राजा है तो सीताफल से डरेगा ही!

Title:   राजा है तो सीताफल से डरेगा ही!
Article-ID 202004004/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.1 Jan-April 2020 Language::Hindi                                               
Domain of Study: Humanities & Social Sciences
                                                                      Sub-Domain: Literature-Book Review
साहिल कैरो
शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, भारत
[E-mail: sahilkairo99@gmail.com]   [Mob:+91-9818018494]                                                                                                                                            
       

[अज्ञेय ने 1935ई. के ‘विशाल भारत’ में जैनेन्द्र कुमार के कहानी-संग्रह ‘दो चिड़ियाँ’ की समीक्षा करते हुए लिखा था, जो लोग कहानी सिर्फ वक्त बिताने के लिए नहीं पढ़ते, उन्हें यह संग्रह अवश्य पढ़ना चाहिए.(1) चौखटें बाँधने को भले ही साहित्य और ज्ञान की दुनिया में (कहने के स्तर पर ही सही) अनुचित माना जाता हो पर आलोच्य कहानी और प्रस्तुत लेख के लिए अज्ञेय की यह चौखट उपयुक्त ठहरती है.]

नीचे पारदर्शी इमारतें और ऊपर एक नहीं अनेक सूर्य, रात-दिन के विधान से परे उजाले के राज से गतिमान (जिसमें सिर्फ दिन ही दिन होता है, रात का कोई स्थान नहीं – सैषा सर्वत्र प्रकाशम्) ; ऐसा भी एक राज्य है. नाम है ‘वर्तुल’. इस और उस दुनिया का तो पता नहीं, पर प्रवीण कुमार की इधर प्रकाशित कहानी में अवश्य है. जितना अनोखा यह राज्य है उतना ही अनूठा है इसकी दास्तान का शीर्षक भी – ‘एक राजा था जो सीताफल से डरता था’. अब बताइए कितना ही कह लीजिये कि नाम में क्या रखा है, पर यहाँ तो नाम ही कमाल कर जाता है. इसके आकर्षण का एक अपना जादू है जो पाठक की निगाहों को ठहरा (क्या जमा ही) लेता है. एक तो राजा, जो स्वयं ही बीते समय की बात हो चुका है और वो भी ऐसा-वैसा नहीं नींद को जीत चुका, कभी न सोने और न थकने वाला राजा; पर हमारे जैसे साधारण-दुर्बलों की भूख का अमूमन शिकार होने वाले सीताफल से जिसकी हवा सरक जाती है. यों इस कालातीत, अलौकिक और दैवीय शक्ति-सम्पन्न महापुरुष के सामने एक सीताफल की क्या बिसात! और अगर कुछ होने की संभावना भी बनती है तो वो परीकथाओं या जादुई किस्सों में ही हो सकती है, जहाँ तो एक तोते के भीतर विशालकाय राक्षस की भी जान बस सकती है. पर समस्या का समाधान तो इतने भर से भी नहीं होता क्योंकि ऐसी स्थिति में तो इस कहानी पर चर्चा की क्या ही आवश्यकता!

कृष्णदत्त पालीवाल के आलोचना-वृत्त में निर्मल वर्मा

Title:   कृष्णदत्त पालीवाल के आलोचना-वृत्त में निर्मल वर्मा 
Article-ID 202004003/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.1 Jan-April 2020 Language::Hindi                                               
Domain of Study: Humanities & Social Sciences
                                                                      Sub-Domain: Litrature-Memoir
राम प्रकाश द्विवेदी
ऐसोसिएट प्रोफेसर, डॉ० भीमराव अंबेडकर कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, भारत
[E-mail: ram.dwivedi@bramb.du.acin]   [Mob:+91-9868068787]                                                                                                                                            


आलोचक अौर रचनाकार का अनूठा रिश्ता होता है। वे एक दूसरे के पूरक होते हैं अौर दोनों के बीच एक सरोकारी संतुलन भी होता है। जब यह संतुलन गड़बड़ाने लगता है तो आलोचक में पूर्वग्रह सक्रिय हो चलता है अौर रचनाकार का वास्तविक मूल्यांकन बाधित होता है। आलोचक के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती उन कसौटियों को तैयार करना है, जिनसे उस विशिष्ट रचनाकार की भावभूमि का उद्घाटन हो सके। आलोचक को एक दूरस्थ-आत्मीयता अालोच्य लेखक से बनानी पड़ती है। अालोचक की जवाबदेही दोहरी है-रचनाकार अौर पाठक दोनों के प्रति। बहुधा देखने में आता है कि पाठक विभिन्न, विरोधी से दिखने वाले भी, लेखकों से सहजता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है लेकिन आलोचक अपने मानकों के चलते यदा-कदा कृतियों के साथ न्याय कर पाने में सक्षम नहीं होता। ऐसा कर पाने में वही आलोचक सक्षम होता है जिसकी आलोचना की कसौटियाँ अपनी लोच बनाएँ रखने में सक्षम होती हैं अौर जिसमें उदारता का बोध सक्रिय रहता है। 

कहावतों का जाति विमर्श

 Title: कहावतों का जाति विमर्श 
Article-ID 202004002/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.1 Jan-April 2020 Language::Hindi                                                
Domain of Study: Humanities & Social Sciences
                                                                      Sub-Domain: Folk Culture
डा. सत्य प्रिय पाण्डेय
लोक साहित्य विमर्शकार एवं असिस्टेंट प्रो० श्यामलाल कॉलेज , दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, भारत
[E-mail: pandeysatyapriya@gmail.com]  [Mob:+91-8750483224 ]                                                                                                           


संसार की शायद ही ऐसी कोई जाति रही हो जिस पर कहावतें न बनीं हों | जहां जाति भेद नहीं रहा वहाँ नस्ल भेद रहा है, रंग भेद रहा है , भेद किसी न किसी रूप में अवश्य रहा है | इसलिए भारत ही नहीं विश्व के अन्य देशों में भी जाति और नस्ल पर कहावतें मिलती हैं | यह इस बात का प्रमाण है कि हर जाति अथवा नस्ल की कोई न कोई ऐसी विशिष्टता जरूर होती है जो उसे अन्य जाति से अलग एक विशिष्ट पहचान दिलाती है इसे कोई उसका दोष भले कहे किन्तु इनका बड़ा ही सूक्ष्म विश्लेषण कहावतों में प्राप्त होता है | एक फ्रांसीसी कहावत देखें जिसमें यहूदी , ग्रीक और अर्मेनियन के बारे में कहा गया है कि – यहूदी और साँप हों तो साँप पर विश्वास करो , यहूदी और ग्रीक में ग्रीक पर किन्तु अर्मेनियन पर कभी विश्वास नहीं किया जा सकता | 1 यहूदियों के बारे में सभी देशों की कहावतों की राय लगभग एक ही तरह की है कि ये विश्वास के योग्य नहीं होते हैं | मसलन यहूदियों पर ही और कहावतें देखें – यहूदी ही यहूदी को धोखा दे सकता है 2| व्यापार यहूदी को नष्ट कर देता है और यहूदी व्यापार को 3|  एक लिवोलियन कहावत देखेंजिसमें यहूदी को सबसे ज्यादा ख़तरनाक बताया गया है – पोल जर्मन के द्वारा ठगा गया है , जर्मन इटैलियन के द्वारा , इटैलियन स्पैनियन के द्वारा , और स्पैनियन यहूदियों के द्वारा और यहूदी शैतान के द्वारा | 4 संभव है कि यहूदियों ने अपनी कुटिलता से लोगों को ठगा हो और अपना विश्वास खोया हो | 

जापान–भारत संबंध: अतीत, वर्तमान और भविष्य

Title: जापान–भारत संबंध: अतीत, वर्तमान और भविष्य
Article-ID 202004001/I GLOBALCULTURZ Vol.I No.1 Jan-April 2020 Language::Hindi                                                
Domain of StudyHumanities & Social Sciences
                                                                      Sub-Domain: International Relations
डॉक्टर तोमिओ मिज़ोकामि
प्रोफेसर एमेरिटस, ओसाका विश्वविद्यालय, अोसाका, जापान
[E-mail: indictomio@gmail.com]                                                                                                                                               


भूमिका
यह सर्वविदित है कि जापान और भारत का सांस्कृतिक संबंध बौद्ध धर्म के आगमन के साथ शुरू हुआ था छठी शताब्दी में । सब से पहले जो भारतीय जापान में आए थे वे बोधिसेना (703-760) नामक सम्मानित पुरोहित थे [1] । वे सन 752 में नारा शहर में स्थित तोदाईजि मंदिर में स्थापित बौद्ध की विशाल मूर्ति के ‘आँख खोलने के संस्कार’ (open-eye ceremony) अर्थात प्राण–प्रतिष्ठा में उपस्थित होने के लिए चीन की राजधानी चोआन से पधारे थे। उन दिनों उन्हें चीन से समुद्र पारकर छोटी नाव से जापान आने के लिए कितनी खतरों भरी यात्रा करनी पड़ी थी । उस प्रकार यात्रा में तूफान में डूबने का खतरा प्रतिफल रहता था । कहते हैं कि कई लोग समुद्र में डूबकर मर भी गए थे । यह इस बात का प्रमाण है कि जापान में बौद्ध धर्म बहुत निष्ठा से अपनाया गया था और भारत के प्रति जापानी लोगों में बहुत उत्कंठा थी, लेकिन इतिहास के लंबे दौर में यह भावना हमेशा एक नहीं रही। उतार-चढ़ाव और परिवर्तन भी हुए थे। और भारत के प्रति दृष्टिकोण में भी समय समय पर नाना कारणों से अंतर आता गया था । इस तथ्य पर प्रकाश डालना बहुत आवश्यक है ।

2. प्राचीन और मध्यकाल में जापान तथा भारत 
भूमिका में बता चुका हूँ कि प्राचीन जापान में जापानियों को गौतम बुद्ध की जन्मभूमि के रूप में भारत का परिचय मिला था । तब जापान में भारत को टेञ्जिकू कहते थे । उस युग के आम जापानियों के लिए ‘संसार’ का मतलब केवल जापान, चीन और भारत थे। अभी तक दुल्हन की प्रशंसा करते हुए दुल्हन को जापानी में ‘तीन देशों में सब से अच्छी दुल्हन’ कहा जाता है । यहाँ ‘तीन देशों’ का मतलब ‘सारे जहान’ से है । लेकिन तब तक भारत को किसी ने नहीं देखा था । पश्चिम की दिशा में स्थित भारत देश के बारे में ‘दर्शन का देश’ ,’धर्म का देश’ और ‘आध्यात्मिक देश’ की छवि लोगों के मन में थी । यह पवित्र स्थान, आदर्श देश था और पूज्य था ।