जापान: भारतीय सांस्कृतिक संदर्भ का अनुभवजन्य अनुशीलन

 

GLOBALCULTURZ  Vol.II No.1 January-April 2021 ISSN:2582-6808 

Article ID-202101029 Pages: 276-281 Language: Hindi 

Domain of Study: Humanities & Social Sciences Sub-Domain: Literary Studies 

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राम प्रकाश द्विवेदी

एसोसिएट प्रोफेसरभीमराव अंबेडकर कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली (भारत)

E-mail: rampdwivedi@gmail.com [M:+91-9868068787]

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 About the Author                                                      

 Associate Professor, Deptartment of Hindi. Dr. Bhim Rao Ambedkar College, University of Delhi

Delhi [INDIA]

                                                                                                                   

Note in English 

Literary Studies

          


                                                                                                  

शोध सार- तोक्यो विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय जापान में हिंदी शिक्षण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संस्थान है। विश्व हिंदी शिक्षण केंद्रों में इसका बड़ा आदर है।  मौलाना बरकतउल्ला भोपाली विदेशों में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ क्रांतिकारी काम में जुटे हुए थे। 1910 ई० में वे इसी सिलसिले में तोक्यो पहुँचे और विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय में अनौपचारिक रूप से हिंदुस्तानी-उर्दू और हिंदी-के अध्यापन का कार्य करने लगे। आज यहाँ 27 विदेशी भाषाओं का अध्यापन किया जाता है जिनमें तीन-हिंदी, उर्दू, बंगाली-भारत की ही हैं। हालाँकि कूटनीतिक कारणों से उर्दू के प्राध्यापक पाकिस्तान से आते है। हिंदी और बंगाली के भारत से। अब बंग्लादेश के लोग अपने यहाँ से अध्यापक बुलाने की माँग कर रहे हैं। आजादी के बाद हिंदी और उर्दू के स्वतंत्र विभाग विकसित हो गए थे।

शोध आलेख

जब किसी विदेशी का संस्पर्श परायी संस्कृति के साथ होता है तब उसे जानने-समझने के पैमाने उसे अपनी संस्कृति से ही उठाने पड्ते हैं। अपनी संस्कृति बरबस उसके सामने एक जीवित अवयव की भाँति खड़ी होती है। जापान में पाँच वर्षों तक रहने का अनुभव जब संकलित करने का प्रयास करता हूँ तब बहुत सी चीजें छूट जाती हैं जिन्हें फिर कभी समेटने की लालसा बची रहती है। भारत और जापान के संबंध बाकी दुनिया की तरह नहीं पहचाने जा सकते। यह एक अनूठा और विस्मयकारी संबंध है जिसकी शुरुआत दर्शन के परकोटे से होती हुई, इतिहास, संस्कृति, मिथक, भाषा-साहित्य, राजनीति और आर्थिकी के दायरों को समाहित करती चलती है। समय-समय पर इनमें से कोई क्षेत्र विशेष अधिक उभर आता है तो कोई नदी के प्रवाह की तरह सतह के नीचे पूरी ऊर्जा से चलायमान रहता है। जापान में रहते और जीते हुए भारत के प्रतिबिंब और प्रतिध्वनियाँ सहसा सामने खड़ी होती थी और वे प्राय: अपने देश की ओर स्मृतियों का एक सैलाब मोड़ देती थी। तोक्यों के जिस हिस्से में मैं रहता था वहाँ एक खूबसूरत पार्क था-इनोकाशिरा। बहुत दिनों तक शाम के धुँधलके में उस उद्यान में यूँ ही टहलने चले जाया करता था। वहाँ एक भव्य काष्ठ-मंदिर है जो एक झील नुमा जलस्रोत के बीचोंबीच अवस्थित है। वहाँ आते-जाते लोगों को देखना, प्रार्थना में करबद्ध हाथों को निहारना तनावरहित होने का एक सुगम उपक्रम हुआ करता था। एक दिन दक्षिण एशियाई विभाग के निदेशक माननीय ताकेशि फुजिइ जी ने बताया कि वह मंदिर देवीबेंजाइतेनका है जो भारतीय देवी सरस्वती का ही प्रतिरूप हैं। इस जानकारी से मेरा मन उत्कंठा से भर गया। अब वह मंदिर मेरे लिए एक स्थानीय तीर्थ-सा हो चला था जिसमें एक अतिरिकत श्रद्धा का समावेश हो गया था। जब भी कोई भारतीय मित्र मुझे मिलने आता मेरी बलवती अभिलाषा होती कि उस मंदिर के दर्शन उसे जरूर करा दूँ। बाद में तो जगह-जगह बौद्ध प्रतिमाओ, मंदिरों और स्मृति-स्थलों पर भारतीय जीवनधारा की पदचाप सुनाई देने लगी। नारा मे बोधिसेना की लहराती धर्म-पताका, गौरवशाली अशोक स्तंभ, कामाकुरा की महाकाय बौद्ध प्रतिमा, नेताजी बोस का अस्थिकलश, तमा की विराट श्मशान-भूमि में समाधिस्थ रासबिहारी बोस, तोक्यो में भारतीय दूतावास के पास जापान के राष्ट्रीय स्मारक में विराजमान विधिवेत्ता राधाबिनोद पाल की श्रद्धामूर्ति, स्वामी रामतीर्थ, विवेकानंद, कविवर  रबीन्द्र की, बरकातुल्ला खाँ के अवदान, ‘दो आँखें बारह हाथफिल्म में चित्रित केगोन का जल प्रपात, निक्को में गाँधी जी के चिरपरिचित तीन बंदरों की प्रतिकृतियाँ, नोकोगिरियामा के विराट शिलापट पर उतकीरित शांत बुद्ध; अनेक संस्मरण हैं जो भारत की भावधारा को जापान की भूमि पर प्रवहमान बनाते हैं। कहें तो कह सकते हैं कि भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के परागकणों की गंध वहाँ के वायुमंडल में सहज महसूस की जा सकती है। यही कारण है कि भारत को देखने का जापानी कोण पश्चिमी दुनिया से अलग अधिक आत्मीयता और कृतज्ञता से भरा हुआ है। 

तोक्यो विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय जापान में हिंदी शिक्षण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संस्थान है। विश्व हिंदी शिक्षण केंद्रों में इसका बड़ा आदर है।  मौलाना बरकतउल्ला भोपाली विदेशों में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ क्रांतिकारी काम में जुटे हुए थे। 1910 ई० में वे इसी सिलसिले में तोक्यो पहुँचे और विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय में अनौपचारिक रूप से हिंदुस्तानी-उर्दू और हिंदी-के अध्यापन का कार्य करने लगे। आज यहाँ 27 विदेशी भाषाओं का अध्यापन किया जाता है जिनमें तीन-हिंदी, उर्दू, बंगाली-भारत की ही हैं। हालाँकि कूटनीतिक कारणों से उर्दू के प्राध्यापक पाकिस्तान से आते है। हिंदी और बंगाली के भारत से। अब बंग्लादेश के लोग अपने यहाँ से अध्यापक बुलाने की माँग कर रहे हैं। आजादी के बाद हिंदी और उर्दू के स्वतंत्र विभाग विकसित हो गए थे। बंगला भाषा के अध्यापन की विधिवत शुरुआत मेरे वहाँ रहते हुई। विश्वविद्यालय में सबसे ख्यातलब्ध नाम अवकाश प्राप्त प्रो० तोषियो तनाका का है। पिछले ही वर्ष दूसरे बड़े हिंदी मर्मज्ञ प्रो० ताकेशि फुजिइ जी ने भी अवकाश ग्रहण कर लिया। फिलहाल अब सारा दायित्व प्रो० यशोफुमि मिज़ुनो जी के कंधो पर है जो संस्कृत, ब्रज के विद्वान हैं। नगानों प्रांत के एक पर्वत शिखर पर उनका पुश्तैनी विशाल बौद्ध मंदिर है। सन् 2012-2017 के पाँच वर्षों के अपने प्रवास के दौरान जापानी छात्रों की भारत की शिक्षण यात्रा का आयोजन हर वर्ष करना होता था। वे प्राय: दिल्ली, जयपुर, आगरा, हरिद्वार और अमृतसर देखने के इच्छुक रहते थे। लेकिन एक बैच मेरे पैतृक निवास अयोध्या होता हुआ वाराणसी और कोलकाता तक भी गया। अयोध्या में अग्रज यतीन्द्र मिश्र के राजप्रासाद के आतिथ्य से छात्र गदगद थे। हर वर्ष एक हिंदी नाटक भी विद्यार्थियों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। मेरे प्रवास के अंतिम वर्ष में इस नाटक की पुनर्प्रस्तुति तोक्यो के भारतीय दूतावास में भी होने लगी थी जो आज भी जारी है। पाठ्यक्रम-परीक्षा के बहुत कठोर नियम नहीं हैं और विजिटिंग प्रोफेसर को तमाम आजादियाँ मिलती हैं। सिवाय एक-कक्षा में अनुपस्थिति- के। विश्वविद्यालय की  आठवीं मंजिल जहाँ मेरा ऑफिस था, खिड़की के पर्दे हटाते ही माउंट फूजी का धवल पर्वत शिखर प्राय: दिख जाया करता था-जो हिमालय जैसी आस्था और प्रेरणा का सृजन करता था।  

पराया देश समय की महत्ता बताता है। मन उद्वेलित रहता था कि अनेक जगहों को देख लूँ, भोजन का स्वाद चख लूँ, पहाड़ों की प्रदक्षिणा कर लूँ, सागर की नीली गहराइयों में उतर जाऊँ, अविरल बहती सलिला से संवाद कर लूँ, देवालयों में बैठी आत्माओं की छाया में अपने पूर्वजों की अनुगूँज सुन लूँ और फिर वहाँ की राजनीति और अर्थतंत्र की हलचलों को पकड़ लूँ, सामाजिक वेदनाओं का संधान करूँ साथ ही छात्रों को भारत भूमि की विराट संस्कृति तथा हिंदी साहित्य के वैभव से परिचित करा दूँ। अनेक इच्छाएँ और लक्ष्य के अनंत छोर मेरे मन को घेरे रहते थे यायावरी ही एकमात्र उपाय था जो इन हसरतों को अंजाम तक ले जा पाता। थोड़े दिन बीते तो शहर अपना लगने लगा और घुमक्कड़ी आासान हो चली। प्राय: हर सफ्ताहांत किसी अनजाने कोने की ओर निकल पड़ता, अकेले। झरती बारिश में और आकाश से उतरते सफेद बर्फ के फाहों में भ्रमण आह्लादकारी था। कई बार तो चेतावनी के बावजूद भी चक्रवातों और बवंडरों को किसी कोने से देख लेने का मनोवेग इतना तीव्रतर होता कि बीमार पड़ने तक की नौबत जाती। तोक्यो के इर्दगिर्द फैले क्षेत्र को कांतो कहा जाता है। एक दिवसीय भ्रमण के लिए सबसे बढ़िया और किफायती यातायात मेट्रों की ट्रेनें हैं जो बड़े ही कठोर अनुशासन से चलती हैं। एक मिनट की भी देरी नहीं होती। इस परिवहन व्यवास़्था पर कई किताबें और वृत्तचित्र सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं। यह देशाटन के लिए एक बड़ा सुभीता है। जापानी जीवन-शैली को निकटता से परखने का अवसर इनके बिना संभव हो पाता।

भारत-जापान संबंधों की शुरुआत मदुरै में जन्में बोधिसेना के जापान पहुँचने से हुई थी। वे एक भिक्षु थे जो चीन के वुताइ पर्वत की तीर्थ-यात्रा पर थे। वहाँ उनकी भेंट जापान के तत्कालीन सम्राट शोमू के राजदूत से हुई। अब तक जापान के लोगों की बौद्ध दर्शन संबंधी जानकारी चीनी और कोरियाई भिक्षुओं के आवागमन पर ही आधारित थी। एक भारतीय की चीन में उपस्थिति को जापानी राजदूत ने अवसर के तौर पर देखा और सम्राट की ओर से उन्हें जापान यात्रा का निमंत्रण दिया जिसे बोधिसेना ने सहर्ष स्वीकार किया। बोधिसेना, कंबोडिया और विएतनाम होते हुए सन् 736 ई० में आोसाका पहुँचे और फिर वहाँ से तत्कालीन राजधानी नारा की ओर रवाना हुए। बोधिसेना की प्रत्यक्ष उपस्थिति से बौद्ध धर्म का विधिवत शुभारंभ जापान में हुआ। नारा का तोदाई-जी मंदिर, जो एक विश्व धरोहर है, आज भी इसका साक्षी है। तोदाई-जी मंदिर के प्रांगण में मुक्त विचरते मृगों का रेला एक अलग ही आनंद-विधान की रचना करते हैं। इसी मंदिर में बुद्ध की 500 टन वजनी और 15 मीटर ऊँची कांस्य-मूर्ति विराजमान है। यह विश्व की सबसे विशाल कांस्य-प्रतिमा भी है। इसी तरह की एक भव्य एवं विशाल बौद्ध आकृति कमाकुरा नामक शहर में है जो तोक्यो से काफी नजदीक है। यहाँ कई बार जाना हुआ। 


जापान की आबादी हमारे उत्तर-प्रदेश से आधी लगभग साढ़े बारह करोड़ की है और क्षेत्रफल भी राजस्थान और हरियाणा के बराबर है। अधिकांश हिस्सा पर्वत श्रेणियों से ढका है और जिन पर ज्वालामुखियों का विस्तार है। कम हिस्से हैं जहाँ बसावट है। लगभग आधी आबादी तीन बड़े शहरों तोक्यो, आोसाका और नागोया के इर्द-गिर्द रहती है।तीन बड़े धर्म-शिंतो, बौद्ध और ईसाई-प्रत्येक नागरिक के जीवन का अंग है। धार्मिक कट्टरता नगण्य है और आधुनिक युवा वर्ग में ईश्वर के प्रति आस्था का सर्वथा अभाव है। धर्म एक संस्कृति में तब्दील हो चुका है, जो तीर्थाटन और पर्यटन में विभेद नहीं करता। मदिरापान जीवनशैली का अविभाज्य घटक है। मांसाहार और शाकाहार का भेद जापानी नहीं जानता। हमें जब-जब परिवार के साथ यात्रा करनी होती तब अपनी पूरी और पीले आलुओं का लंच साथ ले जाना पड़ता। तरह-तरह की ग्रीन-टी (ओचा) हमारी चाय की तरह प्रसिद्ध और लोकप्रिय है। साइकिल और पैदल चलने के निर्धारित पथ हैं जिन पर कोई अवैध कब्जा नहीं है। कारों की भरमार के बावजूद लोग साइकिलों और मेट्रों से ही प्राय: यात्रा करते हैं। आर्थिक समानता कमोवेश बनी हुई है और शत-प्रतिशत साक्षरता ने जिस भावबोध को विकसित किया उसमें दिखावेबाजी, बातूनीपन और छद्म श्रेष्ठता का सहज तिरस्कार कर दिया जाता है। लक्ष्मीधर मालवीय-जो महामना के पोते थे-जापान के क्योतो शहर में रहते थे। विगत वर्ष ही उनका देहांत हुआ। वे कहा करते थे कि हम भारतीय भाषा से खेलते हैं, उससे वितंडा रचते हैं, जापानी स्वाभाव से मौनकामी है और भाषाई वितंडावादी को बड़ी गर्हित नजरों से देखता है, उससे किनारा कर लेता है। राजनीति का सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में बेहद कम हस्तक्षेप होता है। लोग प्रशासनिक तंत्र पर भरोसा करते हैं। सरकारें अपनी जवाबदेही सुनिश्चित करती हैं। धरने-प्रदर्शन कम होते हैं पर जब भी होते हैं तब भी आम जनता प्रभावित नहीं होती। झुंडवाद और भीड़तंत्र से लोकनीति का निर्माण और नियंत्रण नहीं होता। नागरिक एक-दूसरे प्रति संवेदनशील रहते हैं। खोयी हुई चीजें बिना किसी क्षति के सौ प्रतिशत मिल जाती हैं। निंदारस का नकार ही देखने को मिलता है। जापानी नागरिक एक बेहद अनुशासित जीवन शैली जीता है। काम पर एक मिनट की देरी अपराध जैसे महसूस की जाती है। प्रकृति के वास्तविक आदर देखने को मिलता है। सड़के, पार्क, नदियाँ साफ-सुथरे बने रहते हैं। तिनका भर भी गंदगी देखने को नहीं मिलती। सड़कों पर हार्न बिलकुल नहीं बजते। बिना पूर्व तय किए दूसरे से मिलना नामुमकिन है। फोन नहीं किए जाते। -मेल या संदेशवाही मोबाइल ऐप्स का ही इस्तेमाल किया जाता है। फोन तभी जब जीवन-मृत्यु का प्रश्न हो। ऐसा नहीं तो आप बेहद अगंभीर माने जाते हैं। मुझे इसे आत्मसात करने में महीनों लगे।


बोधिसेना जब जापान पहुँचे तो धर्म-दर्शन के साथ संस्कृत भाषा भी ले गए थे। आज जापान में तीन लिपियाँ-कांजी, हिरागाना, कताकाना-लिखित भाषा के लिए प्रचलित हैं। कहा जाता है कि कताकना पर संस्कृत का स्पष्ट प्रभाव है। अनेक संस्कृत शब्द जापानी में देखने को मिल जाते हैं जिनमें मुझेतोरी’ (तोरण-द्वार) बहुत प्रिय लगता है। हर जापानी मंदिर के बाहर प्राय: तोरी अवश्य होती है। इसी तरह भारतीय मिथकीय चरित्र भी देखने को मिलते हैं जिनमें सरस्वती, यम, गणेश की प्रतिकृतियाँ शामिल हैं। देश के दो विश्वविद्यालयों-ओसाका और तोक्यो विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय में हिंदी की शोध स्तर तक की पढ़ाई होती है। दोनों ही विश्वविद्यालयों में भारत-प्रेमी शिक्षक मंडल मौजूद है। इनमें प्रसिद्ध हैं-पद्म श्री तोमिओ मिज़ोकामि, अकिरा ताकाहाशी, ताकेशि फुजिइ, यशोफुमि मिजुनो आदि। इनके आतिरिक्त कई अन्य विश्वविद्यालयों में समान्य शिक्षण के तौर पर हिंदी का अध्यापन किया जाता है। हिदेआकि इशिदा हिंदी के साथ मराठी साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखते हैं। तोषियो तनाका जी ने हिंदी की कुछेक महत्त्वपूर्ण रचनाओं का अनुवाद जापानी भाषा में किया है। बहुधा जापानी विद्वत समाज चुपचाप, बिना प्रचार-प्रसार के अपने अनुसंधान में लगा रहता है। वे अपने किए गए कार्यों की जानकारी जानकारी संकोचवश सहजता से साझा नहीं करते। संकोच, जीवन के परिवेश में छाया की भाँति टहलता है। एक बार मेरी एक छात्रा ने बताया कि वह अपने माता-पिता से भोजन के समय थोड़ा शराब की खुमारी के बाद ही सहजता से बात कर पाती है। बातचीत भी एक साधना और सचेत व्यवहार जैसा बना हुआ है। प्रश्न और शिकायतें प्राय: जज्ब कर ली जाती हैं। अक्सर मैने देखा कि छात्र कक्षाओं में सवाल नहीं पूछते थे, बावजूद मेरे उकसाने के। इससे ऐसा लगता है कि एक घुटन भी पैदा हुई है जिससे हर रोज लगभग 30 लोग आत्महत्या जैसे कदम उठाने को विवश होते हैं, जो कम जनसंख्या के हिसाब से बहुत ज्यादा है। विवाह जैसी संस्थाओं का विघटन हो रहा है और हर साल लगभग तीन लाख के करीब आबादी में गिरावट जाती है।  

ऐसे ही घूमते-घामते जापान की सांस्कृतिक राजधानी क्योतो और व्यावसायिक राजधानी आोसाका का भी भ्रमण हुआ। हिरोशिमा के भग्न गुम्बद को देखकर दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका का सहज अनुमान कर पाया।क्योतो अपने प्राचीन रूप को अभी भी सहेजे हुए है। अनेक मंदिर, कलाएँ, पारंपरिक परिधान, नृत्य, नाट्य, संगीत, पाक विद्या, स़्थापत्य के नमूने पूरे शहर में बिखरे पड़े हैं। इसका बड़ा कारण यह भी है कि विश्वयुद्ध के समय इस शहर पर कोई बमबारी नहीं हुई। केन्काकू-जी  स्वर्ण-मंदिर अत्यंत आकर्षक है। प्रकृति के बदलते परिवेश में यह अपनी छटा बदलता रहता है। यहीं पर विश्व प्रसिद्ध मंदिर क्योमिजूदेरा भी है, जो एक खूबसूरत पहाड़ी पर अवस्थित है. इस मंदिर को देखकर अपने तिरुपति तिरुमला तीर्थ की स्मृति आना स्वाभाविक था। क्योतो के पास का शहर ओसाका है जो जापान का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। यहाँ से हिरोशिमा तक की यात्रा बुलेट ट्रेन-सिनकानसेन-से लगभग तीन घंटे में पूरी हो जाती है। हिरोशिमा, जैसा कि हम सब जानते हैं, दूसरे विश्वयुद्ध में अणु बम के प्रहार से पूरी तरह ध्वस्त हो गया था। लेकिन, अब वह पूरी तरह पुनर्जीवित हो चुका है। यादगार के लिए एक गुंम्बद को संरक्षित किया गया है और एक शांति-मेमोरियल तथा संग्रहालय की स्थापना की गई है। दुनिया से नाभिकीय अस्त्रों की समाप्ति के अभियान प्राय: यहीं से संचालित किए जाते हैं। लेकिन हिरोशिमा का भूदृश्यीय सौंदर्य सागर के बीच स्थित एक छोटे से द्वीप मियाजिमा में ही देखने को मिलता है। समुद्र के बीच स्थित एक भव्य श्राइन है जो पूर्णत: लकड़ी का बना है साथ ही एक विशाल तोरण द्वार खड़ा है-देव आत्माओं का आह्वान करते हुए।

थोड़ा इतिहास और राजनीति की ओर देखें तो हम भारतीयों को नेताजी सुभाष बोस की याद जापान के संदर्भ में सबसे पहले आती है। तोक्यो के कोएन्जी शहर में स्थित रेन्को-जी श्राइन में उनका अस्थि-कलश संरक्षित है। लेकिन जिस एक व्यक्ति के बारे में मैं बिल्कुल नहीं जानता था वे विधिवेत्ता राधाबिनोद पाल हैं। वहाँ के राष्ट्रीय स्मारक-यासुकुनी श्राइन- में इनको गहरी श्रद्धा और आदरपूर्वक प्रतिष्ठित किया गया है। आमेरिका, चीन और दक्षिण कोरिया के विरोध के चलते जापान का कोई प्रधानमंत्री यहाँ नहीं जाता था। ये तीनों देश इस स्थल को दूसरे विश्वयुद्ध को न्यायोचित ठहराने और महिमांडित करने की जापानी कोशिशों के तौर पर देखते हैं। हालाँकि विगत प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने पहली बार यहाँ जाकर साहस दिखाया। राधाबिनोद पाल के योगदान को आज एक वेब सीरीजतोक्यो ट्रायल्समें प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। वे अकेले ऐसे जज थे जिनके विरोध के चलते अनेक जापानी सैनिकों को द्वितीय विश्वयुद्ध के दोष से मुक्त कर दिया गया और वे फाँसी की सजा से बच सके थे। इसी तरह का व्यक्तित्व रासबिहारी बोस का था जो आजाद हिंद सैनिक के तौर पर जापान गए थे वहाँ उनकी स्मृति गहरे तक पैठी। उनकी समाधि मेरे विश्वविद्यालय के बहुत ही करीब तमा सिमेट्री में है। लेकिन, मैं पहली बार वहाँ आोसाका से आए अपने मित्र प्रो० चैतन्य प्रकाश योगी के साथ गया जहाँ उस विशाल श्मशान भूमि की नीरवता में हम घंटों पैदल विचरते और बतियाते रहे। परंपराओं का प्रवाह कभी दृश्यमान तो कभी अनदेखा भी रहता है। मेरे मेधावी छात्र यूता सतो, जो अवधी भाषा सीखने के मेरे पास जाया करते थे, से प्रसंगवश मैं अपने गृह जनपद अयोध्या में प्रचलितदरिदर भगानेकी परंपरा का उल्लेख कर रहा था। तब उन्होंने इसी तरह के एक अनुष्ठान-सेत्सुबून-के बारे में बताया। पितृपक्ष जैसे अनुष्ठान भी जापान जनजीवन में श्रद्धापूर्वक मनाए जाते हैं। 

ऐसा नहीं है कि जापानी लोगों की भारत के प्रति उत्सुकता केवल बौद्ध दर्शन को लेकर ही रही हो। फूकुओका के निवासी तत्सुमारू सुगियामा ने अपनी करोड़ों की जापानी संपत्ति बेचकर पंजाब में वृक्षारोपण का व्यापक अभियान चलाया जिससे राजस्थान का पसरता मरुस्थल थम गया। वे गाँधी जी के जीवन-दर्शन से बेहद प्रभावित थे और एशियाई श्रेष्ठता के पैरोकार भी। भारत के प्रति उनकी गहरी श्रद्धा थी। इसी तरह सुदूर प्रांत-नीगता- के तोकियो हाशेगावा ने मिथिला भिति-चित्रों का विशाल संग्रहालय स्थापित किया हुआ है जो आज भी प्राणवान बना हुआ है। वे बहुधा भारत आते हैं और उत्तर-पूर्वी राज्यों खासतौर पर मणिपुर में अपना समय व्यतीत करते हैं।

अभी हाल ही में भारत, जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के नए समूह-क्वाड-को पुनर्जीवित किया गया है। भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का जापान में विशेष आदर है। क्वाड के इस प्रयत्न से दोनों देशों के और करीब आने की संभावना है जिनमें चीन से रही चुनौतियों का दोनों मुल्कों को सामना भी करना है। प्राय: चीनी युद्धपोत जापान की समुद्री सीमाओं में घुसकर अपनी धौंसपट्टी जमाते रहते हैं जैसाकि वे हमारे लद्दाख, सिक्किम या अरुणाचल में करते हैं। अनेक जापानी कंपनियाँ भारत को नए निवेश स्थल के तौर पर देख रही हैं। ऐसा हो तो हमारे आर्थिक संबंधों में अधिक प्रगाढ़ता आएगी और दोनों राष्ट्र समृद्धि की नई राहों पर चल पड़ेंगे।

       जापान एकांत और नीरवता की पोषक भूमि है। जहाँ दूसरे लोग बेवजह आपके जीवन में प्रवेश करने से बचते हैं। बारिश प्राय: हो जाया करती है जो हम जैसे दिल्लीवासियों के लिए रोमांच लाती है लेकिन जापानी इसे मुसीबत मानते हैं। जापान के उस सन्नाटे मेरा प्रवास एक आत्मान्वेषण का उपक्रम ही तो था जिसने बहुत कुछ बदला है। पराई संस्कृतियाँ परिवर्तन की दस्तक देती है और परिवर्तन का घटित होते रहना ही जीवन का सर्वोच्च आनंद है।

संदर्भ सूची-

1. https://www.japan-india.com/english

2. https://www.youtube.com/watch v=fd4wo5xHEoM

3. https://artsandculture.google.com/entity/m0118nwzd?hl=hi

4. https://geolog.mydns.jp/www.geocities.co.jp/kubo_yasu/       A_NEW_GREEN.pdf