Title: हिन्दी सिनेमा में दिव्यांग स्त्री छवि
Article-ID 202008017/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.2 May-August 2020 Language:Hindi:E
Domain of Study: Humanities & Social Sciences
Sub-Domain: Cine-Studies (Review)*
रश्मि शर्मा (डॉ०)
एसोशिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, अदिति महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली (भारत)
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Summary in English
GENDER discourses in movies, as a part of analysis and study, picked momentum with the rise of feminist movement. Rashmi Sharma in this article has taken two references viz. gender and disability in context of Hindi movies. It is a portrayal study of disabled women in cinema which also reflects the social psyche and mindset of North Indian society towards these differently abled women. The obvious purpose of this paper seems to sensetize the reader and bring overall change in their outlook towards disabled persons, particularly females. Citation of several films, in the paper, shows the grim psychological and mental condition faced by women due their disability.
आज ऐसा कौन सा काम है , कौन सा पद है,(कुछ को अगर छोड़ दें तो ) जहां इनकी पैठ नहीं है. क्योंकि यदि हम देखें तो दृष्टिहीन होते हुए भी वह व्यक्ति प्रत्येक स्थिति को बखूबी भांप लेता है ,दृष्टि न होते हुए , पैरों से लाचार होते हुए ,अर्ध विकसित मानसिकता आदि के चलते ऐसा कौन सा काम है जो इनसे अछूता है . अंग नहीं हैं तो क्या ,फिर भी सब के साथ खड़े हैं . इनकी सबसे बड़ी शक्ति है इनका दृढ़ आत्मबल . एक ऐसी शक्ति जो इन सभी को जीवन जीने के लिए प्रेरित करती हुई इन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है .ये हमारे समाज का अभिन्न अंग हैं .यही कारण है कि भारतीय साहित्य में भी इनकी महत्ता को लगभग प्रत्येक सदी में भिन्न - भिन्न रूपों में वर्णित किया गया है .हमारी फिल्में भी साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा है ,जहां चित्रपट पर दर्शक इन चरित्रों में अपने - अपने वजूद को तलाशता है. चूंकि फिल्मों के किरदार हमारे समाज का ही हिस्सा होते हैं इसलिए यदि हम हिन्दी सिनेमा की बात करें तो आज हिन्दी सिनेमा को सौ वर्ष पूरे हो चुके हैं और इन सौ वर्षों में समाज का कोई भी वर्ग ऐसा नहीं रहा जिसके चित्र को हिन्दी सिनेमा पट पर खींचा न गया हो . कोई ऐसी समस्या नहीं जिससे हमारा रुपहला पर्दा अछूता रहा हो . हिन्दी सिनेमा में विकलांगों की समस्या ,समाज का उनके प्रति रवैया ,उनमें आत्मविश्वास और सपने देखने ,बुनने ओर उन्हें पूरा करने का दृढ़ संकल्प ,आज समाज के सामान्य व्यक्ति के लिए प्रेरणा स्रोत हैं .भारतीय समाज में किसी कारण से परिस्थितिवश जो जन शारीरिक, मानसिक ,बौद्धिक स्तर पर कमजोर होते हैं, किसी दुर्घटना में उनका कोई अंग भंग हो गया हो ,या अंगों का सम्पूर्ण विकास नहीं हो पाया हो तो ऐसे समाज को एक ही नाम से जाना जाता था अपंग ,अपाहिज ,या विकलांग . वर्तमान में ऐसे जन समुदाय को दिव्यांग नाम से परिभाषित किया गया है . ये वे लोग हैं ,जो समाज को अपनी इस सच्चाई से रूबरू कराते हैं कि शारीरिक रूप से क्षीण होने पर भी हम सामान्य व्यक्तियों से किसी भी प्रकार से कमजोर नहीं हैं . आत्मविश्वास से भरपूर ,कुछ कर गुजरने की चाह ,लगन ,परिश्रम अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति से, न केवल इन पुरुषों ने , बल्कि महिलाओं ने भी अपने लिए एक मुकाम हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत और हिम्मत दिखाई है.
हिन्दी सिनेमा का सम्यक आकलन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में जो पहली फिल्म बनी वह भी मूक थी जिसमें न संवाद थे ,और न ही आवाज थी . मूक अभिनय ,केवल संगीत ओर पात्रों के मनोभाव . यह फिल्म थी ‘राजा हरिश्चंद्र ‘,जो 1913 में सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के ने बनाई थी . इशारों से ही संवाद अदायगी होती थी . परंतु मूक होते हुए भी अपने अभिनय क्षमता से विषय की इतनी सशक्त अभिव्यक्ति इस फिल्म की अपनी विशेषता थी . इससे एक बात तो स्वतः ही स्पष्ट हो जाती है कि मूक प्राणी भी अपनी बात को, भावों को ,विचारों को अभिव्यक्त करने में सक्षम होते हैं . और उन्हें दूसरों तक प्रेषित करने का भी हर संभव प्रयास करते हैं. अगर हम हिन्दी सिनेमा पर एक विहंगम दृष्टि डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दी सिनेमा भी इन किरदारों की मौजूदगी और इनकी महत्ता को लगभग हर दशक में किसी न किसी रूप में दर्ज कराता आया है. फिर चाहे वह पुरुष हो या स्त्री . अनेक संदर्भों द्वारा इस तथ्य की पुष्टि स्वतः ही हो जाती है . हिन्दी फिल्मों में महिलाओं की दिव्यांगता को लेकर अनेक फिल्मों का निर्माण हुआ है ,किन्तु इस विवेचना से पूर्व हिन्दी सिनेमा जगत की उन महत्वपूर्ण फिल्मों का जिक्र भी जरूरी होगा जिन्होंने आगे इस विषय पर फिल्म निर्माण के लिए फिल्म निर्माताओं को प्रेरित किया .
इस कड़ी में सर्वप्रथम सत्येन बोस द्वारा सन 1964 में बनाई गई फिल्म ‘दोस्ती’ है ,जो अत्यंत सफल फिल्म रही है जिसमें दो दोस्तों के प्रेम ,त्याग,समर्पण को सम्वेदनात्मक धरातल . हालांकि इसके केंद्र में कोई स्त्री पात्र नहीं है , फिर भी भूमिका स्वरूप ऐसी कुछ फिल्मों का जिक्र जरूरी हो जाता है ,जो विषय पर आधृत होकर हिन्दी सिनेमा में मील का पत्थर साबित हुईं . यह फिल्म एक अपाहिज लड़के रामू और मोहन जो अंधा है ; की अटूट दोस्ती की कहानी है . दोस्ती एक रिश्ता मात्र नहीं बल्कि इस रिश्ते का पूरी ईमानदारी से बिना शर्त ,निस्वार्थ निर्वाहन इसकी कसौटी भी है .यही भाव इस फिल्म में आदि से अंत तक निहित है . इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है की प्रारम्भ में इस क्षेत्र में भी पुरुष पात्र ही केंद्र में रहा . किन्तु आगे चलकर नायिका प्रधान फिल्मों का भी निर्माण हुआ . भारतीय मनीषियों ने आरंभ से ही स्त्री की महत्ता को समय- समय पर स्वीकार किया है . तभी तो नायिका केवल पेड़ों के इर्द गिर्द चक्कर काटते हुए गीत ही नहीं गाती ,बल्कि वह समाज में स्त्री की हर छवि को पर्दे पर अपने अभिनय कौशल से जीवंत करती आई है . हमारे समाज में भीख मांगने से बड़ा अभिशाप कोई नहीं है और समाज में ऐसे अनेक समूह हैं जो अपने निजी स्वार्थ और लालच के कारण सही अंगों वाले बच्चों ,स्त्रियों के अंग भंग कर देते हैं . इसी वास्तविकता को बयां करती फिल्म ‘सहारा’ जो 1958 में लेखराज भकरी ने निर्देशित की थी, में दर्शाया गया है . फिल्म में लीना के चरित्र को अभिनेत्री मीना कुमारी ने निभाया है. फिल्म के माध्यम से समाज की इसी भयावह तस्वीर को प्रस्तुत किया गया है. इसके केंद्र में एक स्त्री है . मीना कुमारी ने अपने अभिनय से विषय को सार्थक और यथार्थता के साथ प्रस्तुत किया है . बेसहारा और बे आसरा लीना सहारे की तलाश में एक ऐसे दंपत्ति के हाथों पड़ जाती है जो अपने स्वार्थ और लालच में लीना के नेत्रों में धोखे से अंधा करने की दवाई डालकर उसे नेत्रहीन बना देते हैं और भीख मांगने पर मजबूर कर देते हैं . ये हमारे समाज की विडम्बना नहीं तो और क्या है; कि अंग होते हुए भी किस प्रकार से लोग थोड़े से लोभ के कारण सही व्यक्ति के अंगभंग करके उसे भीख जैसे पाप कर्म की खाई में धकेल देते हैं .फिल्म के माध्यम से समाज के इसी विद्रुप सत्य को उद्घाटित करने का सफल प्रयास किया गया है.
इसी विषय पर आधारित अन्य महत्वपूर्ण फिल्मों के अंतर्गत गुलजार द्वारा 1972 में निर्देशित फिल्म ‘कोशिश’ है . यह एक ऐसे ही मूक बधिर जोड़े के प्रेम ,समर्पण ओर आत्मविश्वास का जीवंत दस्तावेज़ है जो प्रेम के मूक अनुभव को एक अलग और नायाब रंगों से रंग देती है . इस फिल्म में अपने सशक्त अभिनय से संजीव कुमार ओर जया भादुड़ी ने पर्दे पर हरिचरण और आरती के किरदार को मानवीय समवेदनाओं के रंग में रंग कर पर्दे पर जीवंत कर दिया है . आरती जो न बोल सकती है न सुन सकती है ,किस प्रकार विवाह हो जाने पर अपने जीवन साथी हरिचरण जो मूक बधिर है, के साथ विषम परिस्थितियों का सामना करते हुए अपने पुत्र का पालन पोषण करती है . इन दोनों के परस्पर सहज प्रेम भाव को गुलजार ने संवाद अदायगी के माध्यम नहीं वरन भावों की लड़ियों से बुना है . इस फिल्म में आरती ओर हरिचन दोनों के ही मूक बधिर होने पर ओर इनके पुत्र हो जाने पर दर्शक का जिज्ञासु मन बार - बार यही सोचता है कि क्या ये अपने पुत्र का पालन पोषण ठीक प्रकार से कर पाएंगे । क्या उनका बेटा जब अपने मूक बधिर माता-पिता को ऐसे रूढ़िवादी समाज में जो दिव्यांगों को हीन और निषिद्ध मानते हैं ,कैसे सम्मान दिलाने में सफल होता है . आरती ,हरिचरण के अनथक प्रयास और उनके बेटे द्वारा माता – पिता को समाज में उचित सम्मान दिलाने की कहानी है ‘कोशिश . इसमें पुरुष पात्र की तुलना में स्त्री पात्र का अभिनय अधिक सशक्त ओर प्रभावशाली है. आरती के रूप में एक ऐसी दिव्यांग स्त्री की छवि दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत की गई है जो एक पत्नी भी है ,माँ भी. बेटे के पालन पोषण में माँ की भागीदारी पिता से कहीं अधिक होती है ,घर को सुचारु रूप से चलना ,अनेक गतिरोधों के बावजूद अपने कर्तव्य का निष्ठा पूर्वक किस प्रकार से निर्वाह करती है ,यह समाज के लिए अनुकरणीय है . स्त्री कमजोर नहीं वरन शक्ति की प्रतिमूर्ति होती है .यह भाव फिल्मों में दिव्याङ्ग स्त्री छवि – निरूपण से स्पष्ट हो जाता है .
किन्तु इससे पूर्व जब हम हिन्दी सिनेमा में दिव्यांग पात्रों पर जब भी चर्चा करते हैं तो पहला जो चित्र हमारी आँखों के सामने आता है वह अभिनेता प्राण द्वारा निभाया गया मलंग चाचा का किरदार है . उपकार फिल्म में निभाए गए इस किरदार को आज तक भी कोई भुला नहीं पाया है . फिल्मों में स्त्री की छवि दोनों ही रूपों में दिखाया गया है एक जीवन में हादसे के परिणामस्वरूप दिव्या होने पर भी हार ना मानने वाली स्त्री ,समाज में अपने अस्तित्व के लिए संघर्षशील और अपनी इस कमजोरी को अपनी ताकत बनाकर आगे बढ़ती और समाज में अपने को सम्मान दिलाती सफलता के पायदान पर स्थापित करने वाली सशक्त नारी के रूप में। वहीं दूसरी तरफ फिल्मों में दिव्याङ्ग स्त्री पात्रों को बड़े ही निरीह , दूसरों का सहारा ढूंढती हुई ,पुरुष की वासना का शिकार ,समाज से उपेक्षित कुछ ऐसे ही रूपों में उजागर किया जाता रहा है जबकि पुरुष पात्र इन्हीं गुणों के चलते फिल्म को टर्निंग प्वाइंट तक ले जाने की अहम भूमिका निभाता चला आ रहा है। मलंग चाचा का उदाहरण हम पूर्व में दे ही चुके हैं –‘कसमे वादे प्यार वफा सब बातें ह,बातों का ज्ञान , मजहर खान का ‘शान‘ फिल्म में अब्दुल का चरित्र --नाम अब्दुल है मेरा सबकी खबर रखता हूँ , शोर का नायक हो सभी फिल्मों में इन पात्रों की भूमिका को आज भी याद किया जाता है । शोले का संवाद – ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर ,ओर उसके बाद हस्त विहीन संजीव कुमार द्वारा निभाया गया ठाकुर का चरित्र आज भी जीवंत है ,आरजू का राजेन्द्र कुमार जो बाद में अपाहिज हो जाता है ,खानदान फिल्म का सुनील दत्त , हम दोनों का देवानन्द ,और भी न जाने कितने ऐसे चरित्र हैं जो आज भी याद किए जाते हैं . ये सभी फिल्में शारीरिक रूप से दिव्यांग पात्रों पर बनी यादगार फिल्में हैं ,जिनमें तकरीबन अधिकांश दिग्गज अभिनेताओं ने इन चरित्रों को पर्दे पर निभाया है. इन पुरुष पात्रों की तुलना में यदि हम देखें तो पाते हैं की फिल्मों में दिव्यांग स्त्री पात्रों के चरित्र का इतना सशक्त ओर प्रभावशाली निरूपण देखने को नहीं मिलता .हाँ कुछ फिल्में अवश्य ऐसी हैं जो स्त्री अस्मिता को कायम रखने में सफल हैं .पुरुष जो फिल्म का नायक है,वह भी इनको पूर्ण सहयोग देता है. ‘सदमा’ एक ऐसी ही फिल्म है .यद्यपि इसे इस श्रेणी में शामिल तो नहीं किया गया है ,किन्तु मेरे विचार में श्री देवी द्वारा अभिनीत वह किरदार मानसिक व्याधि से ग्रस्त है, जिसे कमल हसन अपने स्नेह और सेवा से पूरी तरह से ठीक कर देता है . संजय गुप्ता की फिल्म ‘काबिल’ की समीक्षा अगर करें तो वर्तमान में विकलांगों की समाज में स्थिति का सही चित्र सामने आ जाता है. इस फिल्म में यामी गौतम ने एक अंधी लड़की का किरदार निभाया है ,जो अपनी दुनिया में खुश रहकर अपने सपने साकार होते हुए देखना चाहती है. परंतु समाज की मानसिकता उसके सपनों को अपनी हवस के पैरों तले रोंद देती है .इससे विकलांग स्त्रियॉं की स्थिति का समाज में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है . समाज और कानून का अंधा ,विकृत रूप प्रत्यक्ष हो जाता है . हिन्दी सिनेमा में विकलांग महिलाओं को कभी माँ,कभी बहन ,कभी प्रेमिका के रूप में चित्रित किया गया है . गौर करने वाली बात यह है कि ये सभी किरदार मंझी हुई महान अभिनेत्रियों ने पर्दे पर निभाए हैं ,बावजूद इसके इनका प्रभाव फिल्मों में गौण ही रहा है . उदाहरण के तौर पर यदि हम देखे तो ‘मजबूर’ फिल्म में फरीदा जलाल जिसके पैर खराब हैं .वह व्हील चेयर पर ही रहती है .उसने अमिताभ बच्चन की बहन की भूमिका निभाई है .फिल्म ‘सच्चा झूठा’ में अभिनेत्री ‘ नाज’ जो पैरो से विकलांग है ने राजेश खन्ना की बहन की भूमिका निभाई ,’छोटी बहन’ फिल्म में ‘नन्दा’ ने बलराज साहनी की बहन की भूमिका निभाई थी. इसी प्रकार सुलोचना ,निरूपा राय,फरीदा जलाल आदि अभिनेत्रियों ने दिव्यांग माँ की भूमिका फिल्मों में निभाई है . इनमें माँ के किरदार निर्वहन में तो इन दोनों को सफलता मिली लेकिन बाकी के चरित्र को वह ऊंचाई नहीं मिल सकी जो प्राण को मलंग बनने पर ,मज़्हर खान को अब्दुल बनने ,संजीव कुमार को ठाकुर बनने पर मिली . इन फिल्मों में इनकी केवल विकलांगता को ही दर्शाया गया . हाँ, नन्दा का छोटी बहन का चरित्र निःसन्देह प्रभावशाली था . दृष्टिहीन स्त्री के संघर्ष और आत्मनिर्भरता को 1972 में शक्ति सामंत की फिल्म ‘अनुराग’ ओर 1977 में गुलजार के निर्देशन में बनी फिल्म ‘किनारा’ में प्रस्तुत किया है . अनुराग में मौसमी चटर्जी ने शिवानी की भूमिका निभाई है जो देख नहीं सकती . दृष्टिहीन होते हुए भी वह मूर्तिकला में निपुण है ओर एक आश्रम में रहती है .विनोद मेहरा का प्रेम और साथ पाकर वह दुनिया को उसकी आँखों से देखती है. अंत में एक छोटे बच्चे द्वारा मृत्यु के पश्चात आंखे दान करने पर उसकी आँखों की रोशनी वापस आ जाती है .नेत्रदान से कैसे दूसरे के जीवन के अंधकार को हम प्रकाश में बदल सकते है और अपनी प्रतिभा का विस्तार अन्तर्मन की अनुभूति से ही संभव है . इस फिल्म में यही प्रेरणा निहित है . इसी प्रकार से ‘किनारा ‘ फिल्म में भी हेमा मालिनी जो दुर्घटना ग्रस्त होकर अपनी दृष्टि गंवा बैठती है . इसके बाद भी वह हार कर ,निराश होकर नहीं बैठती,बल्कि अपने सपनों को पूरा करने के लिए संघर्ष करती है . इसमें हेमा मालिनी नृत्यांगना आरती सान्याल की भूमिका में हैं . किस प्रकार से वह अपनी दृष्टि खो जाने के बाद भी अपनी नृत्यकला के प्रदर्शन करती है और जिससे वह प्रेम करती है उसकी पुस्तक के प्रकाशन के लिए हर संभव प्रयास करती है .
तनुजा द्वारा अभिनीत फिल्म ‘इम्तिहान’ में भी स्त्री की छवि को नए रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है .यह फिल्म एक नवीन दृष्टि और नयी सोच को मूर्त रूप प्रदान करती है . वह यह की यदि पुरुष चाहे तो स्त्री को उसकी हर कमजोरी के साथ प्रेमपूर्वक स्वीकार करके स्त्री के अस्तित्व की रक्षा कर सकता है . सन 1979 में कसीनथूनी विश्वनाथ के निर्देशन में बनी फिल्म ‘सरगम’ भी एक ऐसी युवती की कहानी है जो गूंगी और बहरी है ,न बोल सकती है न सुन सकती है .उसके पिता भी अपाहिज हैं . उसे शास्त्रीय नृत्य का शौक है और एक ढफली बजाने वाले की मदद से वह अपने इस इच्छा को पूरा करती है . ये फिल्म तेलगू फिल्म सीरी सीरी मुव्वा की रीमेक है . इस फिल्म में सुनने और बोलने से लाचार स्त्री की समाज में क्या स्थिति है इसे तो दर्शाया ही है . साथ ही यह भी दिखाया है कि इनको दीन हीन समझ कर इनकी अवहेलना करने वाले इसी समाज में एक वर्ग ऐसा भी है जो इन्हें इन कमियों के साथ सहर्ष स्वीकार करने में भी नहीं हिचकिचाता . 1979 में ही हीरेन नाग की फिल्म’ सुनयना ‘ भी एक दृष्टिहीन लड़की की कहानी है . जिसकी दृष्टि दिलाने के लिए राजू नाम का एक ईमानदार शख्स एक अनैतिक काम करके पैसे जुटाता है और जेल चला जाता है . 1990 के दशक में बनी फिल्म ‘नाचे मयूरी’ अत्यंत सफल महिला प्रधान फिल्म थी . इसमें मुख्य भूमिका सुधा चंद्रन ने निभाई थी जो हकीकत में भी विकलांग हैं .ये फिल्म उनके वास्तविक जीवन संघर्ष की कहानी है .किस प्रकार से एक पैर नकली होने पर भी उन्होंने अपना नृत्य के जुनून को छोड़ा नहीं , इसे पूरा किया और सफलता भी पाई . इसी प्रकार’ झील के उस पार ‘ फिल्म में मुमताज़ ने भी एक ऐसी लड़की कि भूमिका निभाई जो देख नहीं सकती .
इसी कड़ी में सन 1999 में इन्द्र कुमार द्वारा निर्देशित’ ‘मन’ भी इसी विषय वस्तु पर आधारित फिल्म है जिसमें एक दुर्घटना में नायिका अपाहिज हो जाती है और सबसे दूर चली जाती है .‘कोशिश’ फिल्म की ही भांति 1996 में फिल्म खामोशी : द म्युज़िकल भी एक ऐसे ही मूक और बधिर दंपत्ति और उनकी बेटी एनी की कहानी है . एनी के माता पिता मूक बधिर हैं . इन मूक बधिर दंपत्ति के जीवन संघर्ष ,जीवन के उतार चढ़ाव ,सुख दुःख की कहानी है. बेटी के भविष्य को लेकर दोनों की शंका और चिंता सहज ही जान पड़ती है . जीवन संगीत है ,जिसे हर पल अनुभव करने की जरूरत है . यही इस फिल्म का मूल भाव है . 2005 में ‘ब्लैक’ बहुचर्चित फिल्म है . यह फिल्म एक अंधी लड़की और उसके टीचर के रिश्ते को दर्शाती है . अंधापन जीवन में अंधकार लेकर आता है किन्तु किसी अपने का साथ पाकर कैसे न देखते हुए भी स्पर्श से हर चीज का एहसास होता है, और जीवन में एक नई रोशनी का संचार होता है . फिल्म 2012 में बनी फिल्म ‘बर्फी’ भी महत्वपूर्ण है . यह कहानी बर्फ़ी नाम के एक गूंगे और बहरे लड़के की कहानी है .जो इन कमियों के बावजूद भी अपनी ज़िंदगी को मस्ती से जीने में विश्वास करता है . वहीं झिलमिल ( प्रियंका चौपड़ा),मंदबुद्धि है उसे आस्टिम(austism) है , जिसके कारण उसके माता पिता ने उसे दुनिया से छिपा रखा है .यह एक ऐसी गंभीर समस्या है जिसमें व्यक्ति का बौद्धिक ,भावनात्मक और सामाजिक स्तर पर दूसरे लोगों से जुड़ाव और विकास नहीं हो पाता , झिलमिल इसी समस्या से ग्रस्त है. बर्फ़ी के बिंदास और मस्ती भरे अंदाज से झिलमिल का उसके प्रति भावनात्मक जुड़ाव दिखाई देता है .वह अपने भावों को अभिव्यक्त करने, उससे बात करने का प्रयास भी करती है . यह फिल्म इन दोनों दिवयांगों के परस्पर सम्बन्धों को दर्शाती है . इसके माध्यम से सर्वथा दिव्यांगता के नए पहलू को उजागर किया गया है . इस प्रकार फिल्मों में जहां एक ओर स्त्री अधिकांशतः लाचार ,मजबूर, कमजोर ,उपेक्षित, अपने वजूद को तलाश करते दिखाई देती है ; तो वहीं दूसरी ओर वह मजबूत चट्टान की तरह अपनी हर कमी को अनदेखा करती अपने हर सपने को पूरा करने की प्रबल शक्ति और आशावादी दृष्टि के साथ निरंतर कठिन संघर्ष करती हुई .अनेक चुनौतियों का सामना करने के बाद वह सफलता की चरम सीमाओं को भी पार कर लेती है . हिन्दी सिनेमा में दिव्यांग स्त्री की छवि को अनेक रूपों में चित्रित किया गया है ,जो समाज की इनके प्रति नकारात्मक और सकारात्मक सोच को दर्शाता है. इनका संघर्ष ,इनकी जीवन दृष्टि ,हौसला ,धैर्य ,साहस ,समाज की उपेक्षा को झेलते हुए कुछ कर गुजरने की चाह ,शांत भाव से तटस्थ होकर चलते जाना सभी कुछ समाज के लिए प्रेरक और उपयोगी है . हिन्दी सिनेमा में दिव्यांग स्त्री छवि को इन्हीं भिन्न - भिन्न आकारों,रूप और रंगों में प्रस्तुत करने का निःसन्देह सफल प्रयास किया गया है . स्पष्ट है दिव्यांगता जीवन की जिजीविषा को कम नहीं करती वरन उसे और भी अधिक दृढ़ता से उभारती है . प्रायः यह देखा गया है की दिव्यांग व्यक्ति ससंघर्ष जीवन को ज़िंदादिली के साथ जीता है . इन फिल्मों में इसी भाव को रूपायित करने का सफल प्रयास निहित है. इस परिप्रेक्ष्य में इन सभी महिलाओं का सतत संघर्ष और जीवन के प्रति सकारात्मक सोच समाज के लिए और सभी महिलाओं के लिए अनुकरणीय है.
संदर्भ
1.https://www.ichowk.in मनीष जैसल ‘विकलांगता के स्तर पर भी हुआ है खूब भेदभाव’
2. hi.m.wikipedia.org.हिन्दी सिनेमा
3.hindi,timesnownews.com/bollywood/Bollywood/article/history-of-indian-cinema-first-film-raja-
harishchandra-release-date-3-may/411717 ,106 साल का हुआ हिन्दी सिनेमा
4.bbc.com/hindi/entertainment/2013/05/130501_cinema_reax_100years_va हिन्दी सिनेमा के सौ साल:
थोड़ी हकीकत थोड़ा फसाना
*Observations on the above article may be sent to editorccgs@gmail.com by August 31, 2020