा की अनदेखी भी हुई – इस कारण सरा के मन में मिशेल के प्रति कटुता का भाव गहराता चला गया. हालांकि मिशेल द्वारा सरा को लिखे गए एक पत्र के बाद सरा सारी कड़वाहट भुलाकर मिशेल से माफी माँग लेती है.
दिव्यांगों को अपने आप को समाज में साबित करने के लिए मुश्किलों का सामना कई स्तरों पर करना पड़ता है. निश्चित रूप से संघर्ष का यह रास्ता घर से ही शुरू हो जाता है. मिशेल के प्रति उसके पिता की मानसिकता और बाद में छोटी बहन सरा की ईर्ष्या का जिक्र हो ही चुका है. उच्च शिक्षा पाने के क्रम में भी मिशेल के समक्ष कई कठिनाईयाँ आती है. विश्वविद्यालयों को मनुष्य के विकास का केंद्र माना जाता है. लेकिन उच्च शिक्षा पाने की इच्छा रखने वाली दिव्यांग मिशेल को यहाँ अपने-आप को ‘पढ़ने लायक’ साबित करने के लिए एक इंटरव्यू से गुजरना पड़ता है. इस इंटरव्यू में मिशेल की आवाज मिस्टर सहाय को न बनाकर मिस नायर को बनाया जाता है लेकिन मिशेल इस स्थिति से बिलकुल भी नहीं घबराती और इंटरव्यू में सफल होकर दिखाती है. अपने दृढ संकल्प और कुशल शिक्षक के निर्देशन में देखने, सुनने और बोलने के अभाव के बावजूद मिशेल उच्च शिक्षा ग्रहण करने लगती है.
दिव्यांगों की सेक्स-भावना और इसके सम्बन्ध में समाज की रूढ़ धारणा पर भी इस फिल्म में हल्का-सा संकेत किया गया है. सरा के विवाह के मौके पर मिशेल को पुरुष के साथ प्रेम का अहसास होता है. वह मिस्टर सहाय को यह अहसास करवाने के लिए दबाव डालती है. इस अहसास से रू-ब-रू करवाने के लिए मिस्टर सहाय बड़ी मुश्किल से अपने-आप को तैयार करते हुए मिशेल का चुम्बन लेते हैं और ऐसा करते समय जो भाव उनके चेहरे पर आता है उससे यही प्रतीत होता है कि दिव्यांगों को सेक्स की आवश्यकता नहीं है. इस प्रकरण के बाद वे मिशेल की जिन्दगी से गायब हो जाते हैं. दिव्यांग सेक्स क्यों नहीं कर सकते? क्या उनके किसी अंग के काम न करने से शरीर की मूल वासनाएँ भी खत्म हो जाती हैं? ‘ब्लैक’ फिल्म का यह दृश्य इन सभी प्रश्नों पर विचार करने के बाध्य करता है.
‘ब्लैक’ में मिशेल बहुल-विकलांग होने के बावजूद बिना किसी भी प्रकार की दया के, अनेक चुनौतियों का साहस से सामना करते हुए अपने जैसे लोगों में गर्व से जीने का भाव भरती है जिससे यह बात शिद्दत से उभरकर आती है कि दिव्यांग व्यक्ति किसी प्रकार की दया के मोहताज़ नहीं हैं. अक्सर दिव्यांगों के प्रति परिवार और समाज में जो व्यवहार देखा जाता है उसमें परिवार और समाज की सुविधाओं का ही ध्यान रखा जाता है, दिव्यांगों की मानसिकता और आवश्यकता को नज़रअंदाज कर दिया जाता है क्योंकि वे तो ‘विकलांग’ हैं. इस प्रकार की रूढ़ मानसिकता को भी ‘ब्लैक’ फिल्म तोड़ने का प्रयास करती नज़र आती है और दिव्यांगों के परिवार जनों तथा आस-पास रहने वाले लोगों को भी एक मनोवैज्ञानिक समझ और प्रेरणा देती है कि हमें दिव्यांगों के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए.
इस प्रकार हम पाते हैं कि ‘ब्लैक’ फिल्म में बहुल विकलांग लड़की के जीवन में आने वाली हर छोटी-बड़ी समस्या को सूक्ष्मता और गंभीरता से चित्रित किया गया है. इस रूप में ‘ब्लैक’ बहुत ही धीमी गति की फिल्म है जो अपने दर्शकों से सामान्य फिल्मों की तुलना में अधिक धर्य की अपेक्षा रखती है. हिन्दी सिनेमा के इतिहास में दिव्यांगों के प्रति इतनी संवेदनशील फिल्म इससे पहले और बाद में नहीं बनी. ‘ब्लैक’ रंग इस फिल्म में साहस, शक्ति और उत्साह का प्रतीक होकर अपना गज़ब का रंग जमाता है. जीवन को खूबसूरत बनाया जा सकता है – बस शर्त यही है कि हर स्थिति में जीवन जीया जाए. इसी दृढ संकल्प और दृढ इच्छा-शक्ति के सहारे अपने शिक्षक की सहायता से आँखें न होने के बावजूद मिशेल पढ़ती है, बारह साल तक लगातार तत्पर रहने के बाद वह चालीस वर्ष की उम्र में ग्रेजुएट होकर दिखाती है. एक शिक्षक के रूप में मिस्टर देवराज सहाय अपनी शिष्य की अंधेरी दुनिया में प्रकाश लाते हैं और फिर वही शिष्य अपने शिक्षक की अंधेरी हो चुकी दुनिया को रौशन करने का संकल्प करती है.