दिव्यांगता से संपूर्णता के दिग्दर्शन कराती देशी – विदेशी फिल्में

 Title: दिव्यांगता से संपूर्णता के दिग्दर्शन कराती देशीविदेशी फिल्में

Article-ID 202008018/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.2 May-August 2020 Language:Hindi:E                                                

Domain of Study: Humanities & Social Sciences

                                                                      Sub-Domain: Cine-Studies (Review*)

मधु लोमेश (डॉ०)

एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग हिन्दी पत्रकारिता (विशेष), अदिति महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली (भारत)

[E-mail: madhulomesh@yahoo.in   [M:+91-9810544296]                                                                                                                                          



Summary in English

Disability is portrayed in several Bollywood and foreign movies. Dr. Lomesh has identified a few them for her empirical study. My left foot, Rust and Bone, Turtles can fly, sea inside, The Brooke Elpis Story and The Intouchabl are discussed at length in this paper. She has analyzed these film, parallel to Bollywood movies for the sake clarity and wider insight. How the social psyche and individual mindset have changed due to the impact of these movies are the key issues raised in this reasearch article.

                                             

दिव्यांग होना अभिशाप नहीं. जीवन यात्रा जो समान्य लोगों के लिए सहज प्रवाह है वही शारीरिक अक्षमताओं से युक्त दिव्यांग लोगों के लिए ऐसा पीड़ादायक अनुभव है जो अनेक कष्टों और चुनौतियों से भरपूर हैं.सामान्यतः इसका अहसास वे लोग नहीं कर पाते हैं जो अपने निकट जीवन में इससे न जुड़े हों . स्वयं को मुख्यधारा में न ला पाने की बेबसी, समाज से मिलने वाली उपेक्षा, सरकारी सहायता का अभाव और सगे-संबंधियों/पारिवारिक उदासीनता के चलते दिव्यांग होना उनकी प्रतिभा शक्ति को क्षीण करने में अग्रसार रहता है. प्रतिभा जन्मजात होती है .शारीरिक अक्षमताएँ, दुर्बलताएँ ,प्रबल इच्छा शक्ति और दृढ़ विश्वास के आगे नतमस्तक हो जाती हैं – मानव जाति के इतिहास से आज तक, हम जब चाहें इसके साक्ष्य उपलब्ध करा सकते हैं.

फिल्मों के माध्यम से बड़े कैनवास पर दिव्यांग जीवन की झलक देखना ज्ञान – चक्षुओं को खोलने सरीखा है. जिसे वास्तविक जीवन में हम सदैव नकारने की तमाम कोशिशों में लगे रहते हैं . मानव जीवन की ,जीवन सत्यों और अनछुए पहलुओं की सार्थक अनुभूति कराने में फिल्मों से बेहतर कोई और विकल्प हो ही नहीं सकता . दिव्यांग लोगों की समस्याओं, जीवन जीने की विकट कला से अवगत कराने, उनकी मानसिक स्थितियों से साक्षात्कार कराने में फिल्मों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. एक सार्थक और सशक्त जनमाध्यम के रूप में स्वयं को स्थापित करते हुए फिल्मों ने दिवयांगों के व्यक्तित्व के उन छिपे हुए पहलुओं को अपने समाज से रूबरू कराने का भी उल्लेखनीय कार्य किया है. जिन्हें देख कर उनकी छिपी हुयी प्रतिभा पर यकीन कर पाना मुश्किल होता है. ब्लैक, द थ्योरी ऑफ एवरीथिंग ,(The Theory of Everything),स्टिल एलिस म्यूजिक विथ इन( Still Allice Music with in), सहित भारतीय हिन्दी फिल्मों में कोशिश, कुंवारा बाप, नाचे मयूरी, सदमा जैसी फिल्मों ने जनसमाज की सोच को अधिक परिपक्त और संवेदनशील बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. दिव्यांगता में संपूर्णता के दिग्दर्शन कराने की दिशा में फिल्मों का इस प्रकार का योगदान निश्चय ही सराहनीय है. इससे न केवल समाज की सोच बदलती है वरन उन्हें मुख्यधारा में लाने के प्रयासों और उनकी छवि, उनकी प्रतिभा को पहचान दिलाने में भी मदद मिलती है, जो स्वस्थ समाज निर्माण के लिये आवश्यक है .

समाज भारतीय हो या विदेशी मानसिकता समान ही है. दिव्यांगों के लिये कृपा-पात्र बनना, उनकी उपेक्षा, उनके प्रति उदासीन रवैया विश्व के सभी देशों में ,सभी समाजों में देखने को मिलता है. सहानुभूति, उनकी बेबसी के प्रति अपेक्षाकृत ,अधिक सचेष्ट रहने की प्रवृतियों ने दिव्यांग लोगों को स्वयं की पहचान बना पाने की चुनौती को और अधिक विकट बना दिया है. आमतौर पर यह सामाजिक धारणा बना ली गयी है कि - शारीरिक असक्षमता , मानसिक अपूर्णता का भी पर्याय है जबकि यह सत्य नहीं है. अपवाद स्वरूप ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिसमें शारीरिक अक्षमताओं पर विजय पाते हुए, मानसिक बल, आत्मिक शक्ति के बल पर दिव्यांग लोगों ने अपनी उपस्थिति और विशिष्ट पहचान बना कर सभी को चमत्कृत किया है. हमारे आस – पास ऐसे घटना प्रसंगों, ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्तित्वों की कमी नहीं हैं ,जिन्होंने दिव्यांग होने पर भी जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति में अपनी शारीरिक अक्षमताओं को आड़े नहीं आने दिया.

The Theory of Everything एक बेहद अलग प्रकार की प्रेरक फिल्म है जो इसी जज़्बे को उभारती है. स्टीफन हॉकीन्स के जीवन पर केन्द्रित यह फिल्म उस महान शख्सियत के चरित्र को विस्तृत आयाम प्रदान करता है जो शारीरिक अक्षमताओं के बावजूद विज्ञान क्षेत्र में एक नया इतिहास रचने को प्रतिबद्ध है. अपनी अद्वितीय प्रतिभा के बल पर नए प्रयोग और नये सिद्धांतों के उन्नयन के साथ – साथ इस महान वैज्ञानिक के जीवन के उतार – चढ़ावों, दाम्पत्य सम्बन्धों का गहन चित्रण  देखने को मिलता है. प्रेम की पराकाष्ठा के दर्शन, पत्नी का समर्पित भाव से स्टीफन के साथ शिखर तक देखने की महत्वकांक्षा, आपसी तालमेल, विश्वास आदि को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है. संदेश यही है - कि किस प्रकार पारिवारिक सम्बल पाकर दिव्यांग जीवन की कमियों को भुला सकता है. अपनी शारीरिक अक्षमताओं से उत्पन्न होने वाली समस्याओं से जूझने का साहस कर सकता है. शनैः शनैः शारीरिक अचैत्यन्यता की स्थिति में भी एक युवा वैज्ञानिक, जो केवल मस्तिष्कीय चेतना के बल पर भौतिक शास्त्र में नित्य नए प्रयोग, नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है. बड़े पर्दे पर देखना एक नया अनुभव है.

Black ’ फिल्म के माध्यम से भी यही संदेश देने का प्रयास किया गया है. हेलन केलर के जीवन पर आधारित यह फिल्म नेत्रहीन लड़की के जीवन – संघर्ष ,उसके प्रेरक व्यक्तित्व और उन समस्याओं पर फोकस करती है | बेहतरीन फिल्मों में शुमार ‘ ब्लैक ’ फिल्म वास्तव में पारिवारिक उपेक्षा का शिकार दिव्यांग लोगों के प्रति समाज के उदासीन रवैये पर प्रकाश डालता है,जो निश्चित तौर पर अपने आस पास दिव्यांग लोगों की मौजूदगी और उन्हें स्पेस देने से कतराता है. पर अपनी दृढ़ – इच्छा रखने और उच्च महत्वाकांक्षाओं के चलते नेत्रहीन नायिका अपनी प्रतिभा का लोहा ही नहीं मनवाती अपितु संपूर्णता के दिग्दर्शन कराते हुए अपने बचपन के साथ – साथ रहकर प्रेरित करने वाले अपने अध्यापक को अल्जाइमर रोग से पीड़ित होने पर अपना बटोरा हुआ ज्ञान उन पर लूटा कर उनकी सेवा सुश्रुषा कर अचंभित कर देती है .

दिव्यांग लोगों की समस्याओं और उनके जीवन के विविध पक्षों पर ध्यान केन्द्रित कर बेहतरीन फिल्मों का निर्माण किया गया है. उत्कृष्ट अभिनय, संदेश प्रस्तुति के लिए इन फिल्मों को राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय अवार्ड से सम्मानित भी किया जाता रहा है. दोस्ती फिल्म एक पैर गंवा चुके लड़के और नेत्रहीन दो मित्रों की अटूट दोस्ती पर बनी फिल्म है. 1960 के दशक में निर्मित यह फिल्म समाज में दिव्यांग लोगों की स्थितियों और उनके प्रति समाज के व्यवहार को दर्शाती है. आज भी इस प्रकार के व्यवहार में अधिक अंतर नहीं आया है – यह फिल्मों के संदर्भ में विचारणीय है. दो दिव्यांग मित्रों की दोस्ती और पारस्परिक समझदारी समाज से जूझने का, अपना वर्चस्व स्थापित रखने में किस प्रकार सहायक हो सकती है, इस फिल्म के माध्यम से भली भांति समझा जा सकता है. 

एक बहुत ही संदेशप्रद और सार्थक फिल्म है स्पर्श. नेत्रहीन स्वावलम्बी नायक, एक मुखर व्यक्तित्व के रूप में पहचान बनाए हुए जिस प्रकार अपने जीवन के क्रिया व्यापारों को अंजाम देता है, दूसरों की हमदर्दी बेवजह की तवज्जो से क्रोधित हो जाता है. वह अपने लिये समाज में, परिवेश में स्वयं स्थापित होने की दृढ़ इच्छा को प्रबल करता है. समाज का कृपा पात्र होना अथवा कृपा दृष्टि दिखाना दिव्यांगों के लिए उपहास उड़ाने जैसा हो सकता है – यह इस फिल्म का मुख्य भाव है. नेत्रहीन नायक न केवल स्वयं के लिये उन्मुक्त आकाश की तलाश करता है बल्कि अपने जैसे अनेक दिव्यांग लोगों में भी इसी प्रकार के भावों की प्रेरणा देता है. नायिका उसके व्यक्तित्व की इन्हीं विशेषताओं से आकर्षित होकर उसके लिये प्रेम भाव दर्शाती है.  ‘कोशिश’ फिल्म के माध्यम से मूक और बधिर लोगों की समस्याओं को दर्शाया गया है. जिसमें मूक बधिर नायक नायिका समान परिस्थितियों में जीवन जीने को विवश हैं . विवाह भी करते हैं और उनके बच्चे होते हैं . मूक बधिर जीवन जीते हुए बच्चे की अच्छी परवरिश करना उन के लिए बड़ी चुनौती थी. फिल्म उनके विषम जीवन की झांकी दिखाता है. दर्शक इन स्थितियों से आँखें नम किए बिना नहीं रह पाते.

‘ सदमा ’ फिल्म के माध्यम से स्मृति लोप का शिकार हुई लड़की की स्थितियों का नाटकीय चित्रण किया गया है. नायक नायिका की अल्हड़ अठखेलियों, एक बच्चे के रूप में परिवर्तित उसकी मनोदशा के अनुरूप हर संभव उपचार कर स्वयं उसके प्रेम में गिरफ्तार हो जाता है. एक दिन स्मृति लौट आने पर नायिका अपनी दुनिया में लौट जाती है और नायक हतप्रभ सा, ठगा सा उसे जाते हुए देखता रहता है. कोई मिल गया जैसी लोकप्रिय फिल्म सीक्वल में भी कुछ इसी प्रकार की समस्या को दर्शाया गया है. उम्र बढ़ाने के साथ मस्तिष्क का विकास नहीं होता परिणामस्वरूप युवावस्था में बालपन की स्थिति, नटखट जीवन और खेल खेल में कुछ विशिष्ट प्रतिभा-प्रदर्शन कर अपनी पहचान बना लेता है. उपग्रह से आए ‘ जादू ’ जैसे चरित्र उस में चमत्कृत गुणों से वैशिष्ट्य  उत्पन्न करते हैं और वे समाज में अपनी नयी पहचान बनाने की ओर अग्रसार होते हैं.

वास्तव मे दिव्यांग लोगों पर केन्द्रित फिल्मों में अधिकांशतः दिव्यांग लोगों की समस्याओं का सतही चित्रण कर समाज को उनके प्रति संवेदनशील बनाने की कवायद अधिक रहती है. दया ,करुणा, सहानुभूति का भाव जागृत कराते हुए फिल्में अपने कर्तव्यों का इति-श्री भी माल लेती हैं पर सभी फिल्मों में ऐसा ही है – सही नहीं है. वर्णित फिल्मों के अतिरिक्त अन्य अनेक फिल्में और भी हैं जिनमें ईमानदारी से उनके पक्ष को उकेरते हुए दिव्यांग लोगों की अदम्य लालसाओं, प्रेरक व्यक्तित्व के दमदार पहलुओं को ईमानदारी से दर्शाया गया है. ऐसी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर धमाल भी किया है और समाज में एक नया संदेश भी दिया.  स्वयं दिव्यांग लोगों का चरित्र निभाते हुए दिव्यांग स्वयं में एक मिसाल भी बने हैं. इन फिल्मों का उद्देश्य सहानुभूति पैदा करना, सहानुभूति / कृपा दृष्टि हासिल करना भी कदापि नहीं है. एक जज्बा है – सामान्य लोगों से कमतर न आँके जाने का, अपने दम पर सामान्य लोगों से कदमताल कर उनसे भी आगे निकाल जाने का . वहाँ पीड़ा बेबसी का साम्राज्य भी है .उदासी, उपेक्षा, उदासीनता के बावजूद नए क्षेत्रों में अपनी अलग पहचान निर्मित करने का साहस दृढ़ विश्वास ही इन फिल्मों का मूलमंत्र है.माई लेफ्ट फुट (My left foot),रस्ट एन्ड बोन (Rust and Bone),टटेल्स केन फ्लाई (Turtles can fly),सी इनसाइड (sea inside),द ब्रुक इलिप्स स्टोरी (The Brooke Elpis Story), द इनट्च(The Intouchabl) ऐसी ही फिल्में हैं. इन फिल्मों में एक कृतज्ञ संदेश समाज और परिवार के लिए निहित है जो निस्वार्थ भाव से दिव्यांगों को ऊंची उड़ान उड़ने के लिए मुक्कमल आकाश मुहैया कराने में जी जान से जुटा है. एक का सहयोग ही दूसरे की प्रेरणा बन जाता है.स्टील अलाइस (STILL ALICE) फिल्म अल्जाइमर रोग ग्रस्त महिला के जीवन पर केन्द्रित है. अल्जाइमर रोग का सूक्ष्म चित्रण करते हुए उस रोग की जटिलता का सुंदर वर्णन इन फिल्म की विशेषता है. मुख्य पात्र जुलियाना मूरे रोग ग्रस्त है. उस परिवार की समस्याएँ, उनकी मनोदशा व उनका व्यवहार ,इस बीमारी को बेहतर ढंग से समझने और समझाने के लिए पर्याप्त है. अन्य लोगों की प्रतिक्रियाओं के माध्यम से स्थिति की गंभीरता को कुशलतापूर्वक दर्शाया गया है. रोग ग्रस्त पात्र की दृष्टि से फिल्मांकन किया जाना इस प्रकार के सत्योद्घाटन को अधिक मार्मिक और सम्प्रेषणीय बना देता है. समाज इन रोगों को सुनता ही रहा है, बड़े पर्दे पर देखना और इस रोग की भयावहता की अनुभूति करना निश्चय ही सोच परिवर्तन मे कारगर सिद्ध होता है.

हॉलीवुड में ही नहीं बॉलीवुड में भी ऐसी फिल्मों की कमी नहीं है जिनमें लीड रोल में उन्हीं पात्रों को चयनित किया गया है जो स्वयं उस किरदार में हैं.  वास्तविक जीवन की समस्याओं को स्वयं झेलते हुए फिल्मों में उन पात्रों को जीवंत करना अधिक चुनौती पूर्ण होता है. सामाजिक संवेदनाओं को उद्बुद्ध कराने की दृष्टि से भी इस प्रकार के प्रयोग सहायक हैं.  ‘ नाचे मयूरी ’ फिल्म में सुधा चन्द्रन ने अपने एक पैर के बल पर सफल नृत्यांगना का चरित्र जीवंत कर दिया है.डेनियल डे लिनाइस् (Daniel Day Lewis) द्वारा अभिनीत फिल्म माई लेफ्ट फुट( My Left Foot),जॉन हॉक्स (John Hawkes) की फिल्म द  (The Sessions) कुछ इसी प्रकार के उदाहरण है. पर फिल्मों में करना चुनौतीपूर्ण अवश्य रहा होगा उनके लिए.

Disability is a state of mind ’ को फिल्मों के माध्यम से बखूबी दर्शाने का प्रयास लिया गया है. विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में, अक्षमताओं से ऊपर उठकर मानसिक और आत्मिक बल के आधार पर अपने जीवन-लक्ष्य को प्राप्त करना और अपने प्रतिभाशाली व्यक्तित्व की अनुभूति कराना इन फिल्मों की पहचान है. संकीर्ण विचार – धाराओं वाले समाज में अपनी विशिष्ट छवि से परिचित कराना सरल नहीं ,पर ऐसे जुझारू लोगों की कमी नहीं है जो इस कार्य को पूरा करने का जोखिम उठाते हैं. राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय  स्तर पर दिव्यांग चेहरों की एक लंबी फेहरिस्त तैयार की जा सकती है, जिन्होंने अपनी विशिष्ट प्रतिभा का परिचय देते हुए अदम्य साहस से चुनौतियों का सामना करते हुए नए कीर्तिमान स्थापित किए. सुधाचंद्रन, रवीन्द्र जैन, गिरीश शर्मा, शेखर नाइक, प्रीति श्री निवासन, सतेन्द्र सिंह, प्रभु, साईं प्रसाद, विश्वनाथन, अकबर खान, अरुणिमा सिन्हा, जावेद आबिदी, राजेन्द्र सिंह, जैसे अनगिनत नाम परिचय के मोहताज नहीं हैं. इसी प्रकार हेलन केलर, एल्बर्ट आइंसटाइन, एलेक्सजेन्डर ऐहम बेल, चैर, डेविड व्लैंकेट, क्रिस्टोफर रीव, थॉमस एडीसन, फ्रैंकलिन के नाम उल्लेखनिए हैं |

फिल्में इन विशिष्ट व्यक्तित्वों को मंच प्रदान करने का साधन मात्र है साध्य नहीं.अनब्रेकबल (Unbreakable), रे (Ray),हाउ टू ट्रेन योर ड्रेगन गाट्टका (How to train your Dragon Gattaca) , द बोन कलेक्टर (The Bone Collector) जैसी फिल्मों में उनके चमत्कृत व्यक्तित्व और उनकी प्रतिभा को बड़े पर्दे पर चित्रित कर सामाजिक चेतना का संचार किया गया है . एक अप्रोच है, एक अपील है जो सीधे दर्शकों को दिव्यांग पात्रों से जोड़ती है, उनके जज्बे को सलाम करने के लिए प्रेरित करती है . बेटर ऑफ वर्स (Better of worse),बैगर इन इरमाइन ( Begger in Ermine), बिगर दैन लिफ(Bigger Than Life),ए बिट ऑफ लक(A Bit of Luck),ब्लाइन्डनेस( Blindness),ब्लाइंड मैन्स ब्लफ (Blind Mans Bluff) फिल्में भी उल्लेखिनीय है.डिसेबलिटि (Disability) अथवा दिव्यांगता कोई बीमारी नहीं हैं .समाज का अभिन्न अंग होते हुए वे सामान्य लोगों की भांति जीवन जीने के अधिकारी हैं . उन्हें समाज से प्रेम,अपनत्व, सहयोग की आवश्यकता है . दिव्यांगता जन्मजात अथवा दुर्घटनावश किसी भी प्रकार से किसी को भी हो सकती है . इसे अभिशाप स्वरूप न समझा जाए . फिल्में इस दिशा में सामाजिक सोच परिवर्तन कर सकारात्मक भूमिका में हैं .

*Observations on this article may be submitted to editorccgs@gmail.com by Sept 15, 2020.