राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श में सोशल मीडिया का योगदान

 GLOBALCULTURZ ISSN:2582-6808 Vol.I No.3 September-December2020 

Article-ID 2020120025/I  Pages258-264 Language:Hindi Domain of Study: Humanities & Social Sciences  Sub-Domain: Media Studies Title: राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श में सोशल मीडिया का योगदान

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आदर्श कुमार असिस्टेंट प्रोफेसर, स्कूल ऑफ जर्नलिज्म एंड मास कम्यूनिकेशन, नोएडा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, गौतम बुद्ध नगर, उत्तर प्रदेश

 (भारत)  एवं शोधार्थी, मनिपाल विश्वविद्यालय, जयपुर, राजस्थान (भारत)

[E-mailadarshanchor@gmail.com][M:+91-9871440511]  


Note in English    Media Studies


About the Author

सम्प्रति- Assitant Professor,

School of Journalism & Mass Communication

 Noida International University

Research Scholar

Manipal University Jaipur, Jaipur

( International Poet, Author & Journalist)

Gold Medalist, Delhi University Topper, State Topper

( 15 years working experience in No. 1 News Channel 

ABP News, STAR News, Aaj Tak, AIl India Radio, Jansatta & Academics)

Author of popular book Akshar Akshar Adarsh

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शोध सारांश

गंभीर राजनीतिक विमर्श के मामले में सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म में से ट्विटर सबसे प्रभावशाली माध्यम माना जाता है क्योंकि तमाम राजनीतिक दलों के सिरमौर नेता अक्सर किसी भी सूचना या विचार को सबसे पहले ट्विटर पर ही शेयर करते हैं। नेताओं के ट्वीट करते ही उनके समर्थक उनके ट्वीट को रिट्वीट करना शुरू कर देते हैं। अगर नेता प्रभावशाली है और उसके ट्वीट में किसी चटपटी खबर का तत्व शामिल है तो सभी न्यूज चैनल अपने टीवी स्क्रीन पर ट्विटर के टेम्पलेट वाले ग्राफिक्स के जरिए उनके ट्वीट को बार-बार दिखाते हैं।

साथ ही अगर उस ट्वीट में किसी नेता ने दूसरी पार्टी या दूसरी पार्टी के नेता के ऊपर कोई आरोप लगाया है तो संबंधित पार्टी की तरफ से भी जवाबी ट्वीट का सिलसिला शुरू हो जाता है। कई बार अगर ट्वीट ज्यादा हमलावर हुआ तो टीवी चैनलों नेताओं के लिए युद्ध का मैदान बन जाते हैं। इस तरह देखते-देखते कई बार एक ट्वीट बड़ा मुद्दा बन जाता है और उसका असर अगले कई दिनों तक कायम रहता है। यूजर की संख्या के मामले में ट्विटर से बहुत आगे होने के बावजूद फेसबुक राजनीतिक चर्चा की अहमियत के हिसाब से दूसरे नंबर पर आता है। इसके पीछे मुख्य वजह ये है कि ज्यादातर बड़े नेता फेसबुक से कहीं ज्यादा ट्विटर पर सक्रिय है, लेकिन उनकी पार्टी के फेसबुक पेज या खुद उनके प्रोफाइल से लाखों की संख्या में उनके समर्थक जुड़े होते हैं। इसलिए ट्विटर पर खबर आने के तुरंत बाद फेसबुक पर भी चर्चा का दौर शुरू हो जाता है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या सोशल मीडिया राजनीतिक विमर्श में अपनी सकारात्मक भूमिका निभा पा रहा है या फिर ये प्लेटफॉर्म महज नकारात्मक आलोचना का केंद्र बनकर रह गया है। जाहिर है इसके लिए हमें आत्ममंथन की आवश्यकता है क्योंकि मौजूदा दौर में सोशल मीडिया का समाज पर खासकर युवाओं पर जो असर हो रहा है, उससे हम सभी पूरी तरह वाकिफ है। दूसरी बात कि क्या यूजर की अभिव्यक्ति किसी सार्थक बदलाव की वजह बनती है या फिर उनकी अभिव्यक्ति को तमाम नेता अपने वोट बैंक पॉलिटिक्स के तहत अपने हित में इस्तेमाल कर लेते हैं। कायदे से अभिव्यक्ति के प्लेटफॉर्म के निर्माण का अहम मकसद होता है कि जो आवाज किसी मुख्यधारा के जरिए सामने नहीं पा रही है उसे जगह देना। क्या इस पैमाने पर सोशल मीडिया खरा उतर रहा हैइन्हीं सवालों से जूझना हमारे शोध का उद्देश्य था ताकि अगर इस बात की पुष्टि हो जाए कि सोशल मीडिया वाकई में राजनीतिक विमर्श में सार्थक भूमिका निभा रहा है तो इस पर भविष्य में और ज्यादा पैनी निगाह रखी जा सके। साथ ही आनेवाले समय में हम राष्ट्र के विकास हेतु व्यापक विमर्श के लिए सोशल मीडिया के इस्तेमाल के और बेहतर विकल्प तलाश सकते हैं।

इन्हीं सवालों से जूझने के बाद हमने एक सर्वे किया। इस सर्वे में हमने राजनीति, मीडिया, शिक्षाविद् और सामान्य लोगों को शामिल किया। उनसे हमने सोशल मीडिया के जरिए राजनीतिक पोस्ट को लेकर बात की। सर्वे में जो नतीजे सामने आए वो हमारे सामने कई सवाल खड़े करते हैं- जिन पर गंभीर विमर्श की आवश्यकता है। 

क्षण भर में चीते की गति के हिसाब से बदलती इस दुनिया में जहां राष्ट्रीय-क्षेत्रीय राजनीति हमारी जिंदगी की धुरी बन चुका है। राजनीतिक जगत का एक फैसला हमारे भविष्य की रूप-रेखा को काफी हद तक बदलकर रख देता है। ऐसे में इस शोध की कितनी बड़ी अहमियत है, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।

कूट शब्द- राजनीति, सोशल मीडिया, ट्विटर, फेसबुक, राजनीतिक बहस 


शोध भूमिका-

पहले तराशा कांच से उसने मेरा वजूद

फिर शहर भर के हाथ में पत्थर थमा दिया।

 अहमद फराज


लेकिन अब पत्थर सिर्फ शहर भर के हाथ में नहीं बल्कि 30 करोड़ से भी ज्यादा लोगों के हाथों में है। किसी भी राजनेता या राजनीतिक दल के वजूद को सोशल साइट पर उनके द्वारा नियुक्त आईटी प्रोफेशनल बड़े ही करीने से सजाते-संवारते हैं, बड़ी संख्या में उनके लिए फॉलोअर्स जुटाते हैं, उन्हें वोट बैंक में तब्दील करने की कोशिश करते हैं- लेकिन इस कोशिश के बीच अलग-अलग नेताओं के फॉलोअर जाने-अनजाने डिजिटल मीडिया पर उस युद्ध का हिस्सा बन जाते हैं- जिसमें आखिरकार उनके हिस्से कुछ नहीं आता है। सार्थक चर्चा की बजाय स्तरहीन आलोचना में ज्यादा लोग सक्रिय नजर आते हैं। टेक्नॉलॉजी कंसल्टेंसी काउंटर प्वाइंट रिसर्च के मुताबिक देश में 30 करोड़ ज्यादा लोग फिलहाल स्मार्टफोन का इस्तेमाल कर रहे हैं, वहीं करीब 46 करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। जाहिर है ऐसे में सभी राजनीतिक दलों की कोशिश है कि वो अपने मतदाताओं को सोशल साइट्स के जरिए अपने पक्ष में लाकर खड़ा करे और उनका चुनावी फायदा उठाए। इसके लिए सभी राजनीतिक पार्टियों ने अपने सोशल साइट्स के लिए प्रोफेशनल नियुक्त किए हैं जो उनके मुद्दों को सोशल साइट्स पर रखते हैं, उनके लिए कंटेंट तैयार करते हैं और राजनीतिक चर्चा को हवा देते हैं। लेकिन सवाल ये उठता है कि सोशल साइट्स पर जो विमर्श नजर आता है, क्या वो वाकई में लोगों के लिए विमर्श है भी या फिर इसका अस्तित्व आभासी यानि डिजिटल दुनिया तक ही सीमित है। इसे हमने सीमित समय और सीमित संसाधनों की बिनाह पर समझने की कोशिश की है।


शोध उद्देश्य

हमारे शोध के तीन मुख्य उद्देश्य थे। पहला उद्देश्य ये था कि क्या सोशल मीडिया के दो प्रमुख मंच यानि फेसबुक और ट्विटर पर जो वाद-विवाद होता है, उसे गंभीर राजनीतिक विमर्श माना जा सकता है ? दूसरा अगर सोशल साइट्स पर लोगों के वाद-प्रतिवाद को गंभीर विमर्श माना जाता है तो उसका लोगों पर कितना असर पड़ता है ? तीसरा उद्देश्य ये कि कहीं फेसबुक और ट्विटर सिर्फ नकारात्मक टीका-टिप्पणी का अड्डा बनकर तो नहीं रह गया है या फिर हमें उम्मीद है कि आने वाले दिनों में फेसबुक और ट्विटर पर सार्थक चर्चा का माहौल बन सकेगा।

साहित्य का पुनरावलोकन

हमारे शोध का विषय सोशल साइट के दो प्रमुख मंच यानि फेसबुक और ट्विटर से जुड़ा हुआ है यानि इन दोनों सोशल मीडिया पर राजनीतिक मुद्दों की उपस्थिति को अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में हम देखने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए हमने ऑनलाइन मीडिया पर मौजूद सामग्री के अध्ययन की कोशिश की। इनमें बीबीसी हिंदी डॉट कॉम, वायर डॉट कॉम, एनडीटीवी डॉट कॉम, फेसबुक, ट्विटर समेत और भी कई वेबसाइट शामिल हैं। 

शोध प्रविधि

सर्वे और डिजिटल मीडिया में कार्यरत लोगों से बातचीत-

हमने इस शोध के लिए 5 सवाल तैयार किए और उन सवालों को फेसबुक मैसेंजर, जीमेल और वॉट्सएप के जरिए 240 लोगों को भेजा। 

पहला सवाल- क्या सोशल साइट पर आप राजनीतिक टिप्पणियों में रुचि लेते हैं

दूसरा सवाल- क्या आप मानते हैं कि फेसबुक और ट्विटर पर गंभीर राजनीतिक चर्चा होती है

तीसरा सवालक्या राजनीतिक दलों का एकमात्र मकसद सोशल मीडिया पर फर्जी खबरों के जरिए अपनी छवि चमकाना और विपक्षी दलों की छवि को धूमिल करना है?

चौथा सवाल- क्या फेसबुक और ट्विटर पर लोग सिर्फ नकारात्मक राजनीतिक टिप्पणी करते हैं- टिप्पणी में गाली धमकी के तत्व किस हद तक शामिल हैं?

पांचवां सवाल- क्या अगले 5 सालों में फेसबुक और ट्विटर पर सार्थक राजनीतिक चर्चा का माहौल बन सकेगा?


प्रदत्त संकलन

शोध पत्र लिखने तक हमें कुल 174 लोगों के जवाब मिले। ये जो 174 लोग थे, इनकी उम्र 20 वर्ष से लेकर 70 वर्ष के बीच है। ये लोग अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़े हुए हैं। ये सभी फेसबुक और ट्विटर पर सक्रिय हैं। इन लोगों के जवाब हमें ऑनलाइन माध्यम यानि जीमेल, फेसबुक मैसेंजर और वॉट्स एप के जरिए मिले। वहीं कुछ लोगों का जवाब नहीं आने पर हमने फोन से बातचीत करके उनका जवाब जाना।

प्रदत्त विश्लेषण और विवेचन

सर्वे में हमने पहला सवाल ये पूछा था कि क्या आप फेसबुक और ट्विटर पर राजनीतिक टिप्पणियों में रुचि लेते हैं। इस सवाल के जवाब में 78 फीसदी लोगों का कहना था- हां, वो रुचि लेते हैं, वहीं 20 फीसदी लोगों का कहना था कि वो फेसबुक और ट्विटर सिर्फ मनोरंजन के लिए इस्तेमाल करते हैं। 

दूसरा सवाल हमने ये किया था कि क्या फेसबुक और ट्विटर पर गंभीर राजनीतिक चर्चा होती है। इस सवाल के जवाब में 24 फीसदी लोगों ने कहा- हां, वहीं 66 फीसदी लोगों का कहना था नहीं, लोग सिर्फ नेताओं के बयान का लुत्फ लेते हैं- जबकि 10 फीसदी का कहना था कि ये माध्यम वो सिर्फ टाइमपास के लिए इस्तेमाल करते हैं।

तीसरा सवाल हमारा ये था कि क्या राजनीतिक दलों का एकमात्र मकसद फर्जी खबरों के जरिए अपनी छवि चमकाना और विपक्षी दलों की छवि धूमिल करना है। इस सवाल के जवाब में 70 फीसदी लोगों का कहना था- हां, वहीं 26 फीसदी लोगों का कहना था कि पार्टी का मुख्य ध्यान अपने प्रचार पर होता है जबकि 4 प्रतिशत लोगों की राय स्पष्ट नहीं थी।

चौथा सवाल हमने ये पूछा था कि क्या फेसबुक और ट्विटर पर लोग सिर्फ नकारात्मक राजनीतिक टिप्पणी करते हैं ? इस सवाल के जवाब में 30 फीसदी लोगों ने कहा हां, 45 फीसदी लोगों का कहना था कि वो या तो किसी का समर्थन करते हैं या फिर किसी का विरोध। इस प्रक्रिया में कई बार आपसी वाद-विवाद पैदा हो जाता है और भाषा का स्तर भी गिर जाता है और ब्लॉक करने से लेकर धमकी देने तक बात पहुंच जाती है। वहीं 20 फीसदी लोगों का कहना था कि वो सिर्फ टिप्पणी को पसंद या नापसंद करते हैं। बाकी 5 फीसदी लोगों का कहना था कि वो सिर्फ देखते हैं कि कौन क्या लिख रहा है।

पांचवां और आखिरी सवाल हमने ये पूछा था कि क्या आनेवाले 5 सालों में फेसबुक और ट्विटर पर सार्थक राजनीतिक चर्चा का माहौल बन सकेगा इस सवाल का जवाब चौंकाने वाला था। इस सवाल के जवाब में 65 फीसदी लोगों का कहना था कि ये ठीक वैसे ही रहेगा, जैसे आज है। वहीं 20 फीसदी लोगों का कहना था कि आने वाले 5 सालों में लोग फेसबुक और ट्विटर पर लोग आपस में बेवजह लड़ेंगे नहीं- जबकि 15 फीसदी लोगों का कहना था कि आगे क्या होगा, अभी कहना मुश्किल है।

                                   

सोशल मीडिया पर राजनीतिक चर्चा की कितनी अहमियत 

फेसबुक और ट्विटर पर राजनीतिक चर्चा की अहमियत को समझने से पहले कुछ प्रमुख नेताओं के फॉलोअर की संख्या पर नजर डालते हैं। 18 सितम्बर  2018 को रात दस बजे तक देश के सबसे लोकप्रिय नेता यानि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ट्विटर फॉलोअर की संख्या  4 करोड़ 39 लाख 34 हजार 587 थी। वहीं पीएमओ इंडिया जो प्रधानमंत्री कार्यालय का ट्विटर प्रोफाइल है, उसे करीब 2 करोड़ 70 लाख 31 हजार 387 लोग फॉलो कर रहे थे। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को ट्विटर पर करीब 76 लाख 20 हजार लोग फॉलो कर रहे हैं।

ये सारी तस्वीरें दरअसल 18 सितंबर के रात 10 बजे तक उनके पेज के स्क्रीनशॉट हैं। हमने इन नेताओं के फेसबुक और ट्विटर पेज खंगाले। आपको बता दें कि हमने इन नेताओं को सिर्फ एक उदाहरण के तौर पर लिया है। इनके अलावा भी बहुत सारे नेता हैं, जिनके फॉलोअर्स की बड़ी तादाद है- लेकिन हमारा मकसद यहां ये समझना है कि सोशल साइट्स खास तौर से फेसबुक और ट्विटर राजनीतिक चर्चा के लिहाज से राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए अहम क्यों हैं। दरअसल इन नेताओं के ट्विटर और फेसबुक पेज से जो संदेश या तस्वीर प्रसारित किए जाते हैं- उन्हें इनके फॉलोअर आगे बढ़ाते हैं। उदाहरण के तौर पर समर्थक अपने नेताओं के ट्वीट को रिट्वीट करते हैं और फेसबुक पोस्ट को शेयर करते हैं। यही नहीं नेताओं के समर्थक अपने विरोधी दलो के समर्थकों को ट्रोल करते हैं और एक-दूसरे के खिलाफ कैंपेन चलाते हैं। 

अपनी किताब 'आई एम ट्रोल' में स्वाति चतुर्वेदी बीजेपी के सोशल मीडिया कंट्रोल रूम के बारे में लिखती हैं कि बॉलीवुड अभिनेता आमिर ख़ान को ट्रोल करने और कांग्रेस नेताओं के ख़िलाफ़ ट्वीट करने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया गया था। वो बताती हैं कि पार्टियों के पास हज़ारों ऐसे ट्विटर अकाउंट है जिनका इस्तेमाल वो ज़रूरत पड़ने पर करते हैं। लोगों को पता नहीं चल पाता कि आपके खिलाफ या आपके समर्थन में कौन बोल रहा है। नकली नाम और तस्वीर के जरिए फेसबुक और ट्विटर पर किसी के खिलाफ कुछ भी कहा जा रहा है। दूसरी बात कि एक नेता के समर्थक ने अगर एक पार्टी के अध्यक्ष को पप्पू कहा तो दूसरी तरफ से दूसरे नेता को फेंकू कहा गया। एक ने आरोप लगाया कि एक नेता छुट्टी मना रहे हैं तो दूसरी तरफ से जवाब आया कि उनके नेता देश में रहते ही कब है। 

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में ये बताया गया कि सोशल मीडिया को अपना वोट बैंक हासिल करने के लिहाज से देखना दुनिया भर में एक गंभीर खतरे की ओर इशारा करता है। इस अध्ययन में ये बात भी सामने आई है कि सरकारी एजेंसियां और राजनीतिक दल फर्जी खबरें फैलाने, सेशरशिप करने या मीडिया  के प्रति शक का भाव पैदा करने के लिए फेसबुक और ट्विटर का इस्तेमाल करते हैं। इसके साथ ही अध्ययन में ये भी कहा गया है कि फर्जी खबरें फैलाने के लिए लोग लाखों डॉलर खर्च कर रहे हैं।

                                वो वक्त बीत गया जब हर दल के राजनीतिक कार्यकर्ता घर-घर जाकर अपने उम्मीदवार का प्रचार करते थे। अब प्रचार का मुख्य जिम्मा आईटी और कम्यूनिकेशन एक्सपर्ट के हाथों में है। साल 2009 में ट्विटर पर सबसे सक्रिय नेता थे- शशि थरूर और अब 9 साल बाद तकरीबन हर नेता ट्विटर पर मौजूद है, वहीं सबके अपने-अपने फेसबुक पेज हैं। कहा जाता है कि रेडियो को लोगों तक पहुंचने में करीब 40 साल लग गए, टीवी को 15 साल लगे, इंटरनेट को 4 साल लगे- जबकि फेसबुक पेज सिर्फ 9-10 महीने में लोकप्रिय हो गया दूसरी तरफ ट्विटर पर ज्यादातर लोग वो हैं जो किसी किसी राजनीतिक विचारधारा का समर्थन या विरोध करते हैं या फिर किसी सितारे की गतिविधियों को लगातार फॉलो करना चाहते हैं।

सोशल मीडिया पर लोकप्रिय टिप्पणीकार दिलीप मंडल के मुताबि यहां आपके आसपास वही लोग बार-बार नजर आते हैं, जिनकी बातों को आप लाइक करते हैं या शेयर करते हैं. इस तरह सैद्धांतिक रूप से तो आप फेसबुक पर भारत में 25 करोड़ यूजर्स में से किसी के साथ भी जुड़ सकते हैं, लेकिन आप अक्सर अपने पेशे, ऑफिस, कॉलेज, इलाके, भाषा या जाति या धर्म या विचार के लोगों के समूह में बंध जाते हैं. सोशल मीडिया में बन रहे या मजबूत हो रहे गिरोहों की तुलना आप उन अपार्टमेंट या हाउसिंग सोसायटी से कर सकते हैं, जिसमें एक जैसे लोग रहते हों और मेन गेट पर गार्ड खड़े हों। 

                                                           ऐसे में आप भला किस तरह उम्मीद कर सकते हैं कि फेसबुक या ट्विटर पर व्यापक सार्थक विमर्श किया जा सकता है। इस शोध पत्र के लिखे जाने के समय ही यानि 17 सितंबर, 2018 को ये खबर वायरल हुई कि झारखंड के गोड्डा से बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने बीजेपी कार्यकर्ता से अपने पैर धुलवाए और फेसबुक पर तस्वीर अपलोड कर दी। इसके बाद उन्हें खूब ट्रोल किया गया। 

                                                  सोशल साइट पर उपजे विवाद का असर काफी दूर तक होता है। आपको याद होगा कि ट्विटर पर आईपीएल फ्रेंचाइजी के संदर्भ में शशि थरूर और ललित मोदी के बीच जो विवाद हुआ- उसका खामियाजा ये हुआ कि दोनों को अपने पद छोड़ने पड़े। तब शशि थरूर विदेश राज्य मंत्री हुआ करते थे और ललित मोदी आईपीएल कमिश्नर। साल 2009 में जब यूपीए सरकार ने अपने मंत्रियों से खर्चों में कटौती करने की अपील की थी- उस व़क्त विदेश राज्य मंत्री थरूर ने एक ट्वीट में कहा था कि किफ़ायत बरतने के काम में वे अपने बाक़ी मंत्रियों के साथ हवाई जहाज़ की इकॉनमी क्लास या उनके शब्दों में मवेशी श्रेणी (कैटल क्लास) में यात्रा करने को तैयार हैं। उनके इस ट्वीट पर उस वक्त बवाल मच गया था। दूसरी तरफ 17 साल बाद हरियाणा की मानुषी छिल्लर को जब विश्व सुंदरी चुना गया तो उस वक्त थरूर ने एक ट्वीट किया था, जिसके बाद उन्हें ट्रोल किया गया। ट्वीट में थरूर ने कहा था कि  "नोटबंदी से कितनी ग़लती हुई. बीजेपी को समझना चाहिए कि भारत की नकदी दुनिया में श्रेष्ठ है. यहां तक कि हमारे चिल्लर तक को विश्व सुंदरी का खिताब मिल गया."

निष्कर्षसर्वे, डिजिटल मीडिया के लोगों से बातचीत और विचार विमर्श से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि फेसबुक और ट्विटर पर अपनी पार्टी के प्रचार और दूसरी पार्टी के नेताओं के बयानों पर नकारात्मक टिप्पणी और यहां तक कि अलग-अलग पार्टियों के समर्थकों के बीच गाली-गलौज का दौर जारी है। गंभीर चर्चा की बहुत ज्यादा गुंजाइश यहां नजर नहीं आती। हमने नेताओं के बहुत-से पोस्ट के कमेंट पर गौर किया तो पाया कि कमेंट के तौर पर सिर्फ गुस्से का इजहार, धमकी, आपसी-विवाद और कुल मिलाकर ट्रोल किए जाने का ही चलन है। 

दूसरी बात कि फेसबुक और ट्विटर पर की जाने वाली चर्चा का असर ज्यादातर असर युवाओं पर है। वृद्ध और महिलाएं टीवी पर राजनीतिक चर्चा को ज्यादा तवज्जो देते हैं। साथ ही राजनीतिक दलों के आईटी और कम्यूनिकेशन प्रोफेशनल जो फेसबुक और ट्विटर पर प्रचार की जिम्मेदारी संभालते हैं, वो फर्जी खबरों और फर्जी तस्वीरों का ज्यादा सहारा ले रहे हैं। दूसरी तरफ शोध के उपरांत हम इस नतीजे पर पहुंचे कि फेसबुक और ट्विटर पर यूजर की आदत में फिलहाल कोई बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आने जा रहा फेसबुक और ट्विटर जैसी लोकप्रिय सोशल साइट पर हम गंभीर राजनीतिक विमर्श। का माहौल पैदा कर सकेंइसके लिए हमें शायद लंबे समय तक इंतजार करना पड़े।


संदर्भ सूची


पुस्तक- नए जमाने की पत्रकारिता- सौरभ शुक्ल

http://thewirehindi.com

https://hindi.firstpost.com/

https://www.bhaskar.com/

https://hindi.news18.com/

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